मेरी समझ से समस्याओं की अभिव्यक्ति को व्यक्त करना कोई समस्या नहीं हो सकती. आखिर 20 साल पहले तक तो सैनिक के परिजन को उनका शव तक नहीं भेजा जाता था. यह समस्या वाजपेयी सरकार के सामने उठी और जैसा कि हम जानते हैं कि इसका समाधान भी हुआ.
1 रैंक 1 पेंशन की समस्या उठी और इस पर गहन अध्ययन के साथ सभी पक्षों को देखते हुए मोदी सरकार ने निपटारा किया. हालाँकि कुछ त्रुटियों को छोड़कर OROP सफल है.
हम एक अदने से मोबाइल पर फेसबुक चलाते हुए इतने जजमेंटल कैसे हो जाते हैं? ठीक है, आवाज उठानी चाहिए.. लेकिन अंधे होकर नहीं, बहरे होकर नहीं. लोकतंत्र की यह खूबसूरती है कि इसमें समस्याओं से लेकर समाधान के सभी विकल्पों का पर्याप्त स्थान है.
सब ठीक है और सब ठीक हो जायेगा.. यह सिद्धान्त भ्रामक है और आत्मघाती भी! कुछ प्रयास हमें स्वंय से शुरू करने होंगे. चरित्र मात्र चड्डी के भीतर या बाहर नहीं होता, बल्कि इसका महात्म्य इससे कहीं बढ़कर है और परिणाम तो व्यापक हैं ही. जो अपने अंगना दुआरी को साफ रखता है वह व्यक्ति भी चरित्रवान है.
जैसे pink मूवी के अनुसार घड़ी की सुईयां किसी लड़की का “करैक्टर” डिसाइड नहीं करती ठीक वैसे ही BSF के तथाकथित सैनिक को 5 बार सजा मिलने के बाद भी हम उसका चरित्र निर्धारित नहीं कर सकते. सोशल मीडिया के अनुसार वह यादव है, लेकिन मेरी नजर में वह एक सैनिक है.
भूल-सुधार होते रहने चाहिए. बुरा है तो अच्छा चाहिए. यदि अच्छा है तो शोर मत मचाइए. कारक-तत्वों को कभी नजरअंदाज मत कीजिये. सेना को सेना ही रहने दें तो ठीक, यह सेना है कोई डगरा का बैगन नहीं!