जहां दमन वहां वमन – 1

sex banglore rape case

अक़्सर सुनते हैं हम आप – ” क्या स्त्री सिर्फ़ देह है..?”

ये सवाल उस समाज में उठता है जहाँ सबसे ज़्यादा देहातीत विज्ञान पर कार्य हुआ है, जहाँ आत्मा और परमात्मा का कभी लिंग निर्धारण नहीं हुआ, जहाँ का वेदांत ‘प्रकृति-पुरुष’ के दर्शन में पुरुष का अर्थ नर-नारी दोनों से लगाया जाता है..!

और क्यों हमेशा #नारीवादी, तथाकथित #फेमिनिस्ट , #स्त्रीवादी दोगले लोग…. ये भ्रम फैलाते हैं कि पुरुष अपने आप में परमात्मा की एक घृणित रचना है…!!

उनका ये सवाल उठाना कि स्त्री सिर्फ़ देह नहीं… सही है, मगर पुरुष भी सिर्फ़ देह नहीं है इसकी स्वीकार्यता में वे क्यों मुंह चुराते है.!!

और इस समाज का पुरुष स्वयं कहाँ देहातीत है अभी..!!! यहां स्त्री स्वयं को कहाँ देह से मुक्त कर पायी है.. मनोविश्लेषण की दृष्टि से देखें कि कैसे नारी के जीवन में श्रृंगार की अधिकता होने का कारण है उसका अपनी प्रमुखता और श्रेष्ठता साबित करने का उपक्रम… और उसका सुलभ माध्यम सभी स्त्रियों का मिलता है उनका अपना देह… जिसे वो चित्ताकर्षक बनाना चाहती हैं..! इसमें कोई भी बुराई नहीं है… बिलकुल उचित है के नर और नारी अपने देह को सुंदर से सुंदर रूप में प्रस्तुत करें.. मगर उसके अगले सोपान की तरफ़ भी बढ़ते रहें.!!

देह रहते विदेह होने की कला ही एकमैव समाधान है… ऐसी सामाजिक स्थिति का…!

जहाँ कई कई बार ऐसा भी हित है कि महिला जानती है कि पुरुष के आगे उसकी महत्ता नहीं उसकी देह की महत्ता है, और वो भी उसका उपयोग अपने स्वार्थ साधने में लग जाती है..! इसे घटना के संदर्भ में ना जोड़ा जाए… मगर एक साधारण रूप से देखें…स्त्रियाँ अपने देह पे गर्व करती हैं और उसका उपयोग भी वे करती ही है।

क्यों आख़िर शैम्पू, तेल, बनियान से लेकर कार, ट्रक और दवा के विज्ञापन में महिलाओं को दिखावटी वस्तु की तरह इस्तेमाल करते हैं… और क्यों महिलाएं स्वयं इसे बढ़ावा देती हैं.. स्त्रियाँ भी स्वयं को इस टाइपकास्ट होने से मुक्त करें… वे अपनी बौद्धिक और आध्यात्मिक स्वतन्त्रता का घोष करें. वे अपने विचारों, कृतत्व से बताएं कि वे सिर्फ देह नहीं हैं!

यह अभी अभी #Banglore की प्रकाश में आई घटना निंदनीय है… अशोभनीय है… आपराधिक प्रवृत्ति से पैदा हुयी है..!! और कोई कैसे भी कारणों से भुक्तभोगी लड़कियों को गलत नहीं ठहरा सकता!!

लेकिन इसके लिए जो लोग जवाबदार हैं उस फ़ेहरिस्त में सबसे ऊपर… उन लड़कों के माता और पिता भी हैं… उनकी बहनें, उनके दोस्त, उनकी महिला मित्र वे सभी जो उस ज़ाहिल को ये सीखने में नाक़ाम रहे कि जीव मात्र का सम्मान करना है… हर स्त्री पुरुष का सम्मान करना है…!!!

एक तरफ़ से लोग सिर्फ़ पुरुषों को ही कटघरे में ला कर बौद्धिक वमन तो कर ले रहे हैं…. समाधान किसी के पास नहीं है..! उन्हें बस भीड़ के साथ खड़े होने की आदत है… ये तमाशबीन लोग हैं साहब जो विलेन के मरने पर भी ताली बजाते हैं और हीरो के मरने पर भी..!

घटना विशेष को लेकर प्रदर्शन करवा लो इनसे.. गप्पें करवा लो… समाज का अघोषित ठेकेदार बनने को सदा लालायित रहते हैं ये लोग… दोगलेपन के शिकार हैं साहब ये लोग.!!!

टीवी और इंटरनेट पर बहस या सोशल मीडिया में  #Countrynotforwomen #Womennotsafe या ऐसे ही अन्य दर्ज़नों  हैशटैग ट्रेंड करने से क्या गिरावट आएगी इन घटनाओं में… या इतना करके वे स्वघोषित विचारक और ठेकेदार मुक्त हो गए नैतिक कार्यभार से..??

मेरा कहना है कि आपराधिक वृत्ति पर फोकस हो, ना कि घटना विशेष पर… आज बैंगलोर है कल दिल्ली था… कल कुछ और होगा… अपराध क्यों हुआ ये गम्भीर विषय है… उससे भी गम्भीर विषय है कि कैसे कोई आम आदमी अपराधी हो जाता है..!!

किस दमन ने अपराधी बनाया किसी आम आदमी को… आपराधिक घटना के पूर्व ही वह मानसिक रूप से अपराधी बन चुका होता है… असली बीमारी की जड़ वहां है…!

सामाजिक व्यवस्था, काम का दमन, सिनेमा से लेकर बाज़ार तक नंगापन और उससे पैदा हुयी अति कामुकता और उन्मुक्त व्यवहार ही व्यभिचार और ऐसी घृणित वृत्ति को बढ़ावा देती है…!!

बेहद सामान्य से दिखने वाले… हमारे आसपास के लोग ही कभी भी आपराधिक प्रवृत्ति में लिप्त मिल सकते हैं.

कपड़ों के चलन, महानगरीय संस्कृति या पाश्चात्य पे सारा ठीकरा फोड़ना भी मूर्खता है… जो भी ज़मीनी रूप से गाँव से जुड़ा है वो जानता है की गन्ने के खेतों में, खलिहानों में, पुआल के ढ़ेर की आड़ में, नदी पास की सुनसान अमराई में रोज़ ऐसी दर्जनों घटनाएँ होती हैं..!

संस्कृति का जामा ओढ़े सम्भ्रांत लोग भी एकांत में मौक़ा देख के वहशी  दरिन्दे हो जाते हैं  …अब वहां कोई cctv लगाकर TOI कोई सनसनीखेज़ वीडियो नहीं छापता फिरता है..!

समस्या का दायरा बहुत वृहद है…. तो उसका समाधान भी वृहद होना चाहिए.. बौद्धिक वाग्विलास से कुछ ना सधेगा मित्रों..!

कल पढ़ा किसी ने लिखा… मुझे शर्म आती है, ख़ुद को मर्द कहने में..!!

मुझे कोई शर्म नहीं आती साहब ऐसा कहने में…. अगर जेनेटिक खेल में XY का समीकरण बदला होता तो हम स्त्री होते… अब साधारण सी बात को मेलोड्रमटिक अंदाज में डायलॉग मार के पेश करने में कौन सी बड़ी बात है..!

शर्म उन्हें आये जो ऐसी बुराई पर मौन हैं, जो अपने आसपास देह की दुकानों का विरोध नहीं कर रहे, जो अपने परिवार में सभी प्राणी मात्र को प्रेम और सम्मान देना नहीं सीखा रहे, जो अपने भाई और बेटे से सवाल ना कर के हमेशा माँ, बेटी और बहन से सवाल करते हैं, जिन्हें परवरिश के नाम पर एक लड़की को नाज़ुक फूल की तरह रहना सिखाया जाता है, जो उसे बचाये रखने छुपाए रखने को एक मात्र सही तरीका समझते हैं…वे सब शर्मसार हों..!

आधी मनुष्यता को शर्म क्यों आनी चाहिए… सिर्फ़ पुरुषों के शर्माने से क्या सिद्ध कर लेंगे लोग… वे स्त्रियाँ भी क्यों ना शर्माएं जो काली और दुर्गा के देश में भी महिला के प्रति नज़रिए को बदल ना सकीं… क्यों समाज में स्त्रियाँ अपने भाई, बेटे, पति, पिता को स्त्री समाज को सम्मान देना सीखा ना पायीं..!
मैं तो कहता हूँ कि क्यों नहीं सभी स्त्री पुरुष के विभेद के बजाये मनुष्यता के कांसेप्ट को बल दें..!

बचपन से किशोरावस्था तक में ही, क्यों नही एक सुंदर स्वीकार्यता से भरी दृष्टि मिले सभी को… परिवारों में यौन सम्बंधित खुलापन… वैचारिक प्रौढ़ता और यौन को जीवन का अहम् अंग के तौर पर स्वीकार्यता जब तक नहीं मिलेगी… दमित विचारधारा के लोग ऐसे घृणित दुष्कृत्य करते रहेंगे… करते ही रहेंगे…!

समाज में हर व्यक्ति के द्वारा सेक्स का दमन, बाज़ारवाद में सेक्सुअलिटी का दोहन, नशे का महिमा मंडन, शराबखोरी और नशेबाजी का रंगीन चित्रण, सिनेमा-फ़िल्मों आदि माध्यम से यौन उन्मुक्त आचरणों को बढ़ावा देन, पारिवारिक संवादहीनता, नैतिकता या चरित्र की परिभाषा की संकीर्णता….ये जब तक टारगेट नहीं किये जायेंगे… ऐसी कुत्सित घटना बंद नहीं होंगी..!!

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