31 दिसम्बर को शराब के नशे में छेड़छाड़ की तीव्र प्रतिक्रिया देखने को मिली जो दर्शाती है कि अब आम हिन्दुस्तानी ताकत के जोर को अस्वीकारने लगा है.
यह तस्वीर आशा की किरण है कि हम हमारे पुराने अस्तित्व से मुक्ति के लिए प्रयासरत हैं जो बुरे स्वप्न की तरह पीछे लगा है और दुःख की बात यह है कि उस बुराई का असर बहुत गहराई से अभी भी कुछ लोगों में बाकी है.
इससे मुक्ति के लिए कठोर कानून को ही एकमात्र उपाय की तरह देखा जाता है जो तात्कालिक स्थिति में चाहे उपयुक्त जान पड़े पर उससे दिमागों के अंदर चलती गन्दगी नहीं धुल सकती और जब तक यह गन्दगी दिमागों में दौड़ती रहेगी, तब तक हम इन घटनाओं से मुक्त नहीं हो सकते.
इन दिमागी गन्दगी से मुक्ति के लिए जोर-शोर से आवाज़ें होती है, कुछ लोग कपड़ों को दोष देते हैं तो कुछ इसे आधुनिकता के दुष्परिणाम की तरह चित्रित करते हैं पर मूल कारणों के निदान किए बगैर इससे बचा नहीं जा-सकता.
सीसीटीवी कैमरे या कठोर कानून सिर्फ ऊपरी रोकथाम के काम आ-सकते है लेकिन अंदर की बुराई दूर करने में यह उपाय भी असहाय ही हैं.
कपड़ों को दोष दिया जाना पूर्णरूपेण सही होता तो जहां पर्दा है उधर ऐसी घटनाएं कैसे होती है? यानी जब साड़ी या बुर्का भी छेड़छाड़ से सुरक्षित नहीं है तब कपड़ों को दोष दिया जाना सही प्रतीत नहीं होता, यह तो महज विरोध की खानापूर्ति ज्यादा लगता है जिसमें निदान सन्निहित न होकर एकतरह से जिम्मेदारी से कन्नी काटने की तरह है.
कानून और कपड़े समाज के पहरेदार हो सकते है किन्तु वे दिमागी गन्दगी से चढे पर्दे को हमारी आँखों के आगे से हटाने में नाकाम ही रहेंगे.
कानून और कपड़े अपनी जगह कारगर हैं इसमें कोई शक नहीं होना चाहिए फिर भी यह विषय समाज के अंदर से निकल कर आया है इसलिए इसको रोकने में समाज को ही आगे आना होगा.
आगे आने के लिए बहिष्कार जैसी युक्तियों पर ज्यादा जोर होता है जो अपनी जगह प्रभावी है पर इसमें सबल-निर्बल के भेदवाव की गुंजाइश हरदम बनी रहने से कोई ज्यादा फायदा नहीं होना है.
कानून, कपड़े, बहिष्कार का मिला-जुला रूप कुछ हद तक इस बुराई को रोक सकता है और यही होता आ-रहा है कि बुराई रुकी हुई है, उसकी चाल धीमी है बस मौका देखकर सिर उठाती रहती है.
इस सिर उठाते रहने के पीछे महत्वपूर्ण कारक हमारा समाज, परिवेश और बोलचाल बन गए हैं जिसमें प्रतिदिन माँ, बहनों के अलंकार युक्त अभद्र भाषा का प्रयोग निरन्तर होता रहता है.
फिल्मों में भाषायी अभद्रता, गाली-गलौच को रियल्टी के नाम पर परोसा जाने लगा है. आजकल तो स्पेशल टीवी प्रोग्राम भी बनने लगे हैं जिनमें अभद्र भाषा का प्रयोग यह कहकर उचित ठहराया जाता है कि यही वास्तविकता है और उसके पक्ष में तर्क यह कि सत्य से मुंह मोड़ने से फायदा कम, नुक्सान ज्यादा है.
यदि फ़िल्में-सिनेमा समाज का दर्पण है तो हमें स्वीकारना चाहिए कि गन्दगी हमारे सामाजिक परिवेश में समा गई है और दुःख यह है कि इसे निकालने के कोई कदम दिखाई भी नहीं देते.
टीवी-सिनेमा के बाद उभरे समाज के नवीन दर्पण उर्फ़ सोशल मीडिया ने तो और एक कदम आगे बढ़कर समाज को सिनेमास्कोप आइना बनाकर बीच चौराहे पर खड़ा कर दिया है.
पोस्ट-कमेंट्स में अभद्रता, गालियाँ तो बन्दूक-गोली की जगह उपयोग हो रही हैं जिन्हें दाग कर आभासी दुश्मनों को धराशायी किया जाता है. विपरीत विचार के प्रति निर्दयता पूर्ण तरीकों से अभद्र अलंकार प्रयुक्त होते हैं.
देश के नामी-गिरामी पुरुष-महिलाएं एक ग्रुप में पूज्यनीय हैं तो दूसरे में उनकी माँ-बहन की जाती है. यहाँ तक कि इतनी कटुता घर कर गई है कि विरोधी पक्ष बड़े-छोटे महिला-पुरुष को ‘जी’ शब्द भी नसीब होना मुश्किल होता है तो बाकि सम्मान की बात ही मुश्किल लगती है.
यह जो भी समाज के दर्पण है जिनसे कि समाज के अंदर चलती-मचलती हलचल दृष्टिगोचर होती है यदि उनमें और साथ चलते हमारे परिवेश में गाली, अभद्रता, महिलाओं के प्रति असम्मान इत्यादि चीजें चलती रहेंगी तो दिमागी गन्दगी कैसे रुकेगी?
इसलिए वो भी चलती रहेगी और तब तक ऐसी ही बेआबरू घटनाएं घटती रहेंगी. रुकेंगी तभी, जब हम अपने परिवेश तथा दर्पण रूपी सिनेमा, सोशल नेटवर्क को साफ़ कर इन्हें बेदखल करेंगे. नहीं तो खाली स्यापा करते रहने से कुछ नहीं होना, यह तो एक तरह से किसी दूसरी घटना का इन्तजार करना भर है.
इसके साथ ही सबसे ख़ास और अचूक उपाय यह है कि प्रत्येक परिवार अपने बच्चों को बचपन से इस संस्कार में ढाले कि दूसरों की माँ-बहन भी उतनी ही सम्मानित हैं जितनी कि घर की माँ-बहन और साथ ही ‘उनके’ प्रति लिखने-बोलने में भी इसे हरदम ध्यान रखे तभी गन्दगी घुलकर गायब होगी और बिगड़ी तस्वीर बदलेगी, और तभी कपड़े-कानून कारगर कार्य कर पाएंगे.