बंगलुरु की घटना के बाद से सोशल मीडिया पर चरित्रवान पुरुषों और सत्चरित्र महिलाओं की बाढ़ आ गयी है… सोचा, इस विषय पर लिखूंगा पर थोड़ा बाढ़ का पानी थम जाये…
जब सभी चरित्रवान हैं तो ये हरकतें करता कौन है? क्या आपमें से किसी ने किसी लड़की को छेड़ा है? कमेंट किये हैं? घूर कर देखा है?
कोई नहीं मानेगा कि हममें से किसी ने ऐसा कुछ किया है? फिर यह करने कौन कहाँ से आता है?
सभी देश, समाज, सभ्यता और लॉ एंड आर्डर की बात करते है, अपनी बात कोई नहीं करता… तो आज मैं अपनी बात करूँगा…
बचपन से यह बात मुझे मालूम थी कि अगर मैंने कहीं भी जरा भी बदतमीजी की तो घर में पिताजी मार कर टांगे तोड़ने से पहले नहीं रुकेंगे..
और फिर बड़े हुए एक छोटे से कस्बे में… तो स्कूल और 12th तक यह स्थिति रही कि किसी लड़की से एक वाक्य बात नहीं की थी.
ट्यूशन में साथ में एक लड़की पढ़ती थी, साथ के लड़के उसकी चर्चा करते थे. मैंने कभी आँख उठा कर उसकी शक्ल नहीं देखी.
सर झुका कर घर से निकले, स्कूल गए, खेलने गए, फिर घर आकर पढ़ने बैठे… अड़ोस पड़ोस में अगर किसी पर नज़र भी पड़ी तो एक लाइन बात करने की भी हिम्मत नहीं हुई…
पर जब पहली बार मेडिकल कॉलेज में पहुंचे तो ऐसी डिसेक्शन टेबल मिली जिसपर 2 लड़के और 13 लड़कियाँ थीं. तो अपनी हालत जो हुई उसके लिए अंग्रेजी में मुहावरा है A child in a candy shop…
पर यह कैंडी मिलेगी कैसे यह पता नहीं था. तो पहले एक साल तो हम खूब अच्छे बने रहे जैसे की बचपन से थे… फिर समझ में आया कि अपन तो बेवक़ूफ़ बन रहे हैं गुरु…
तो दूसरे डायरेक्शन में ओवर-करेक्शन किया और बन गए एकदम लंठ… जो गालियाँ मुंह पर आने में शर्माती थीं, वो खुल कर आने लगीं. क्लास के सबसे खड़ूस लफंगे लड़के बन गए…
और दूसरी तरफ पढ़ने लिखने में भी ठस… तो लड़कियाँ, ख़ास तौर से जूनियर्स दूर से भागने लगीं… जब हमारा मज़मा कॉलेज के टेनिस कोर्ट की सीढ़ियों पर लगता था तो लड़कियों का झुण्ड रास्ता बदल लेता था…
खैर, कॉलेज का समय ऐसा ही बीता. फिर निकल कर सीधा गए फौज में… तो फौज ने मेरे जैसे लुच्चे का भी आदमी बना दिया. अब किसी भी महिला या लड़की को देखो तो अपने आप कुर्सी छोड़कर और दरवाजा पकड़ कर खड़े होने की आदत लग गयी जो आज तक बनी हुई है…
तब से आजतक ऐसी स्थिति है कि अब लड़कों से दोस्ती कभी कभार ही होती है, मेरी लगभग सारी मित्र महिलाएं ही हुई हैं… पर मित्रता में मर्यादा कभी नहीं टूटती… चाहे लड़की कितने भी कम कपड़े पहनी हो, कितनी भी पिए हो, कैसा भी माहौल हो…
मैं वही हूँ, मेरे संस्कार वही हैं, आदतें और व्यवहार बदल गए हैं…
वहीँ अपने बेटे को देखता हूँ… लन्दन में 16 साल की उम्र में है, दर्जनों लड़कियाँ उसकी मित्र हैं… पर उससे किसी से किसी दुर्व्यवहार की आशंका का सवाल ही नहीं उठता…
अंतर क्या है? अंतर यह है कि विपरीत सेक्स के साथ आपसी व्यवहार में सहजता आ गयी है जो बचपन से नहीं थी. बचपन से यही जाना कि लड़कियाँ दूसरे किसी ग्रह से आयी हुई एलियन हैं. उनसे कैसे व्यवहार करना है, सीखा ही नहीं.
वे भी हमारी ही तरह ही हैं यह समझते समझते समय लग गया… समझ भी कमजोर ही थी शायद. उन्हें विपरीत सेक्स का एक जंतु समझने के बजाय एक व्यक्ति समझने की सहजता नहीं थी…
बहुत कुछ तो हमारे समाज में लॉ एंड आर्डर की समस्या है, कुछ संस्कार की समस्या है… पर बहुत कुछ जो होता है और जो इस आपत्तिजनक व्यवहार को जन्म देता है उसके पीछे लड़कों और लड़कियों के बीच सहज व्यवहार की कमी है…
उन्हें एक और व्यक्ति ना समझ कर कुछ बहुत ज्यादा या बहुत तुच्छ समझने की भूल है… और यह पूर्णतः मेरा व्यक्तिगत ईमानदार अनुभव है… कोई फाइनल एनालिसिस नहीं…