एक राजनैतिक दल अपने उदय के साथ ही सत्ता में आने और देश/ प्रदेश को विकास और सम्पन्नता के सर्वोच्च शिखर पर ले जाने के सपने देखता है.
1980 में भाजपा की स्थापना हुई थी. उसी समय से इसमें युवा, प्रौढ़, वृद्ध तथा कुछ किशोरवय के लोग कार्यकर्ता और समर्थक बने होंगे.
उनमे कुछ अब इस दुनिया में नहीं होंगे, किशोर समर्थक प्रौढ़ हो चुके होंगे और युवा वृद्ध.
पार्टी ने भी सम्पन्नता और विकास का सपना इन्हीं कार्यकर्ताओं और अपनी नीतियों के बल पर देखा होगा.
इनमें से ही सांसद, विधायक और अन्य श्रेणी के जनप्रतिनिधि/ जनसेवक को उम्मीदवार बनाये जाने की नीति/ रीति भी रही होगी और है भी.
इसी निमित्त कार्यकर्ता निर्माण और योग्यतम को तराशने का कार्य संगठन और अन्य अनुषांगिक प्रकल्प द्वारा अहर्निश किया भी जा रहा है.
अब प्रश्न यह है कि टिकटार्थियों की इतनी भीड़ खड़ी हो गई है कि जिताऊ या इतर उम्मीदवारों की बाढ़ आ गई है.
ऐसी दशा में क्या संगठन यह बता सकता है कि बिना खुद के निवेदन किये संगठन ने स्वयं कितने उम्मीदवारों का चयन 2017 के विधानसभा चुनाव हेतु किया है?
कि…. अमुक व्यक्ति को इतने वर्षो में संगठन द्वारा इस विशेषज्ञता के साथ दक्षता से तैयार किया गया है. अतएव यही व्यक्ति यहाँ से चयन हेतु ‘सर्वश्रेष्ठ’ उम्मीदवार है.
अब तक संगठन को इस दिशा में कितने उम्मीदवार तय किये जाने की दक्षता हुई है और संगठन कितने को बिना टिकट मांगे ऐसे टिकट देकर इस विधानसभा चुनाव हेतु उतार रहा है?
क्योंकि व्यक्ति निर्माण एवं विचारधारा को फ़लीभूत यही लोग करेंगे और संगठन की कार्य दक्षता तथा प्रासंगिकता/ प्रमाणिकता भी इसी कसौटी और तथ्य पर टिक पायेगी.
शायद इसका अभी एक भी उदाहरण नही है.
फिर…!
मांगने वाले महत्वाकांक्षी ही होते है. और प्रायः बाहरी ही होते हैं जो रीति-नीति और कार्यकर्ताओं के संघर्ष से परिचित नही होते.
इस प्रकार के रास्ते से चलकर मुख्य भूमिका में आने के बाद उनमें विचारधारा और आचरण के प्रति कितनी प्रतिबद्धता बची रहेगी?
कार्यकर्ताओ के प्रति कैसा व्यवहार रह जाएगा?? संघर्ष, समर्पण और प्रतिबद्धता से कार्य कर रहे कार्यकर्ताओ को क्या सीख दे रहे हैं?
आगे जैसा नेतृत्व उचित समझे…