हकीकत ये है कि हम चाहते ही नहीं कि कुछ ठीक हो.. हम नारीवाद के नाम पर अपना चेहरा चमकाने से ज्यादा कुछ नहीं चाहते. महिलाओं के खिलाफ हो रहे अपराधों को रोकने कि हमारी मंशा ही नहीं शायद.
ऐसा होता तो हम बहस के स्कोप को खत्म नहीं करते. कोई कुछ बोलता उसके पास तलवार खिंचे नही पहुँच जाते. समस्या गंभीर है तो विभिन्न पक्षों पर विचार करना ही होगा.
मसलन, कोई महिलाओं के पहनावे पर ही अगर बात करता है तो उसे सुनने से पहले ही हम उसके मुंह में ऊँगली डाल कर माफ़ी मंगवाने पर क्यों तूल जाते हैं? उससे होता क्या है भला? कोई पुरुषों के, महिलाओं के मानसिकता पर, हमारे विचार से थोड़ा हटकर क्या बोल देता है.. हम उसके लिए समाज निकाला जैसी स्थिति बना देते हैं. ऐसे भला रोक लेंगे हम अपराध?
हर घटना के बाद चीखते हुए न्यूज़ चैनल के कुछ एंकर्स होते हैं. एक सत्ताधारी दल का प्रवक्ता होता है. दो विपक्ष के नेता होते हैं और कुछ समाजसेवी, बुद्धिजीवी, नारीवादी टाइप लोग. सब इक्कट्ठे होते हैं, घटना पर नहीं.. घटना के कारणों पर नहीं.. ऐसी घटनाएं न हों इसलिए नहीं.. बल्कि घटना के बाद दिए गए किसी विवादित बयान पर चर्चा के लिए!
सोशल मीडिया भी एक्टिव होता है. हर तरफ से बातें कही जाती हैं. लेकिन यहाँ
भी बहुत हद तक बातचीत सकारात्मक होने के बजाय आरोप-प्रत्यारोप तक सिमट कर रह जाती है. हर तरफ से जमकर सर्टिफिकेट जारी किये जाते हैं. खूब सारे सर्टिफिकेट खारिज भी किए जाते हैं. बिना अदालत के ही मामले चलते हैं.. मीडिया ट्रायल होता है. सोशल मीडिया ट्रायल होता है. हासिल क्या होता है? नील बट्टे सन्नाटा!
फिर कुछ दिनों में मामला ठंडा पर जाता है. दूसरे मामले महत्वपूर्ण हो जाते हैं. और हम बैठ जाते हैं, शायद किसी दूसरे ऐसे मामले के इंतजार में!
ऐसा हमेशा से होता आया है. ये 2012 में भी हुआ था. उसके पहले भी होता था और उसके बाद भी चल रहा. हद तो तब हो जाती है जब पुनर्वास के नाम पर हमारी ही एक सरकार निर्भया के खिलाफ वीभत्स अपराध करने वाले एक अपराधी को मुआवजा और सिलाई मशीन देती है. ऐसा करके हम ऐसे लोगों का उत्साहवर्धन कर रहे होते हैं क्या?
भारत में संस्कारों की चर्चा का हमेशा अपना महत्व रहा है. सब ये भी मानते हैं कि ये बात, हमारी संस्कृति अपने आप में अनूठी है. जब संस्कृति इतने बड़े पैमाने पर बदलाव से गुज़र रही होती है तो ऐसे में कई बार जरुरी हो जाता है इसपर बात की जाए. पुराने लोगों को भी सुना जाए, नए लोगों को भी! बदलाव के साथ आने वाले विसंगतियों को शायद ऐसे ही दूर किया जा सकता है!
लेकिन हम ऐसा कुछ नहीं करेंगे और ऐसा नहीं करके हम सिर्फ बहस या बातचीत ही नहीं, बल्कि सुधार के सम्भावनाओं को भी खत्म कर रहे! ऐसे में सिर्फ मेरा-आपका नही बल्कि समूचे समाज का नुकसान हो रहा. यकीन मानिए!