अमूमन पुरुषों को दाग़-धब्बे पसंद नहीं होते सिवाय सुहागरात के बेडशीट पर खून के उन धब्बों को छोड़कर जिसे वे अपनी पत्नी के कौमार्य की निशानी मानते हैं. प्रथम सहवास के दौरान आनंद की कम और इन दाग़ों की खोज़ अधिक रहती है. खून के ये दाग़ पुरुषवादी सोच के लिए सिर्फ़ ये जानने का ज़रिया भर नहीं है कि उसने अर्धांगिनी के रूप में एक चिर कुंवारी लड़की का वरण किया अपितु यह धब्बा पतिदेव को समाज में जश्न मनाने का अवसर भी देता है.
इस संदर्भ में दो वाक़या याद आ रहा है. पहली घटना तब की है जब इंटरमीडिएट का छात्र था. उस समय मेरे एक मित्र की शादी हुई थी. शादी के दो दिनों बाद जब मै नव विवाहित मित्र से मिलने गया तब उसने खून के दाग़ वाले एक चादर को दिखाते हुए कहा- ‘फर्स्ट हैंड मिली है.’ तभी बात उतनी समझ में नहीं आयी थी.
दूसरा अनुभव है, पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान स्त्री सशक्तीकरण पर किए गए एक सर्वे कार्य का. विश्वविद्यालय की किसी छात्रा ने सर्वेक्षण प्रश्नावली में अलग से एक सीट लगाकर बड़ी बेबाकी और दिलेरी से अपनी सुहागरात की घटना का जि़क्र किया था. उसने लिखा था कि विवाह के बाद पहली बार सेक्स के दौरान उसे रक्त स्त्राव नहीं हुआ तो उसका पति हत्थे से उखड़ गया. उसे क़सम खा-खा कर प्रमाणित करना पड़ा कि उसने पहली बार अपने पति के साथ ही सहवास किया है. और पिछले वर्ष एक ख़बर पढ़ रहा था- ‘जर्मनी में बिक रहा है कौमार्य.’
सोच रहा हूँ कि क्या सचमुच ये दाग़ इतने अच्छे हैं कि बाज़ार भी इसे अनुभूत करने लगा है. दरसल जर्मनी की एक कंपनी वर्जिनिया केयर ने एक ‘फेक हाइमन’ लांच किया है. यह एक कृत्रिम मेम्ब्रेन है, जिसे सुहागरात से पूर्व दुल्हन अपने प्राइवेट पार्ट में अंदर डाल सकती है. दो पतले परतों से बनी इस झिल्ली के बीच में ड्रायड ब्लड पावडर डाला जाता है जो सेक्स के दौरान शारीरिक गर्मी और नमी के कारण खून के रूप में बाहर आता है.
और यह आर्टिफिशियल खून मर्दों को अपनी पत्नी के कौमार्य को भंग करने की खुशी देने के लिए पर्याप्त होता है. प्लास्टिक सर्जरी द्वारा हाइमन तो पहले से ही बनता आ रहा है परन्तु ख़र्चे के लिहाज़ से यह सबके बूते की बात नहीं है. लेकिन यह नया उत्पाद बहुत कम कीमत लगभग 49.5 यूरो (भारतीय मुद्रा में लगभग 3600 रुपये) में आसानी से उपलब्ध है. ज़ाहिर है उत्पाद बाज़ार में है तो उपभोक्ता भी हैं. और जर्मनी में इस उत्पाद की सबसे बड़ी ख़रीदार है- मुस्लिम शरणार्थियों की आधी आबादी.
कैसा वैचित्र्य है- एक और जहां विज्ञान नित नये आयाम गढ़ रहा है वहीं दूसरी ओर ऐसे उत्पाद भी ला रहा है जो हमारी रूढि़गत मान्यताओं को ज़िन्दा रखने का साधन बन रही है. लेकिन दोष विज्ञान का नहीं है. दोष तो उस पुरुषवादी सोच का है जो स्त्री को आज भी काम संधान का एक ज़रिया भर मानता है. देश-काल कोई भी हो नज़रिया बिल्कुल एक सा है. आप चाहें कौमार्य कहें, नामुस कहें या फिर वर्जिनिटी… अलग-अलग भाषाओं के ये शब्द शादी से पूर्व यौन संयम को ही संदर्भित हैं. शादी से पहले सेक्स सही है अथवा गलत; यह एक अलग मुद्दा है. दरसल बात इंसानी दिमाग़ के उस फि़तूर की है जो आज भी कौमार्य को योनिच्छद से जोड़ता है.
पहली रात पत्नी को रक्त स्त्राव हुआ तो मूंछों पर ताव और नहीं हुआ तो कुलक्षणा… चरित्रहीन का तमग़ा…. और ज़िंदगी भर का उलाहना. अब एक औरत यह कैसे समझा पाए कि कौमार्य का आशय हाइमन के टूटने भर से नहीं है. हाइमन टूटने के कई कारण हो सकते हैं, सेक्स उनमें से एक है; एक मात्र नहीं. और इस सच को पुरुषों द्वारा स्वीकार नहीं कर पाने की स्थिति बाज़ार के बाज़ीगरों को नए-नए अवसर देती है.
जर्मनी में मुस्लिम शरणार्थियों की भीड़ वर्जिनिया केयर को खूब फलने-फूलने का मौक़ा दे रही है. पता नहीं कब कोई फ़लाँ केयर अपने देश में भी ऐसे उत्पाद लांच कर दे… और यक़ीन मानिए उसका धंधा जर्मनी की तुलना में अधिक चोखा होगा.
अब यहां एक सवाल उठता है कि क्या ऐसे उत्पाद सही हैं? वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने वाले लोग बिना सोचे समझे इसका जवाब ‘नहीं’ में देंगे. अब यहीं एक सवाल यह भी पैदा होता कि जब यह फेक हाइमन किसी लड़की को जीवन भर के उलाहनों से बचा रहा है तो क्यों नहीं इसका समर्थन किया जाना चाहिए?
लेकिन यह एक जटिल मनौवैज्ञानिक और समाजशास्त्रीय समस्या का हद दर्ज़े तक सरलीकरण हो जाएगा. दरसल फेक हाइमन की उपभोक्ता नारी नहीं बल्कि हमारी आपकी वो पुरूषवादी मानसिकता है जो सुहागरात के बाद बेडशीट पर खून के दाग़ को अपनी प्रतिष्ठा और मर्दानगी से जोड़ता है. सोच बदलिए… नहीं तो भारतीय बाज़ार में भी ऐसे उत्पादों का दिल खोलकर स्वागत करने के लिए तैयार रहिए और जश्न मनाइये सुहागरात पर अपनी पत्नी के कौमार्य भंग करने का !!!
बाज़ार के लिए तो दाग़ मुफ़ीद ही होता है… सर्फ़ एक्सेल का पंच लाईन तो आज भी सुनते ही होंगे… ‘दाग़ अच्छे हैं.’