जी, ये वही सोच है जिसके नतीजे में हम फिलिस्तीन और इराक़ के लिये अपने यहाँ तंजीमें खड़ी होते देखतें हैं. इसी सोच के चलते खाड़ी युद्ध के बाद यहाँ के लाखों बच्चों को सद्दाम नाम दिया जाता हैं और इसी सोच के कारण सद्दाम के फांसी के बाद यहाँ तोड़-फोड़ होती है.
ऐसा नहीं है कि उम्मा वाली सोच सारी दुनिया के मुस्लिम देशों में है. वो इस विचार को मानते तो हैं पर केवल कहने के लिये, जबकि हमारे यहाँ इसे धरातल पर भी उतारने की कोशिश होती है.
उदाहरण के लिये अल-अक्स मस्जिद के लिये यहाँ धरने-प्रदर्शन होते रहतें हैं पर कभी किसी ने सुना है कि फिलिस्तीन, तुर्की, इराक या अरब में बाबरी मस्जिद के लिये मातम किया गया?
उम्मा वाली मूर्खतापूर्ण अवधारणा पर चलने का एक बड़ा मजेदार ऐतिहासिक किस्सा है.
खिलाफत के दौरान यहाँ के मुल्ला-मौलवी यह प्रचार करने लग गये कि भारत तो दरअसल दारुल-हर्ब यानि युद्धरत मुल्क है इसलिये कुरान का आदेश है कि ऐसे किसी मुल्क में मोमिनों को एक पल भी नहीं टिकना चाहिये और फौरन वहां से हिजरत कर किसी दारुल-इस्लामी मुल्क में चले जाना चाहिये.
1920 में बाकायदा मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और मौलाना अब्दुल बारी फिरंगी महली की जानिब से ये फतवा दिया गया कि हिजरत करो.
उनके फतवे अमृतसर से निकलने वाले एक अखबार अहले-हदीस के 20 जुलाई, 1920 के अंक में इस रूप में छपे –
“तमाम दलाइल-शरिया (शरई आदेश), हालाते-हाजिरा (वर्तमान परिस्थिति), मुसालेह-मुहिम्मा (ऐसी स्थिति में करने योग्य कार्य) और मुक्तजियात (वक़्त की मांग) तथा मुसालेह (दूर अंदेशी) पर नज़र डालने के बाद पूरी बसीरत (अंतर्दृष्टि) के साथ इस एतिकाद पर मुतमईन हो गया हूँ कि मज़हब की हिफ़ाज़त के लिये मुसलमानाने-हिन्द के लिये बजुज (सिवा) हिजरत कोई और रास्ता नहीं है. इसलिये उन तमाम मुसलमानों के लिये जो इस वक़्त हिन्दुतान में सबसे बड़ा इस्लामी अमल अंजाम देना चाहें, जरूरी है कि वो हिन्दुस्तान से हिजरत कर जायें”
चूँकि सबसे नज़दीकी दारुल-इस्लामी मुल्क अफगानिस्तान था इसलिये अपने मज़हबी रहनुमाओं पर आँख बंद कर यकीन करने वाले लोग इस फतवे के बाद अफगानिस्तान की ओर हिजरत कर गये.
बाप-दादा की जमीनें और उनकी कब्रों को यहाँ छोड़कर अपने स्वप्नलोक की ओर चल पड़े.
‘हम एक नबी, एक किताब और एक अल्लाह के मानने वाले उम्मती हैं‘, इस ख्याल में अफगानिस्तान के मुसलमानों से स्वागत की अपेक्षा कर रहे हिजरतियों को अफगानों ने पहले तो अपनी सीमा पर रोक दिया फिर उनको जी भरकर लूटा फिर उसके बाद उनकी बहन-बेटियों को अपनी हवस का शिकार बनाया और फिर लात मारकर वहां से भगा दिया.
हिजरत बड़ी महंगी पड़ी, स्वप्नलोक की ये यात्रा विनाश यात्रा बन गई थी. कहाँ जाते, वापस अपने मुल्क हिन्दुस्तान आना पड़ा. यहाँ से तो सब पहले ही कौड़ियों के भाव बेचकर गये थे तो वापस यहाँ आकर भिखारी बन गये.
इस गलती से इन्होने कोई सबक नहीं लिया. 1947 में पाकिस्तान बना तो इसी गलती की पुनरावृति फिर से की गई, फिर यहाँ से हिजरत करके गये. बाप-दादा की जमीनें छोड़कर एक ‘पाक’ मुल्क में बसने का ख्वाब रखने वालों का काफिला चला और वहां पहुँच कर मोहाजिर बन कर जलील हो गया और आज तक जलील हो रहे हैं.
इसलिये विधाता के दो संदेश बड़े साफ़ हैं, पहला ये कि मज़हब कभी भी किसी उम्मा जैसी अवधारणा का आधार नहीं हो सकता और दूसरा ये कि जो अपने वतन का नहीं हो सकता उसे यूं ही जलील होना पड़ता है.
अरब अपने सामने गैर-अरबों को किसी लायक नहीं समझते, ईरान अपने खून को आला मानते हैं, तुर्की का भी यही अकीदा है कि तुर्क राष्ट्रीयता और तुर्क खून सबसे अफज़ल है. बस उम्मा सोच वाली ये बीमारी इसी खित्ते में है.
अतीत के अनुभवों से सीखिये वो सबसे अधिक काम आयेगा वर्ना अफगानिस्तान का वाकिया तो ऊपर याद कराया ही है.