वर्ण के सन्दर्भ में अत्रि-स्मृति का एक श्लोक गीता से मिलता-जुलता है. किन्तु स्मृतियों से रंगा मस्तिष्क वैसा नहीं समझ पाता.
‘जन्मना जायते शूद्र संस्कारात् द्विज उच्यते
वेदाध्यायी भवेत् विप्र ब्रह्म जानेति ब्राह्मण॥’
अर्थात् इस धरा-धाम पर जन्म लेनेवाला हर एक प्राणी शूद्र है. ‘संस्कारात् द्विज उच्यते’- जब संस्कार प्राप्त कर लेता है तो वह द्विज है. संस्कार का यह अर्थ नहीं है कि कुछ मन्त्र पढ़कर यज्ञोपवीत डाल लिया और हो गये संस्कारी.
सः माने वह परमात्मा और उसका आंशिक प्रवाह आपके हृदय में आ जाता है, संचित की पर्त पर, मन के अन्तराल में उस परमात्मा का बीजारोपण हो जाता है, तहाँ वह द्विज है. उसने द्वितीय जन्म प्राप्त किया. एक प्रकार का जन्म गर्भवास है, जिसमें चराचर जगत् के प्राणी आ जाते हैं.
इसके ठीक विपरीत आत्मा का अपना निर्मल और शाश्वत स्वरूप है, उसमें प्रवेश पा जाना दूसरे प्रकार का जन्म है. यद्यपि उसने अभी प्रवेश ही पाया है, आरम्भ ही किया है; किन्तु वह निश्चित ही स्वरूप पा जायेगा.
श्रीकृष्ण कहते हैं कि अर्जुन! इस निष्काम कर्मयोग में बीज का नाश नहीं होता. साधन शुरू भर कर दें, बीजारोपण मात्र कर दें फिर तो माया के पास ऐसा कोई यन्त्र नहीं है जो उस सत्य को मिटा दे. माया केवल कुछ अवरोध डाल सकती है, विलम्ब कर सकती है किन्तु उतने से साधन को मिटा नहीं सकती.
इसलिए उस थोड़े से साधन के प्रभाव से हर जन्म में वह वही साधन करता है. जहाँ से छूटता है, वहीं से आरम्भ करता है. जन्म लेकर विषयों में उलझा होने पर भी पिछले जन्म में भी जहाँ से साधन छूटा है, उसके बुद्धिसंयोग को अनायास ही प्राप्त कर लेता है, चिन्तन करता है और दो-चार जन्म के हेर-फेर के पश्चात वहीं पहुँच जाता है जिसका नाम परमगति है, परमधाम है.
इसलिए ‘संस्कारात् द्विज उच्यते’- स: माने वह परमात्मा. उसका आंशिक आकार जहाँ हृदय-देश में जागृत हुआ, बीजारोपण मात्र हो गया, तहाँ वह द्विज है. उसने द्वितीय निर्मल जन्म प्राप्त किया. अब उसे मुक्त होना ही होना है.
‘वेदाध्यायी भवेत् विप्र’- चिंतन और सूक्ष्म हुआ, तहाँ वह अव्यक्त प्रभु अपनी जानकारी प्रदान करने लगता है,जो तत्व विदित नहीं था वह विदित होने लगता है. वह परमात्मा अपनी अनुभूति देने लगता है, स्वयं को जताने लगता है.
अनुभूति में इष्ट जैसा रास्ता बताते हैं, जो निर्देश देते हैं, जो उस निर्देश का अध्यायी है- भली प्रकार उसका अध्ययन कर, उस पर स्थिर रहकर जो चलता है, इष्ट के निर्देशन के अनुरूप चलने की क्षमता जिसमे आ जाती है, वही वेदाध्यायी है, विप्र है. वह भली प्रकार ब्रह्म के परायण है. अब उसके आचरण में लेशमात्र भी त्रुटि नहीं है, वह विप्र है.
‘ब्रह्म जानेति सः ब्राह्मण’- उसी इष्ट के निर्देशन में चलते-चलते साधक जब मूल का स्पर्श प्राप्त कर लेता है, उसे विदित कर लेता है, वह ब्राह्मण है. इस प्रकार अत्रि स्मृति केवल इतना बताती है कि यह पुरुष कैसे बनता है, वर्ण कैसे बनते है? ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र का श्रेणी विभाजन नहीं है. लोक में नहीं है.
वास्तव में ये साधन-पथ के चार सोपान है. आरम्भ में निकृष्ट-मध्यम, उससे उन्नत होने पर उत्तम और अति उत्तम- इस प्रकार एक ही पथिक को इन चार सोपानों से गुजरकर उस शाश्वत-सनातन ब्रह्म में प्रवेश पाना होता है. यह साधन-पथ है, धर्माचरण है.
क्रमश: 10
(महाकुम्भ के पर्व पर चंडीद्वीप हरिद्वार में दिनांक 8 अप्रेल 1986 ईस्वी की जनसभा में स्वामी श्री अड़गड़ानंदजी द्वारा वर्ण-व्यवस्था का रहस्योद्घाटन)
लोकहित में http://yatharthgeeta.com पर pdf वर्जन में नि:शुल्क उपलब्ध ‘शंका-समाधान’ से साभार. आदिशास्त्र ‘गीता’ की यथा-अर्थ सरल, सुबोध व्याख्या ‘यथार्थ गीता’ भी pdf वर्जन में नि:शुल्क उपलब्ध है.