बेतरतीब खिचड़ी दाढ़ी, केशों में लटें पड़ गयीं थी पर इन सबके पीछे छिपा चेहरा परिचित था. मैंने पहचान लिया था उसे. मैले-कुचैले कपड़ों व शरीर से दुर्गंध आ रही थी.
कंधे पर टांगने वाले झोले को गले में लटकाए, बडे आराम से सिगरेट पीता, नागपुर के रेल्वे स्टेशन पर दिख गया वह… तो मैं रोक न सका स्वयं को. आगे बढ़कर बोला –
“Hey, you are Ashutosh na!….remember me??”
“Please pardon….sorry, I do not recollect but….“, अकबका कर बोला वह.
उसे सिर खुजाते देख यह तो समझ गया था मैं कि वही है पर जिस दारुण अवस्था में था, वह आश्चर्यचकित कर रही थी मुझे. परिचय देने के बाद भी पहचानने में समय लगा उसे. अपने आपे में नहीं लग रहा था वह!
बैंक की स्ट्रक्चरल मीटिंग हेतु नागपुर आया था मैं. स्टेशन के समीप ही आंचलिक कार्यालय था हमारा और हमेशा की भांति होटल पाराशर में रहने की अग्रिम व्यवस्था की गई थी.
अभी साढ़े नौ बजने को थे, मीटिंग का शेड्यूल ग्यारह से शाम पांच तक का था. विदर्भ एक्सप्रेस से यहाँ आया था मैं और दो दिन यहीं रहना था तो उससे साथ चलने का आग्रह करते हुए कहा मैंने –
“कहीं और नहीं जा रहे हो तो साथ रहते हैं दो दिन…. क्या कहते हो? कई बातें पूछनी हैं तुमसे, कई बातें जाननी भी हैं…”
अब तक उसकी स्मृति भी जागृत हो चुकी थी… “अपन तो रमते जोगी हो गए हैं….. जबलपुर जा रहा था, कोई नहीं…. दो दिन बाद सही!”
वह खुशी-खुशी तैयार हो गया और हम दोनों होटल आ गए.
बैंक के लिए निकलते हुए मैंने कहा – “देखो, नीचे ही सैलून है होटल से लगा हुआ ही. पहले आदमी बनों और नहा कर होटल के ही किचन से खाना मंगवा लेना. आराम करो. शाम छह तक आता हूँ, आराम से बातें करेंगे डिनर पर… ठीक?”
दिन पूरा व्यस्त रहा मेरा पर शाम होते ही होटल पर आने की उत्कंठा होने लगी. स्थानीय मित्रों के डिनर के आग्रह को टाल, होटल चला आया मैं.
वह पूरी तरह आदमी बना बैठा, सिगरेट फूँक रहा था. खिड़कियों को खोल रखा था और एसी बंद. शरीर से अवांछित केशों व गंदगी के हटते ही, बादलों को चीर बाहर आती सूर्य की किरण जैसा लग रहा था.
महाशय ने मेरे परफ्यूम का भी उपयोग कर लिया. अच्छा लगा. थक तो गया था मैं पर उत्सुकता के मारे आराम नहीं कर पाया. फ्रैश हुआ और हम दोनों होटल ही के बार में बैठ गए. और कहीं जाने का भी धैर्य नहीं हो रहा था मुझे.
“अब बता…. ग्रेजुएशन तक तो साथ थे हम पर उसके बाद, आज ऐसा बुरा हाल क्यों है तेरा? बात कुछ समझ नहीं आई… अपनी बैच का सबसे हैंडसम व ज़हीन छात्र था तू. यह कायापलट क्योंकर हुई तेरी? साले हम मारे inferiority complex के जलते थे तुझसे, पता है!! पढ़ने में अव्वल, अपने व्यक्तित्व के चलते नाटकों का हीरो भी तू, पर आज तेरा यह वीभत्स रूप देख सकते में आ गया मैं तो….”
वह बैठा मुस्कुरा रहा था. वेटर ऑर्डर लेने आया. हमने निर्देश दिये और इच्छित चीजें सर्व कर देने तक शांति बनी रही. वेटर के जाने के बाद कहने लगा वह-
“यार, साइंस पढ़ने में रुचि तो थी नहीं अपनी पर पिता को नाराज़ करने की हिम्मत भी न थी. उन्हीं की खातिर पढ़ा, विवाह भी किया. दो वर्षों में दुर्भाग्य ने अपना विकराल रूप दिखाया. पहले पिता व बाद में पत्नी, साथ छोड़ चल दिये.
मेरी सीधी सी जिंदगी में भूचाल आ गया. 1983 के बाद लगभग चार वर्ष पागलों सी स्थिति थी मेरी. आत्महत्या करने का विचार तो आता, पर साहस न जुटा पाता मैं. पैतृक संपत्ति व पत्नी के स्त्री-धन के पैसे किए और भटकने लगा.
खूब शराब पी, सिगरेटें उड़ायीं और हर वह कर्म किया जो निषिद्ध था. कमी थी तो सुकून की, शांति की. कहीं, कुछ किये मन न लगता. फिर एक दिन समझ आया कि इतनी सारी बदपरहेजियों से मन कैसे रमता भला?
तुम्हें पता है, मुझे Philosophy बडा पसंद थी. मैंने IGNOU से दर्शनशास्त्र में पोस्ट ग्रेजुएशन करने का निश्चय किया. दर्शन पढ़ते हुए ही, मेरी रुचि देख, किसी मित्र ने विदेशी भाषा पढ़ने की सलाह दी. मुझे पसंद आई और फिर फ्रेंच सीखी मैंने.
साथी सहपाठिन से प्रेम हुआ, विवाह भी किया. उसी की मदद से अच्छी नौकरी भी मिली. दो साल हम दोनों फ्रांस रहे. रुपयों-पैसों की पहले भी किल्लत न थी. पांच वर्षों में काफी कमाई की मैंने.”
वह सांस लेने के लिए रुका था शायद……
“फिर???”, मैंने पूछ ही लिया….
“दुर्दैव ने फिर घेरा, और एक बार फिर बरबादी छाई. मैं अकेला रह गया हूँ अब. अकूत धन व संपत्ति के साथ एकाकी छोड़, वह भी चल दी. इस बार मेरे सारे मोह, लालसाएं भी ले गई अपने साथ. कोई है नहीं तो मैं भी निर्द्वंद्व हो गया.
साधकों को अपार साधना के बाद जो सिद्धि हासिल होती है, मुझे ऐसे मिली. जैसे चाहता हूँ जीता हूँ. कोई बंधन नहीं, किसी प्रकार की अभीप्सा नहीं. राग, द्वेष, मोह, काम, कुछ नहीं हैं. जो मिले उसमें प्रसन्न. मन भीतर से शांत है, बाहरी कोई बात विचलित नहीं करती.”
“पर शराब-सिगरेट तो अब भी पीते हो!”
मुझे विश्वास नहीं हो रहा था उसकी बातों का…. तभी उसके मोबाइल की रिंग टोन बज पडी. झोले में से सेल निकाला तो चकित रह गया मैं. महंगा वाला आईफोन था वह. फोन के संभाषण से पता चला, दो दिन बाद आने के लिए कह रहा था वह उससे.
“हाँ यार, पर ना नशा होता है न कभी कोई तलब ही. बीच-बीच में अपनी सिस्टम को चेक कर लिया करता हूँ इनके जरिए. यह सब इतने निर्लिप्त भाव लिए होता है कि कभी-कभी तो स्वयं भी आश्चर्यचकित हो जाता हूँ मैं. विरक्ति नहीं हुई है पर आसक्ति भी नहीं रही अब किसी बात में.
कोई खुश होता है तो खुश हो जाता हूँ, दुखी को देख दुखी. अपने प्रति कोई भावना अनुभव नहीं होती. मन को सुख अथवा दुख दे सके ऐसा कुछ भी नहीं अपना. हर ओर, केवल शांति. कदाचित यही ढूँढ रहा था मैं. कुछ लोग चिंता न करें, सेलफोन केवल इसलिए रखे हूँ.
ये कुछ लोग कौन हैं, यही पूछोगे न? इन कुछ लोगों में, कुछ अनाथ बच्चे, कुछ निपट पिछड़े हुए गांव व वहाँ की शालाएं और मेरा ट्रस्ट आते हैं. ये सभी GPS के जरिए ट्रैक रखते हैं मेरा. मैं घूमता रहता हूँ जरूरतमंदों की तलाश में! अब यही जीवन है अपना.”
मैं मुख खोले देखे जा रहा था उसे. लगा, शिव हो गया हो जैसे वह!!!….. सही अर्थों में, ‘आशुतोष’!!!