चार वर्णों की सृष्टि की तो क्या मनुष्यों को बाँटा?
योगेश्वर कहते हैं, नहीं ‘गुणकर्म विभागशः’ (गीता ४/१३) गुणों के माध्यम से कर्म को चार भागों में बाँटा. कर्म माने चिन्तन, कर्म माने साधना की पद्धति. उस साधन-पथ को चार श्रेणी में बाँटा. एक ही साधना के चार सोपान हैं. यथा-
१ – यदि तामसी गुण है तो आलस्य, प्रमाद, निद्रा, कर्तव्य-कर्म में प्रवृत्त होने का स्वभाव, अकर्तव्य कार्य से न निवृत्त होने का स्वभाव आप में स्वाभाविक रहेगा. ऐसी परिस्थिति में यदि आप आँख मूँदकर बैठ भी जाते हैं तो दो घण्टे बैठकर दो मिनट भी अपने हक में नहीं पायेंगे. शरीर बेशक बैठा रहेगा लेकिन मन, जिसे भजन में एकाग्र होना है हवा से बातें करेगा, संकल्पों का जाल बुनता रहेगा.
इस आरम्भिक अवस्था में आप ‘शूद्र’ हैं, क्षुद्र हैं, अल्पज्ञ हैं. ऐसी परिस्थिति में आँख मूँदकर बैठने का दम्भ न करें बल्कि जो सीधा सा नियम है, इस वर्ण का, कि उस पथ के जो ज्ञाता महापुरुष हों उनकी सेवा करें. ‘परिचर्यात्मकं शुद्रस्यापि स्वभावजम्’ – मन-कर्म-वचन से उनकी सेवा में लग जाएं. यह साधना की पहली सीढ़ी है, उस कर्म-पथ का पहला हिस्सा है.
२ – महापुरुष की सेवा से तामसी गुण धीरे-धीरे शान्त होते जायेंगे, राजसी गुणों का प्रवेश होने लगेगा और जब आधा राजसी का प्रवेश मिल गया तहाँ फिर आपके मन में टिकने की क्षमता आ जायेगी. तहाँ फिर ‘कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्’ (गीता, १८/४४) स्वभाव कहते हैं आदत को. जब आपके अन्तराल में तामसी गुणों का दमन हो गया, आधा राजसी गुण का प्रवेश भी आ गया तो स्वाभाविक चिंतन होने लगेगा.
गो-रक्षा? तो क्या भैंस को मार डालें? नहीं!
‘गो गोचर जहँ लगि मन जाई.
सो सब माया जानेहु भाई ॥
(मानस, ३/१४/३)
‘गो’ माने इन्द्रियाँ. आज ‘गो’ माने इन्द्रियाँ कहना पड़ता है किंतु वैदिक वाङ्मय में ‘गो’ शब्द जहाँ मुख से निकलता तो लोगों का ध्यान मस्तिष्क, हाथ, पाँव, नाक, कान- सहज ही इनकी ओर दौड़ जाता था.
एक मुसलमान कव्वाली गा रहा था- मुहम्मद न होते तो कुछ भी न होता. यदि मुहम्मद साहब न होते तो कुछ भी न होता.
हमारे स्वामीजी ने सुना तो बोले कि ठीक ही तो कहता है. यदि मोह-मद न होता तो कुछ भी न होता, संसार में जन्म-मृत्यु का कारण ही न होता. उन्होंने मुहम्मद का अर्थ विकार लगाया, जबकि उधर मुहम्मद उनके आचार्य थे.
ठीक इसी प्रकार ‘गो’ नाम का एक पशु भी है. उसका महत्व है तो आर्थिक किंतु भ्रमवश लोग उसे धर्म मानकर पूजने में लगे हैं. इस भ्रान्ति का निराकरण किसी दूसरे दिन करेंगे.
यहाँ गो-रक्षा का अर्थ है मायिक प्रवृत्तियों से अपनी इन्द्रियों की रक्षा. काम-क्रोध, लोभ-मोह, आशा-तृष्णा इनके द्वारा गो बिखर कर टुकड़े-टुकड़े हो जाती हैं, योनियों का कारण बनती हैं और विवेक, वैराग्य, शम, दम, नियम, श्रद्धा और समर्पण के द्वारा इन्द्रियाँ संयत होती हैं, सुरक्षित होती जाती हैं.
वाणिज्य का अर्थ है व्यापार, धन-संग्रह. आत्मिक संपत्ति ही स्थिर संपत्ति है. प्रकृति के द्वंद्व से शनैः-शनैः उस आत्मिक सम्पति को अर्जित करें.
और खेती? जहाँ खेती या क्षेत्र का प्रश्न आया, योगेश्वर श्रीकृष्ण ने बताया कि ‘इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते.’ (गीता, ३१/१) अर्जुन! यह शरीर ही क्षेत्र है, जिसमें भला अथवा बुरा बोया हुआ बीज संस्कारों के रूप में जमता है. इसलिए इस क्षेत्र की निराई करें. इसके अन्दर से विकारों को निकालकर फेंक दें और सही रखें.
यह वैश्य श्रेणी का कर्म है- ‘वैश्यकर्म स्वभावजम्’ (गीता, १८/४४) आपके स्वभाव ने इसको जन्म दिया. स्वभाव परिवर्तनशील है. आज जो स्वभाव है, कल वह नहीं रहेगा.
बाल्मीकि पहले हमलावर डाकू और हत्यारे थे. सन्त सत्पुरुषों का जब सान्निध्य प्राप्त हुआ तो ‘बालमीकि भये ब्रह्म समाना.’ (मानस, २/१९३/८), क्या बदला था उनका? शरीर वही था, हाथ-पाँव वही थे, केवल गुण बदला तो स्वभाव बदल गया. गुण परिवर्तित हो गये.
३ – इसी प्रकार जब तामसी गुण शान्त हो गये, सात्त्विक गुण में प्रवेश मिल गया. कुछ राजसी और सात्त्विक गुण का बाहुल्य आ गया तब आप ही क्षत्रिय हैं. सब भावों पर स्वामी भाव, शौर्य, तेज, दया और प्रकृति के द्वन्द्व में चिन्तन-पथ से पीछे न हटने का स्वभाव- यह क्षत्रिय के स्वभाव से उत्पन्न कर्म हैं. वह साधक महान् विपत्ति आने पर भी हताश होकर चिन्तन-पथ से पीछे नहीं हटता.
मीरा को जहर दिया गया. ‘लोग कहें मीरा भई बावरी, सास कहे कुलनासी.’ आज उस कुलवन्ती सास को कोई नहीं जानता और मीरा को दुनिया जानती है. लाख विपत्ति आने पर भी मीरा अपने कर्म-पथ से, इष्ट में श्रद्धा और समर्पण से कभी विचलित नहीं हुई. क्षत्रित्व की यह श्रेणी आपके स्वभाव के अन्तराल में जन्मी है.
४ – इससे उन्नत होने पर जब केवल सात्विक गुण रह गया हो, तामसी और राजसी गुण एकदम शांत हो गये हों, आपके अंतःकरण में, उस समय ब्रह्म में प्रवेश दिला देने वाली सारी योग्यता आपके स्वभाव में है –
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्म कर्म स्वभावजम्॥
(गीता १८/४२)
मन का शमन, इन्द्रियों का दमन, उस चिंतन-पथ में इन्द्रियों को तपाने की क्षमता, धारणा-ध्यान और समाधि की क्षमता, अनुभवी उपलब्धि अर्थात प्रत्येक कार्य में इष्ट का प्रत्यक्ष निर्देशन और उस निर्देशन में चलने की क्षमता – यह सब ब्राह्मण श्रेणी के कर्म स्वभाव से उत्पन्न हैं और स्वभाव में पाये जाते हैं.
क्रमश: 6
(महाकुम्भ के पर्व पर चंडीद्वीप हरिद्वार में दिनांक 8 अप्रेल 1986 ईस्वी की जनसभा में स्वामी श्री अड़गड़ानंदजी द्वारा वर्ण-व्यवस्था का रहस्योद्घाटन)
लोकहित में http://yatharthgeeta.com पर pdf वर्जन में नि:शुल्क उपलब्ध ‘शंका-समाधान’ से साभार. आदिशास्त्र ‘गीता’ की यथा-अर्थ सरल, सुबोध व्याख्या ‘यथार्थ गीता’ भी pdf वर्जन में नि:शुल्क उपलब्ध है.