ज़ी-न्यूज़ ने ‘फ़तह का फ़तवा’ नाम से एक नया टीवी शो शुरू किया है. इसमें तारिक फ़तेह के अलावा चार मेहमान और हैं. एक हैं आरिफ मोहम्मद खान, दूसरे हैं मौलाना अंसार रज़ा, तीसरे हैं मौलाना उमैर अहमद इलियासी और चौथे हैं प्रोफेसर जुनैद हारिस.
इनमें से आरिफ मोहम्मद खान साहेब को मैं मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के दर्जे का बड़ा विद्वान मानता हूँ जिनके विचार काफी सुलझे हुए हैं. मौलाना उमैर अहमद इलियासी के बारे में जो मुझे पता है, उसके मुताबिक़ मैं उन्हें एक नेक इंसान के रूप में जानता हूँ.
तीसरे मौलाना अंसार रज़ा इस्लाम का बेहद औसत इल्म रखने वाले मौलाना हैं और प्रोफेसर जुनैद हारिस के इल्म को देखने के बाद मैं यही सोच रहा हूँ कि ये आदमी इस्लामिक स्टडीज़ विभाग में पढ़ाता क्या होगा?
खैर, कार्यक्रम का पहला एपीसोड ‘काफिर’ कौन है और उसके बारे में इस्लाम और मुस्लिमों का रवैया क्या है, इसके ऊपर केन्द्रित था. कार्यक्रम में काफ़िर के अर्थ पर मौलाना साहेबानों ने सफ़ेद झूठ बोलते हुए पहले तो इस बात से साफ़ इंकार कर दिया कि काफिर से मुराद हिन्दू, ईसाई या यहूदी है.
फिर दूसरा झूठ उन्होंने ये बोला कि काफ़िर ‘नास्तिक’ को कहते हैं. तारिक फ़तेह को खुलकर इस शब्द की विवेचना करने नहीं दी गई जबकि आरिफ मोहम्मद खान साहेब इस पर खुलकर कुछ बोलने की बजाये मंद-मंद मुस्कुराते रहे.
मौलाना साहेबानों ने सफ़ेद झूठ बोला, ऐसा मैं इसलिये कह रहा हूँ क्योंकि बकौल कुरआन काफिर का अर्थ किसी रूप में भी ‘नास्तिक’ नहीं होता. इसके लिये कुरआन ने एक भी गुंजाइश नहीं छोड़ी है.
कुरआन, हदीस और नबी की सीरत सामने रखूँ तो मुझे काफ़िर का एक ही अर्थ समझ आता है, इस्लामिक मान्यताओं के अनुसार काफ़िर वो है जिसने इस्लाम को नहीं माना, जिसने उस गुण और विशेषताओं वाले खुदा को नहीं माना जैसा कुरान या रसूल ने बताया है, जिसने तमाम नबियों और आसमानी किताबों का इंकार कर दिया.
काफ़िर का अर्थ नास्तिक इसलिये नहीं हो सकता क्योंकि कुरान में बाकायदा सूरह-काफिरून नाम से एक सूरह है जो (सीधे मक्का के मूर्तिपूजकों) काफिरों के मुतल्लिक आदेश देती है. ये सूरह कहती है :
Say : O ye that reject Faith (काफिरून)
I worship not that which ye worship,
Nor will ye worship that which I worship.
Nor will I worship those whom you have worshipped;,
Nor will ye worship that which I worship.
To you be your Way, and to me mine.
अब रोचक बात ये है कि इस सूरह में कहा गया है, ऐ मुहम्मद, कह दीजिये इन काफिरों से कि जैसी इबादत तुम करते हो वैसी इबादत मैं नहीं करता. यानि कुरान यहाँ उन लोगों को काफ़िर कह रहा है जो इबादत करने वाले थे पर चूँकि उनका तरीका नबी-साहेब के आदेश के मुताबिक नहीं था इसलिये वो काफिर ठहराये गये.
इसी तरह सूरह माएदाह में कुरान कहता है, “जो लोग इस बात के क़ायल हैं कि मरियम के बेटे ईसा मसीह ख़ुदा हैं वह सब काफ़िर हैं”, यानि अगर कोई आस्तिक है पर वो अगर इस बात पर ईमान रखता है कि ईसा या उजैर खुदा का बेटे हैं तो वो काफ़िर है.
इन तमाम दलीलों के बाद ये जरूरी है कि काफ़िर का जो सही अर्थ है उसके ऊपर नेक-नीयती और ईमानदारी से बात हो, आप ये तस्लीम करें कि तमाम-गैर मुसलमान भले ही वो आस्तिक हैं पर वो सब आपकी परिभाषा में काफिर हैं.
कोई भले ही ईश्वर को मानता हो पर वो जिस ईश्वर को मानता है, वो अगर कुरान में परिभाषित ईश्वर जैसा नहीं है, तो वो काफ़िर ही है. पहले आप हम काफिरों को परिभाषित कर दीजिये, फिर हमारे साथ क्या व्यवहार हो इसकी चर्चा आगे करेंगे.