ये मेरी देह के तिल बदला लेंगें तुझसे…..

सौगन्ध खाती हूँ
अपने देह के
एक-एक तिल की…..
सौ-सौ बदले लेगा
तुमसे मेरी देह का
एक-एक तिल…..

ये जो मेरी
आँख की कोर पर
जो छोटा सा तिल
अटका पड़ा है…..
जिद किये बैठा है
जगह न देगा तुमको
किसी भी राह
अन्दर आने की…..
भटकना तुम
इसकी एक झलक पाने को
कि कब उठे तुम पर…..

ठोड़ी पर बैठा नन्हा सा
इतराता, मुस्कुराता
और तनिक अपने कद पर
लजाता भी…..
कहता है
हज़ार बार नाक
रगड़वा दूँगा इसकी…..
एक मेरी होठों की
मुस्कान दिखलाने को…..

गर्दन की बायीं ओर बैठा
अपनी गलबहियाँ करते
बरबस ही चूम लेता है
और मेरे आँख दिखाने पर
ठठा कर हँसता है…..
कहता है
क्यों लजाती है तू
मैं तो तेरा डिठौना हूँ…..
मजाल क्या किसी ‘दुष्ट’ की
तिरछी नज़र की
जो लग जाये तुझे…..
मुँह नोच न लूँ
उसका मैं…..

पैर का तिल
इठलाता है…..
कहता है
मैंने तो जगह पायी है
कदली जंघा पर…..
है किसका भाग्य
जो तेरी मर्ज़ी के बिना
छू भी पाये
नज़रों से भी मुझे…..
मैं अड़ा हूँ अडिग
कुछ-कुछ तुझ जैसा…..
तेरे अभिमान से दर्पित होता
और तेरी आभा से चमकता
न तू किसी को दिखाता
न मैं दिखता…..
तेरी मर्यादा को संजोता…..
आने न दूँगा मैं
उसको तुझ तक…..

मेरी कमर का वो
ढीठ, निडर सा तिल…..
अपनी साड़ी की तह में
छुपाने की कोशिश में
बिजली की चौंध सा
आ चमकता…..
कभी आँख दिखाता
तो कभी मुँह चिढ़ाता
फिर कहता…..
देख!आने न दूँगा
उसकी उंगलियाँ मुझ तक
तू चैन से रह…..
तरसेगा वो मुझे छूने को…..

मेरी गर्दन के पीछे
भौंरा बना खड़ा
अभिमानी तिल…..
छिप जाता है अक्सर
मेरे खुले बालों में…..
लेकिन जब जूड़ा बनाती हूँ
कुछ उधेड़बुन में फँस…..
तो बन प्रहरी
खड़ा हो जाता है
सबसे लड़ने को…..
ये मेरे मान का रक्षक
तेरे अभिमान को तोड़ेगा…..

ये मेरी देह के तिल
कस्तूरी हैं…..
जब महकेंगे तो
ललचेगा तू…..
जब देखेगा इन्हें
तो बहकेगा तू…..
हठ करेगा तो
हठयोगी बनेंगे ये…..
किन्तु आने न देंगें
अपने समीप तुझे….
ये मेरी देह के तिल
बदला लेंगें तुझसे…..

– अनीता सिंह

Comments

comments

LEAVE A REPLY