नई दिल्ली. जिस सहारा-बिड़ला डायरी की दम पर राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल जैसे लोग उछल-उछल कर प्रधानमंत्री पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा रहे थे, सुप्रीम कोर्ट ने उसे प्रधानमंत्री के खिलाफ सबूत मानने से इंकार करते हुए जांच की अर्जी को खारिज कर दिया.
सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री सहारा-बिड़ला डायरी से संबंधित जांच की अर्जी को खारिज करते हुए कहा कि इस डायरी में नरेंद्र मोदी के खिलाफ पर्याप्त सुबूत नहीं हैं. कोर्ट ने कहा कि ईमेल प्रिंट और कुछ कागजों में दर्ज प्रविष्टियों को स्वीकार करने योग्य साक्ष्य नहीं माना जा सकता. इनकी कोई कानूनी मान्यता नहीं है और इसके आधार पर संवैधानिक पद पर आसीन लोगों के खिलाफ जांच के आदेश नहीं दिये जा सकते.
कॉमन कॉज की तरफ से वकील और केजरीवाल के पुराने साथी प्रशांत भूषण ने अपनी याचिका के समर्थन में कुछ दस्तावेज भी सुप्रीम कोर्ट को सौंपे थे. कोर्ट ने दस्तावेजों को देखने के बाद साफ कहा कि इन दस्तावेजों के आधार पर जांच के आदेश नहीं दिए जा सकते.
सहारा-बिड़ला डायरी मामले में सुप्रीम कोर्ट में बुधवार को सुनवाई हुई. सरकार ने कोर्ट में अपनी दलील रखते हुए कहा कि ऐसे दस्तावेज को कानूनी सबूत माना जाएगा तो देश में कोई सुरक्षित नहीं होगा.
अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने कहा, ‘ऐसा कोई विश्वसनीय दस्तावेज नहीं है जो साबित कर सके कि कॉर्पोरेट घरानों ने नरेंद्र मोदी को पैसे दिए थे.’
कॉमन कॉज की ओर से दाखिल याचिका में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर सहारा और बिड़ला समूह से रिश्वत लेने का आरोप लगाया गया है. डायरी में लिखे नाम के आधार पर कहा गया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2003 में रिश्वत ली थी.
न्यायमूर्ति अरुण कुमार मिश्रा व न्यायमूर्ति अमिताव राव की पीठ ने कहा कि मेरिट पर विचार करने के बाद वे याचिका खारिज कर रहे हैं क्योकि पेश सामग्री मामले में जांच का आदेश देने के लिए पर्याप्त नहीं है.
पेश सामग्री की ऐसी कोई कानूनी हैसियत नहीं है जिसके आधार पर केस दर्ज कर जांच के आदेश दिये जाएं. ऐसी सामग्री के आधार पर उच्च संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों के खिलाफ जांच का आदेश नहीं दिया जा सकता.
कोर्ट ने कहा कि उच्च पदों पर बैठे लोगों के खिलाफ जांच की मांग के मामलों में जैसा कि यह मामला है कोर्ट को सर्तक रहना चाहिये. अगर इस तरह के अस्वीकार्य साक्ष्यों के आधार पर जांच के आदेश दिये जाएंगे तो संवैधानिक पदों पर बैठे लोग काम नहीं कर पाएंगे और लोकतंत्र सुरक्षित नहीं रहेगा.
पीठ ने कहा कि इस मामले में कोई भी ऐसे पुख्ता सबूत और समग्र सामग्री नहीं हैं जो कानूनन साक्ष्य के तौर पर स्वीकार करने योग्य हो और जिसके आधार पर केस दर्ज कर जांच के आदेश दिये जाएं. कोई भी स्वतंत्र और ठोस सबूत नहीं है. पेश दस्तावेजों में दर्ज प्रविष्टियों को आयकर विभाग भी पहली निगाह में फर्जी बता चुका है.
कोर्ट ने कहा कि जिम्मेदारी और दोषसिद्धि साबित करने के लिए स्वतंत्र और सहयोगी सामग्री होनी जरूरी है. कोर्ट अपने पूर्व के फैसलों में कह चुका है कि खुले पन्नों और कागजों को स्वीकार्य साक्ष्य नहीं माना जा सकता.
कोर्ट ने कहा कि इस सामग्री के साथ कुछ और सामग्री और परिस्थितियां तथा सहयोगी साक्ष्य होने चाहिये जिससे ये साबित होता हो कि जिसका नाम प्रविष्टि में दर्ज है उन्होंने उस दौरान कुछ ऐसा काम किया था जिसका उस प्रविष्टि से कुछ संबंध स्थापित होता हो.
कोर्ट ने कहा कि अगर वे इस सब पर जोर नहीं देंगे और जांच के आदेश दे देंगे तो इससे गलत उद्देश्य प्राप्त करने के लिए कानूनी प्रक्रिया का दुरूपयोग हो सकता है. कोर्ट ने कहा कि उनके सामने पेश किये गये बिड़ला और सहारा के इमेल प्रिंट, शीट्स और डायरी आदि व्यवसायिक कामकाज के निर्धारित तरीकों में तैयार नहीं हुए हैं.
कोर्ट ने सहारा के मामले में आयकर सेटलमेंट कमीशन के आदेश का जिक्र किया जिसमें कहा गया है कि दस्तावेज वास्तविक नहीं लगते फर्जी लगते हैं. कोर्ट ने कहा कि उनके सामने पेश की गई सामग्री के आधार पर उस किसी व्यक्ति के खिलाफ जांच का आदेश नहीं दिया जा सकता जिसका नाम इन दस्तावेज में दिया गया है.
कोर्ट ने अटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी की उस दलील से सहमति जताई जिसमें रोहतगी ने कहा था कि खुले पन्नों में किसी के द्वारा की गई किसी भी प्रविष्टि के आधार पर जांच के आदेश नहीं दिये जा सकते.
जांच की मांग कर रही कामन कॉज संस्था की याचिका में कहा गया था कि अक्टूबर 2013 में आईटी और सीबीडीटी ने बिड़ला ग्रुप की कंपनियों में छापे डाले थे जिससे दस्तावेज और नगदी मिली थी. इसके अलावा नवंबर 2014 में सहारा कंपनी के ठिकानों पर आयकर के छापे पड़े थे.
कामन कॉज़ के वकील प्रशांत भूषण ने लंबी बहस मे यह साबित करने की कोशिश की, कि पेश सामग्री जांच का आदेश देने के लिए काफी है और कोर्ट को आयकर छापे में सहारा और बिड़ला के यहां से मिल दस्तावेजों में दर्ज रकम देने की प्रविष्टियों की जांच के आदेश देने चाहिए.
सहारा के छापों में मिले दस्तावेजों में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, और गुजरात के मुख्यमंत्रियों को रकम दिये जाने की बात दर्ज है. संस्था ने इन दस्तावेजों के आधार पर जांच कराने की मांग की थी.
आयकर विभाग की छापेमारी में सहारा के दफ्तर से एक डायरी मिली थी जिसमें कथित रूप से यह लिखा है कि 2003 में गुजरात के मुख्यमंत्री को 25 करोड़ रुपये घूस दी गई. उस समय नरेन्द्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे.
इस डायरी के मुताबिक़ मोदी के अलावा दिल्ली की तत्कालीन मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता शीला दीक्षित समेत तीन और मुख्यमंत्रियों को भी घूस दी गई. आयकर विभाग ने बिड़ला समूह के दफ्तर में भी छापेमारी की थी और वहां से भी एक डायरी जब्त किया था जिसमें मोदी नाम से एंट्री की गई है.
कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी दस्तावेज के आधार पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर रिश्वत लेने के आरोप लगाये थे. यह कोई पहला मौका नहीं है जबकि सुप्रीमकोर्ट ने पेश दस्तावेजों को जांच के लिए नाकाफी सामग्री बताया हो.
इसके पहले मामले में दो बार हुई प्रारंभिक सुनवाई में भी कोर्ट ने यही बात कही थी. हालांकि बुधवार को कोर्ट ने मामले पर चार घंटे से ज्यादा सुनवाई की और उसके बाद विस्तृत आदेश पारित कर जांच की मांग वाली याचिका खारिज कर दी.