ज्यादातर लोगों ने समय का बदलना नोटिस किया होगा. जब हम अपने से पीछे की पीढ़ी में देखते हैं तो लगता है, इन लोगों ने काफ़ी कुछ बदलते देखा है.
उनके बचपन के ज़माने में ग्रामोफ़ोन होता था, टूटने वाले रिकॉर्ड लगते थे उसमें. ‘मिर्च मसाला’ फिल्म का एक दृश्य है उसमें, फौजी सूबेदार टाइप बने हुए नसीरुद्दीन शाह एक रिकॉर्ड तोड़ देने पर किसी चपरासी / नौकर टाइप आदमी की जमकर धुलाई करते हैं.
ये रिकॉर्ड फिर धीरे से बदल कर टेप रिकॉर्डर बन गया. रेडियो भी उस ज़माने में सनमायका जड़ा एक बड़ा सा डब्बा होता था, वो भी धीरे से बदलकर छोटा ट्रांजिस्टर हो गया.
फिर धीरे से टेप रिकॉर्डर और ट्रांजिस्टर मिलकर एक हो गए, दोनों अलग-अलग नहीं थे अब. समय और बदला तो टेप के कैसेट की जगह CD आने लगी.
इसी दौर में कहीं टीवी भी आया था. शुरुआत में ये ब्लैक एंड वाइट ‘वेस्टन’ वाला था, शटर लगा होता था और दिन में कभी एक बार चल जाता था, बिजली हो तो.
थोड़े ही दिन बाद ये भी कई तरह का होता था, गरीब हैं तो छोटा सा 14 इंच का, दो एरियल वाला. अमीर लोगों के पास रंगीन रहता था अक्सर, ‘ओनिडा’ का, पड़ोसियों की जलन और मालिक के गर्व वाला (Neighbors envy, Owners pride).
इसी दौर में फिर वीसीआर भी आया था. फ़िल्में देखना जहाँ बुरे चरित्र वालों के लक्षणों में गिना जाता था, वो फ़िल्में अब घर में लाकर भी देखी जाने लगी.
फिर VCP आया और मोहल्ले के लड़के किराये पर लाकर टोलियों में रात-रात भर फ़िल्में देखने लगे. कस्बों में रहे लोगों को इसका पता होगा, कुछ ने अठन्नी का इस्तेमाल कैसेट सही करने में भी देखा होगा.
जैसे ही CD का दौर आया, ये सारी चीज़ें अलग-अलग होने के बदले एक होने लगीं. कीमतें बेहतर टेक्नोलॉजी और तेज़ दिमाग़ के दम पर कम हुई.
लोग बाजार से अब अख़बार के ठोंगे में चीज़ें नहीं लाते थे, अब पॉलीथिन का चलन था. स्याही वाली कलम, फाउंटेन पेन भी इसी दौर में खो गई. उसकी जगह प्लास्टिक की लिखो-फेंको कलम ने ले ली.
घर की दावत में पड़ोसियों के घर से बर्तन आने का रिवाज़ गया, केले के पत्ते पर भोजन पिछड़ेपन की निशानी बन गया. चाय की कुल्हड़ जाती रही, डिस्पोज़ेबल ग्लास आ गए. पेड़ लगाना, बागवानी करना लगभग बंद हो गया.
ये वो दौर था जब इंसानी बर्ताव का तरीका भी बदला. अब भूरे साहब की छड़ी खाकर बेचारा हिंदुस्तानी नौकर चुप रहना छोड़ चुका था. विरोध होने लगा.
इस दौर में और भी चीज़ें बदलीं. मगर इतने में सन 2000 आ गया था. ये वो दौर था जब भारत में युवाओं की गिनती काफी बढ़ गई थी.
अब युवाओं को तो आप जानते ही हैं! हर चीज़ पर सवाल करेंगे, ऐसे क्यों? वैसे क्यों नहीं? पूछते ही रहते हैं. परेशान कर डालते हैं बिलकुल!
तो जनाब अब मैग्गी उतनी आसानी से नहीं बिक पाती. पुराने बुड्ढों, कूढ़ मगज़ लोगों की तरह उतनी आसानी से ये हर बात नहीं मानते. डॉक्टर की प्रिस्क्रिप्शन भी गूगल कर डालते हैं.
ज़ाहिर है ऐसे में टकराव तो होना ही था. ऊपर से सवाल भी जरा मुश्किल वाले हैं, इतिहास लेखन पर सवाल होने लगे, समाज शास्त्र के अध्ययन पर प्रश्न आने लगा.
संविधान में अल्पसंख्यक और धर्म निरपेक्ष जैसे शब्दों की परिभाषा क्यों नहीं है, ये तो अब पूछा जायेगा!
आप खून खच्चर की धमकी देंगे तो, ‘कुम्हड़ के बतिया कोउ नाही’ टाइप जवाब भी मिलेंगे. पेप्सी-कोला ना पीने के लिए हेल्थ कॉन्शियस होने का रीज़न बताया जायेगा.
सवाल करने पर आप ‘असहिष्णु’ कहेंगे तो आपका दोहरा मापदंड भी याद दिला दिया जायेगा.
इतने बरसों में हिन्दुओं की बात होने पर संपेरे और हाथियों वाला देश समझा जाता रहा तो आपने बस एक ‘युवा दिवस’ घोषित करके खानापूर्ति कर ली थी.
हिंदुत्व की पहचान जाने किस ज़माने की, कई बार त्यागी जा चुकी परम्पराओं को बना दिया गया था.
हिन्दुओं के जिक्र से पिछड़ापन और नंगधड़ंग साधु याद आते थे. घूंघट में ढकी महिलाएं दिखाई जाती थी, अनपढ़ लोग और गरीब भूखे बच्चे याद आ जाते थे.
अब जब प्रधानमंत्री ही स्वामी विवेकानंद की याद दिला देते हैं तो हिंदुत्व का असली चेहरा ना चाहते हुए भी देखना ही पड़ेगा.
वैसे युवा दिवस भी बीत चला है, और कहते हैं Age is just a number, तो ये उम्र का बहाना छोड़िये. आइये, साथ आइये, नया सवेरा देखते हैं. The sun rises in the EAST!