बंगाल के बुद्धिजीवी खुद ही सोच लें क्या बनाना और परोसना है, रसगुल्ला है, बम भी है ही

The Holy Cow की कहावत टाइप ऐसे ही शुरू नहीं हुई. गाय से जुडी हर चीज़ को पवित्र माना जाता है. जाहिर है ऐसे में दूध भी पवित्र होता है. अगर दूध से जुडी परम्पराएँ भी देखेंगे तो ये नजर आ जायेगा.

बिहार के मिथिला या पश्चिम बंगाल के इलाकों में दूध फाड़ने, यानि छेना बनाने वाले को परिवार तोड़ने वाला बर्ताव माना जाता है, वहीं दही ज़माने को परिवार को एक जुट रखने से जोड़ा जाता है.

मतलब अगर कोई महिला अच्छी दही नहीं जमा सकती तो ये उनके पाक कला पर ही नहीं बल्कि बर्ताव के तरीके पर भी बड़ा सा सवालिया निशान लगा देता है.

परिवार को तोड़ने वाला लक्षण माना जायेगा तो दूध फाड़ा नहीं जायेगा, यानि कोई पनीर नहीं बनेगा, कोई छेना नहीं होगा, कोई रसगुल्ला भी नहीं बनेगा!

अब ये सुनने में आश्चर्य हो लेकिन 1850 से पहले तक कहीं भी रसगुल्ले का जिक्र नहीं आता. जी हाँ, कई फ्रेंच, पुर्तगाली, चीनी यात्री जो इस से पहले तक आये थे उन्होंने खाने पीने की चीज़ों का जिक्र तो जम कर किया है, लेकिन बंगाल में लम्बा समय गुजारने के बाद भी किसी ने रसगुल्ले का जिक्र नहीं किया है.

बंगाल में पहली बार रसगुल्ले बनने का जिक्र 1868 का है. ये वो समय था जब पुर्तगालियों ने चिट्टागोंग में अपनी पहली फैक्ट्री लगा ली थी.

विदेशियों की आबादी उस इलाके में पांच हज़ार से ज्यादा हो गई थी. पुर्तगाली पनीर के बड़े शौक़ीन थे, इसी वजह से दूध से पनीर बनना शुरू हुआ. जब पनीर बनने लगा तो धीरे धीरे उस से रसगुल्ला पनपा.

नोबिन चंद्र दास

नोबिन चन्द्र दास ने बाग़ बाजार की अपनी दुकान से पहली बार बंगाल में रसगुल्ला बेचना शुरू किया.

इसी रसगुल्ले जैसी चीज़ लगभग उसी दौर में ओड़िसा के जगन्नाथ मंदिर में भी पनपी. वहां इसे खीर मोहन कहते हैं, ये रसगुल्ले से थोड़ी सी अलग है.

माना जाता है कि भगवान कृष्ण जब मंदिर से नौ दिन की रथ यात्रा पर निकले तो उन्होंने देवी लक्ष्मी को इस बारे में बताया ही नहीं. बिना इजाज़त निकलने का नतीजा ये हुआ कि जब वो लौटे तो गुस्से गुस्से में लक्ष्मी जी जय विजय नाम का दरवाजा बंद कर के बैठ गई.

जब भगवान् जगन्नाथ ने उन्हें खीर मोहन से मनाया तब जाकर वो मानी. रथ यात्रा के बाद यानि नीलाद्रि बीजे के एक भाग में ये बचनिका नाम की परंपरा आज भी मनाई जाती है. तीन सौ साल से पुराने कई दस्तावेजों में मंदिर के इस खीर मोहन का जिक्र है.

माना जाता है कि भुवनेश्वर के पास ‘पहला’ नाम के गाँव में दूध की बर्बादी होते देखकर मंदिर के पुजारियों ने ही उन्हें रसगुल्ला बनाने और दूध को बचा लेने की विधि सिखाई. इस तरह ओड़िसा में ‘पहला रसगुल्ला’ के नाम से ये प्रसिद्ध हुआ.

ऐसा नहीं है कि नोबिन चन्द्र दास ने पहला रसगुल्ला बनाया हो. उसी दौर में कोलकाता की और दुकानों में भी रसगुल्ला बनने लगा था. भगवानदास बागला नाम के एक व्यापारी ने इसे नोबिन चन्द्र दास से लेकर काफी दूर तक फैलाया.

1930 में नोबिन चन्द्र दास के पुत्र कृष्ण चन्द्र दास ने इसे वैक्यूम पैक करना शुरू कर दिया और इस तरह ये पूरे भारत में, और विदेशों में भी प्रचलित हुआ.

बाघा जतिन

वैसे देखेंगे तो आज जो स्पंज रसगुल्ला मिलता है वो और भी नया अविष्कार है. दरअसल भैंस के दूध से उसे बनाया नहीं जा सकता. गाय के दूध को फाड़कर उस से छेना बनाना बाद में शुरू हुआ इसलिए स्पंज रसगुल्ला भी बाद में बना.

पहली और गोल चीज़ो की बात हो तो बंगाल पहले बम गोले के लिए भी प्रसिद्ध रहा है. बाघा जतिन जैसे लोग भी यहीं के थे.

बाकि बंगाल के जैसे हालात हैं, ऐसे में क्या बनाना और परोसना है ये बंगाल के बुद्धिजीवी खुद ही सोच लेंगे. रसगुल्ला है, बम भी है ही.

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