योगेश्वर स्पष्ट करते हैं- अर्जुन! मैंने मनुष्यों को नहीं बाँटा.
फिर बाँटा किसे?
‘कर्माणि प्रविभक्तानि’- कर्म को बाँटा है.
कैसे बाँटा?
‘स्वभावप्रभवैर्गुणे:’ (गीता, १८/४१)
जन्म के समय सभी मनुष्य हैं. जन्म से न कोई क्षत्रिय है, न वैश्य, न ब्राह्मण और न शूद्र ही है. जो मेडिकल में बैठा ही नहीं वह किस बात का डॉक्टर? जब भर्ती ही नहीं हुई तो श्रेणी कैसी?
जब तक आप इस चिन्तन-पथ को नहीं जानते, गीतोक्त कर्म – जो साधना की एक निश्चित विधि है, उसको नहीं जानते और जानकर उस पर दो कदम नहीं चलते, तब तक आप न शूद्र हैं, न क्षत्रिय हैं, न ब्राह्मण हैं और न वैश्य.
तब तक आप कुछ भी नहीं हैं, जड़ जीव मात्र हैं. यदि आप उस विधि को समझकर चलना आरम्भ कर देते हैं तो आप चाहे अरब के निवासी हों, चाहे ध्रुव प्रदेश के, आप उस दिन से शूद्र हैं. चिन्तन कर्म के प्रथम सोपान पर खड़ें हैं, अतः आप शूद्र हैं.
फर्क इतना ही है कि शूद्र श्रेणी वाला आपका बड़ा लड़का एम.ए. में हो और छोटा शिशु अभी प्रथम कक्षा में है तो क्या आप छोटे से घृणा करेंगे? प्राप्ति के पश्चात् एक परमात्मा की एक ही जैसी अनुभूति सबके लिए है.
पूजा-विधि के नाम पर लोग प्रायः बहक जाते हैं. कोई देवी को पूजने लगता है, तो कोई देवताओं को. किन्तु अठारहवें अध्याय में योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि अपने-अपने स्वभाव में पायी जाने वाली क्षमता के अनुसार कर्म का आचरण करके मनुष्य भगवत्प्राप्ति रूपी परमसिद्धि को जिस प्रकार प्राप्त करता है, उस विधि को तू मुझसे सुन.
कौन सी विधि?
उन्होंने विधि बतायी कि जिस परमात्मा से संपूर्ण भूतों की उत्पत्ति हुई है, जो सर्वत्र व्याप्त है, हृदय-देश में निवास करनेवाला है, उस परमात्मा को अपने स्वभाव से उत्पन्न क्षमता के अनुसार अर्चन करके अर्थात् सर्वांगीण समर्पण और चिंतन से संतुष्ट करके मनुष्य भगवत्प्राप्तिरूपी परमसिद्धि को प्राप्त होता है.
श्रीकृष्ण के अनुसार पूजन की विधि यही है कि – केवल एक परमात्मा में श्रद्धा हो. जब तक एक परमात्मा में श्रद्धा स्थिर नहीं होती तब तक कर्म का आरम्भ ही नहीं होता.
अतः जो लोग क्रिया आरम्भ करते समय ‘श्री गणेशाय नमः, देव्यै नमः’ इत्यादि कहते हैं, वे अभी भयंकर भ्रम में हैं.
इस प्रकार योगेश्वर श्रीकृष्ण ने मनुष्यों को नहीं अपितु चिन्तन-पथ को चार सोपानों में बाँटा क्योंकि सहसा कोई भगवत्प्राप्ति परमसिद्धि को प्राप्त नहीं कर सकता, किन्तु लोग साधना में धैर्य के साथ क्रम-क्रम से इन सोपानों में टिक नहीं पाते.
आगे वालों की स्थिति अच्छी देखकर तुरन्त नकल करने का प्रयास करने लगते हैं, साधुवेश में जहाँ दो-तीन वर्ष व्यतीत हुआ कि अपने को ब्रह्म कहने लगते हैं, जिससे उन्हें सम्मान मिलने लगे.
इससे सतर्क करते हुए श्रीकृष्ण अध्याय तीन तथा अठारहवें में कहते हैं कि- ‘श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः’ गुणरहित होते हुए भी स्वभाव से उत्पन्न हुआ कर्म-क्षमता हमारा धर्म है. उसे हमें धारण करना चाहिए, इसलिए वह धर्म है. यह हमारा दायित्व है.
‘परधर्मो भयावह:’ दूसरे का धर्म भय को देनेवाला है. भय प्रकृति में है, आवागमन में है. वह प्रकृति में पहुँचाने वाला हैं क्योंकि प्राइमरी का विद्यार्थी एम.ए. कक्षा में बैठने लगे तो उत्तीर्ण होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता, वह प्राइमरी की योग्यता भी खो देगा, क्योंकि उसने पढ़ा ही कब? इसलिए उन्होंने कहा, ‘श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः.’
अध्याय १८/४७ में पुनः इसी की पुष्टि करते हुए योगेश्वर कहते हैं कि अर्जुन! स्वभाव से उत्पन्न कर्म को करके तू संपूर्ण पापों से छूट जायेगा. मतलब यह है कि क्रम-क्रम से ही चलना चाहिए.
‘गीता’ में वर्ण अंतःकरण की स्थितियों का चित्रण है और सबके हृदय में उसकी व्यवस्था है. जो उस कर्म-पथ को समझकर चलना प्रारम्भ कर देता है उसके लिए वर्ण की योग्यता सुलभ है, चाहे वह विश्व में कहीं का जन्मा हो, निश्चय ही प्राप्त करता है और जब तक कर्म प्रारम्भ नहीं करता तब तक वह किसी भी वर्ण का नहीं है. वह मोहरूपी निशा में अचेत पड़ा हुआ है. वह रात-दिन जो दौड़-धूप करता है, प्रयास मात्र है.
क्रमश:-8
(महाकुम्भ के पर्व पर चंडीद्वीप हरिद्वार में दिनांक 8 अप्रेल 1986 ईस्वी की जनसभा में स्वामी श्री अड़गड़ानंदजी द्वारा वर्ण-व्यवस्था का रहस्योद्घाटन)
लोकहित में http://yatharthgeeta.com पर pdf वर्जन में नि:शुल्क उपलब्ध ‘शंका-समाधान’ से साभार. आदिशास्त्र ‘गीता’ की यथा-अर्थ सरल, सुबोध व्याख्या ‘यथार्थ गीता’ भी pdf वर्जन में नि:शुल्क उपलब्ध है.