मनु स्मृति का उल्लेख है कि यदि शूद्र द्विजातियों को क्रूर वचन कहे तो उसे जिह्वाच्छेदन का दण्ड देना चाहिए. जलती हुई दस अंगुल की लौह-सलाख उसके मुँह में डाल देनी चाहिए, क्योंकि उसकी उत्पत्ति जघन्य स्थान से हुई है.
यदि शूद्र किसी ब्राह्मण को धर्म का उपदेश करे तो राजा उसके मुँह और कान में खौलता हुआ तेल डलवा दे. यदि उच्च वर्णों के साथ बैठना चाहे तो उसके नितंब का मांस कतरवा ले.
यदि चाण्डाल रात को घर में रह गया हो तो प्रातः घर में से खाद्य-सामग्री निकाल कर घर में आग लगा देना चाहिए, फिर वहाँ पर लिपाई करके ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिए और बीस गाय दान देना चाहिए, तभी आप शुद्ध होंगे अन्यथा कुम्भीपाक नरक में जायेंगे.
घर तो आपने फुंकवा ही दिया, खाद्य-सामग्री दूसरे दिन खा गये, बीस गायें भी ले ली. अब उस गरीब के पास बचा क्या?
शूद्र इतना त्याज्य है; किन्तु उसके यहाँ का दूध, घी, अन्न, मधु और सुन्दर स्त्री ग्राह्य है- ‘स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि.’
भोजन करते ब्राह्मण को, कुत्ता अथवा शूद्र देख भर ले तो वह भोजन राक्षस खा जाते हैं. खिलाने वाला भी नरक में जाता है. शूद्र को जूठा अन्न, पुराना वस्त्र, सारहीन अन्न, पुराना ओढ़ना और बिछौना देना चाहिए.
यदि वह वेद के एक वाक्य पर भी विचार करता है तो विचारमात्र से अन्ध-कुम्भीपाक नरक में जायेगा. न कभी कायदे से खाने दिया और न पहनने दिया. भगवान से भी उन्हें वंचित रखा इन स्मृतियों ने.
इसी कट्टरता की देन है कि केरल चला गया ईसाईयों के हाथ में, दस प्रतिशत सवर्ण बचे हैं वहाँ, और अपनी सम्पत्ति कौड़ियों के भाव बेचकर बम्बई की ओर भाग रहे हैं. कोल-भील जंगली जातियाँ ईसाई बन रही हैं, क्योंकि आप उन्हें अछूत कहकर भगा रहे हैं और वे गले लगा रहे हैं.
छूने और खाने से आपका धर्म नष्ट हो जाता है और जब कोई शूद्र ईसाई बनकर लौटता है तो हम-आप उसे साहब-साहब कहते हैं, कुर्सी पर बैठाते हैं, छिपकर आहें भरते हैं और दुहाई भी देते हैं कि धर्म-परिवर्तन हो रहा है.
स्मृतियों की व्यवस्था दी थी ऋषियों ने. मनुस्मृति के अनुसार, ‘जो उपनयन संस्कार के पश्चात 25 वर्ष की आयु तक गुरुकुल में निवास कर लेता है, वह ऋषि है. और उस ऋषि को चाहिए कि विवाह करे.’ भूल जाइये कि ऋषि अत्रि, दुर्वासा और चंद्रमा जैसे जितेंद्रिय होते थे.
एक विद्यार्थी, जिसने अभी-अभी आचार्य की डिग्री ली, वही ऋषि है. प्राचीन ऋषियों के स्थान पर कृत्रिम ऋषि पैदा हो गये. आज स्थान-स्थान पर गुरुकुल खुले हुए हैं, वहाँ कोई संस्कृत पढ़ने नहीं जाता. क्यों नहीं सभी अपने बच्चों को ऋषि बना लेते.
और गुरु कौन है?
मनुस्मृति के अनुसार- जो गर्भाधान से लेकर चिता तक का कृत्य करता है, उसे गुरु कहते हैं. गुरु मर जाय तो गुरुपत्नी में गुरु-भाव रखो, वह भी मर जाय तो गुरु के भाईयों में और उसके पश्चात गुरु के लड़कों में गुरु-भाव रखो जिससे ब्रह्मधाम की प्राप्ति होती है.
इस प्रकार मात्र पेट को लेकर नयी परिभाषाएँ गढ़ने वाली स्मृतियाँ शाश्वत, उस सनातन धर्म के अनुयायियों के विनाश का कारण बन गईं, भ्रम का सृजन कर गयीं.
भारत पर सिकन्दर के आक्रमण के समय साथ आने वाले इतिहासकारों (यूनानी) ने लिखा है कि- ‘क्षत्रिय लड़ रहे थे और बगल में ही किसान अपना खेत जोत रहे थे’. लोग अपने धन्धे में लगे थे; क्योंकि स्मृतियों में लिखा है कि शस्त्र केवल क्षत्रिय उठायेगा.
हाँ, दान में प्राप्त हुए वस्तु पर आपत्ति आती हो तो ब्राह्मण भी उठा सकता है. ब्राह्मण सेना के पीछे रहकर स्वस्तिवाचन करते थे और युद्ध में प्रस्थान करनेवाले राजाओं से प्रचुर दान-दक्षिणा करा लेते थे. लिखा है कि राजा सारा खजाना ब्राह्मणों को दान कर, पुत्र को राज्य देकर युद्ध के लिए प्रस्थान करे.
यही स्मृतियाँ भारत की गुलामी और मानव-मानव में घृणा का कारण बनीं. लिखा है कि सबसे नीच है कसाई, दस कसाई के बराबर एक तेली होता है. जबकि तेली कोई पाप नहीं करता. गेहूँ, चना पीसना और सरसों पेरना वनस्पति का एक जैसा प्रयोग है किन्तु तेल को बहते देखकर उन्हें लगा कि सरसों रोता है, दस तेली के बराबर एक कलवार होता है जो इसी प्रकार मदिरा बनाता है, दस कलवार के बराबर एक वैश्योपजीवी होता है और दस वैश्योपजीवी के बराबर एक राजा होता है. इस प्रकार राजा सबसे नीच होता है.
यदि ऐसा ही था तो मनुस्मृतिकार ऋषियों ने राजा मनु की पूजा क्यों की? वास्तव में यदि कोई मनु रहा होता तो ऐसा लिखने वाले को जीवित न छोड़ता.
इनका मनु तो कथा का एक पात्र है- जैसे कालिदास का मेघदूत. सौ वर्ष के क्षत्रिय और दस वर्ष के ब्राह्मण में भी ब्राह्मण पिता और क्षत्रिय पुत्र है.
क्रमश: 14
(महाकुम्भ के पर्व पर चंडीद्वीप हरिद्वार में दिनांक 8 अप्रेल 1986 ईस्वी की जनसभा में स्वामी श्री अड़गड़ानंदजी द्वारा वर्ण-व्यवस्था का रहस्योद्घाटन)
लोकहित में http://yatharthgeeta.com पर pdf वर्जन में नि:शुल्क उपलब्ध ‘शंका-समाधान’ से साभार. आदिशास्त्र ‘गीता’ की यथा-अर्थ सरल, सुबोध व्याख्या ‘यथार्थ गीता’ भी pdf वर्जन में नि:शुल्क उपलब्ध है.