पांचजन्य का नाद अभी भी है इस हवा में

krishna panchjanya

कृष्ण अगर कन्फ़्यूजियाए अर्जुन को गीता न समझाते बल्कि अर्जुन को चार बनारसी सुनाकर ये कहते कि अर्जुन, तू तो हिन्दू है, तुझे कुछ समझाना बेकार है, तू बस शंका निकालेगा; कहेगा अगर ऐसे हो सकता तो अब तक किसी ने क्यूँ नहीं किया? ये मैं ही क्यूँ करूँ? या फिर कहेगा कि हम ऐसे ही थे, इसलिए मैं नहीं सुधरूँगा!

इसलिए तुझसे न हो पाएगा.

तो क्या होता?

वैसे एक मोहन था जिसने बिना शस्त्र लड़ने की रीति बतलाई. शायद वो मजबूरी थी क्योंकि जिन्होंने शस्त्र उठाने की हिमायत की थी उन्हें हिन्दुओं ने सुनने से मना कर दिया था. भले ही आज हम बोस – सावरकर को पूज रहे हैं लेकिन यह न भूलें कि हमारे ही बाप-दादा ने उनसे दूरी ही बनाई थी, चाहे वे गांधीजी के समर्थक रहे हों या न हों. गांधीजी ने हथियार उठाने से डरनेवाले समाज को पैसे को हथियार बनाने को कहा.

वो बंदर और टोपीवाले की कहानी जानते ही होंगे आप? टोपीवाले का पोता जब दादा की सीख याद करके अपनी टोपी फेंकता है तो एक बंदर उठाकर भागता है और कहता है कि समय के साथ सीखते – सुधरते हम भी हैं.

कृष्ण के हिन्दू अर्जुन ने धनुष्य उठाया था. मोहन के हिंदुस्तान ने स्वदेशी का शस्त्र उठाया था. किंकर्तव्यविमूढ़ होना अर्जुन का सनातन चरित्र है. और हमेशा नई नीति, नए शस्त्र विकसित करना कौरवों का चरित्र है.

तो क्या आज कृष्ण को भी किंकर्तव्यविमूढ़ होना चाहिए? इतनी तो इस धरती की कोख अभी खराब नहीं हुई कि कृष्ण भी मानसिक षंढ पैदा हो! पांचजन्य का नाद अभी भी इस हवा में है, बस कान लगाकर ध्यान देना जरूरी है.
जय योगेश्वर, जय हिन्द !

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