मकर संक्रांति : उड़ते कागजों और घुलते मिठास के पर्व पर मंगलकामना

सुना है,
सूरज की संक्रांति है.
शीतलहर के साथ शीत आधा पार कर वसंत की ओर बढ़ रहा है.

संक्रांति शीत-वसंत की ही नहीं, रात्रि-दिवा की भी है,
लोहड़ी की आग की गीत भरी रात से शुरू हो जाती है,
भोर में ही स्नान-दान तक परवान चढ़ती है.
यह संस्कृति में एकमात्र प्रात: का पर्व है,
सर्वथा निर्मल व परार्थी मन का पर्व.
व्रत तो प्रात: के बहुत हैं, उत्सव नहीं.

उत्सव भी ऐसा कि कुछ सजाया नहीं जाता,
बस खाया-खिलाया जाता है.
कहीं दही-चूड़ा, कहीं लइया-ढुंढा,
कहीं पकौड़ी-बड़ी, तो कहीं खींच-खिचड़ा.
कुछ विरोधाभास से उभर आते हैं-
सरसों फूलने का मौसम है और तिल के लड्डू-पट्टी-गजक बन रहे हैं.
रबी की फसल है और खरीफ के चूड़े-पोहे-लाई से व्यंजन बन रहे हैं.
बस एक मौसम का गुड़ है, जो सबमें घुले जा रहा है, मिठास घोले जा रहा है.

संक्रांति बहुत सहज है, बहुत कीमत नहीं माँगती.
कोई दीपावली के मेवे नहीं, बस मूँगफलियाँ काफी हैं,
कोई दीवार रंगने, फर्श पर रंगोलियाँ बनाने की जरूरत नहीं,
बस आसमान में रंगीन तिलंगियाँ उड़ाने और उड़ा न सके तो निहारने का त्यौहार है.

हर त्यौहार किसी बहाने जिंदगी में जिंदादिली लौटाता है,
कभी बचपन लौटाकर, कभी यौवन लेकर.
लोहड़ी की रात तेज हुई लपटों के साथ यौवन जागता है,
संक्रांति की सुबह प्रौढ़पन स्नान-दान कर तृप्ति पाता है,
फिर दुपहर से साँझ ढले बस बचपन चहकता है,
लौटता हुआ, लूटता हुआ, पतंगी व्याज से.

कुछ पुराना सा कहा स्मृत हो आया है-
तिल में जब गुड़ मिले और उनसे जी न भरे
तब समझना,
जुबाँ में जायके की पहचान अभी जिंदा है
और
आसमान जब पतंगें उड़ें और निगाह वहीं ठहरे,
तब समझना,
जेहन में तमन्नाओं की उड़ान अभी जिंदा है.

उड़ते कागजों और घुलते मिठास के पर्व पर
मंगलकामना !

– साभार डॉ कृष्णा कांत पाठक

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