वर्ण व्यवस्था 12 : स्मृतियां व्यवस्था थीं, धर्म नहीं

गतांक से आगे…

मनुष्य-मनुष्य के बीच भयंकर घृणा फैलाने का काम स्मृतियों ने किया है. जन्म पर आधारित जाति-प्रथा उन्हीं की देन है. सभी स्मृतियाँ महाभारत-काल के बाद की हैं और कुछ तो गौतम बुद्ध के पश्चात् लिखी गयीं. इनमें मनु स्मृति, याज्ञवल्क्य और पाराशर स्मृति अधिक प्रसिद्ध हैं.

इतिहास के विद्वान जानते हैं कि महाभारत-काल और आज के बीच न तो कोई मनु नामक राजा हुआ और न गौतम बुद्ध के पश्चात याज्ञवल्क्य नामक ऋषि.

वैदिक युग के आप्तपुरुषों के नाम पर इन स्मृतियों की रचना करके बीच के बुद्धिजीवी वर्ग-विशेष ने अपने अनुकूल परिस्थिति बना ली, प्रशासनिक व्यवस्था गढ़ ली और राजकीय संरक्षण में इसी जाति-व्यवस्था को धर्म के नाम पर प्रचार कराया.

मनु स्मृति का कथन है कि प्रारम्भ में एक अण्डा था. उस अण्डे में जो प्राणी था, उसने अपने पराक्रम से अण्डे को फोड़ लिया. जो निकला, उसका नाम था ब्रह्मा.

ब्रह्मा ने अपने शरीर के दो भाग कर आधे से स्त्री, आधे से पुरुष बनाया और संसार के विकास के लिए मुख, बाहु, जंघा और चरण से क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनाया.

उस ब्रह्मा ने मनु को उत्पन्न किया. मनु ने दस महर्षियों को और उन महर्षियों ने सात मनुओं, देव-दानव, सुख-दुःख, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नर्क, जल-थल, जड़-चेतन, जीवों को उत्पन्न किया.

श्रीरामचरित मानस की कसौटी पर यह सब विधि-प्रपंच है- ‘विधि प्रपंच गुन अवगुन साना.’ (१/५/४)

ब्रह्मा ने अपनी सृष्टि के संचार के लिए इन वर्गों की रचना की. यह प्रपंच है न कि कोई शाश्वत व्यवस्था. इस प्रपंच के किसी एक अंश की पूजा करने से क्या होगा? इस प्रपंच से हम बाहर कहाँ निकले, जबकि स्वयं ब्रह्मा भी अपने लोकसहित मरणधर्मा हैं.

लगे हाथ इन ब्रह्माजी की सृष्टि देखिये. दृषद्वती नदी से लेकर सरस्वती नदी के बीच का भू-भाग ब्रह्मावर्त कहलाया, जो आजकल कानपुर के पास बिठूर कहलाता है. मथुरा से लेकर तक्षशिला तक पांचाल प्रदेश ब्राह्मणों का पवित्र देश है.

विंध्याचल से हिमालय की तलहटी तक मध्यदेश है और उसके दक्षिण म्लेच्छ देश है. इतने में ही जगत् की उत्पत्ति का वर्णन समाप्त हो गया.

इन ब्रह्मा को इतना भी ज्ञान नहीं था कि हिमालय के पार चीन और जापान भी हैं, समुद्र में बड़े-बड़े द्वीप उभरे हैं. वास्तव में न किसी ब्रह्मा ने सृष्टि रची थी और न उस स्मृतिकार को भूगोल का ही ज्ञान था.

जीव-जंतुओं की रचना में भारतीय पशु-पक्षियों के नाम तो गिनाये गये हैं किन्तु कंगारु, जेब्रा, जिराफ का नाम कहीं नहीं है और लिख मारा कि संक्षेप में सृष्टि का प्रकरण समाप्त हुआ.

इन ब्रह्माजी ने पवित्र-अपवित्र बताकर स्थान-स्थान में भूखण्डों में भेद तो डाला ही, उन्होंने यह भी बताया कि आपके शरीर का कौन सा भाग शुद्ध है और कौन सा अशुद्ध- नाभि से ऊपर शुद्ध और नीचे अशुद्ध.

ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुआ था इसलिए वह संपूर्ण संसार का स्वामी है. शूद्र चरण से पैदा होने के कारण अपवित्र है, दास है. शूद्र का नाम घृणासूचक रहना चाहिए.

शूद्र से बात करना पड़े तो दाहिना कान छूते रहें क्योंकि ब्राह्मण के दाहिने कान में अग्नि, जल, वेद, सूर्य, चन्द्रमा, तीर्थ और गंगा-जैसी नदियाँ निवास करती हैं- यह पाराशर स्मृति की खोज है.

क्या बेवकूफी है यह शुद्ध और अशुद्ध की कल्पना, ऊँच और नीच की कल्पना, स्वामी और दास की कल्पना, घृणा और द्वेष की कल्पना, मन्त्र पढ़कर शुद्ध होने की कल्पना इन्ही स्मृतियों की देन है.

स्मृतियों की मान्यता है कि माता-पिता कामवश जो संतान उत्पन्न करते हैं वे पशु सदृश हैं किंतु वेदाध्यायी द्वारा गर्भाधान मन्त्र से संस्कारपूर्वक जो बच्चे पैदा होते हैं, वे द्विज हैं.

विचार करना होगा कि कितने लोगों के पिता वेदाध्यायी रहे हैं. लिखा है कि संस्कार से बच्चे सुडौल पैदा होते हैं और देश हो गया गुलाम. कैसा सुडौल?

ब्राह्मण होने का एक अन्य सूत्र भी स्मृतियों में मिलता है कि जो वेद पढ़ता है, वही ब्राह्मण है. वेद की एक शाखा मात्र पढ़ता है, वह भी ब्राह्मण ही है.

सतयुग में मनुस्मृति प्रमाण थी और कलियुग के लिए पाराशर स्मृति बनायी गई है. शूद्र इन स्मृतियों के पढ़ने का अधिकारी नहीं है और अन्त में यह भी लिख दिया कि स्मृति पढ़ने का और वेद पढ़ने का एक ही फल है.

वेद पढ़ें या न पढ़ें, पाराशर स्मृति ही पढ़ लीजिये तो आप वेद के ज्ञाता हो गये. कहाँ अपौरुषेय वेद परमात्मा की वाणी और कहाँ पाराशर स्मृति, कलियुग के ऋषियों की लिखी किताब.

यदि किताब पढ़ने से ब्राह्मण बनता है तो सबको पढ़ाकर अपनी संख्या क्यों नहीं बढ़ा लेते. अब तो सौभाग्य से सबको पढ़ने का अधिकार भी मिल गया है. जब एक अध्याय वेद पढ़ने से ही ब्राह्मण होता है तो सबको बना क्यों नहीं लेते?

अब इन स्मृतिकारों को यह भी ज्ञात नहीं है कि युग कही बाहर नहीं होते, युगों का उतार-चढ़ाव गुणों के आधार पर अन्तःकरण में होता है-

बुध युग धर्म जानि मन माहीं. (मानस ७/१०३/६)
नित युग धर्म होहि सब केरे. हृदय राम माया के प्रेरे ॥ (मानस ७/१०३/१)

क्रमश: 13

(महाकुम्भ के पर्व पर चंडीद्वीप हरिद्वार में दिनांक 8 अप्रेल 1986 ईस्वी की जनसभा में स्वामी श्री अड़गड़ानंदजी द्वारा वर्ण-व्यवस्था का रहस्योद्घाटन)

लोकहित में http://yatharthgeeta.com पर pdf वर्जन में नि:शुल्क उपलब्ध ‘शंका-समाधान’ से साभार. आदिशास्त्र ‘गीता’ की यथा-अर्थ सरल, सुबोध व्याख्या ‘यथार्थ गीता’ भी pdf वर्जन में नि:शुल्क उपलब्ध है.

Comments

comments

LEAVE A REPLY