क्या हम कर्म करते ही रहेंगे अथवा कभी कर्म करने से छुटकारा भी मिलेगा?
इस पर योगेश्वर कहते हैं- ‘यस्य सर्वे समारम्भा:’- अर्थात सम्पूर्णता से आरम्भ किया हुआ ‘कर्म’ इतना सूक्ष्म हो जाय कि ‘काम सङ्कल्प वर्जिता:’ – कामना और संकल्पों का निरोध हो जाय अर्थात् मन संकल्प-विकल्प से रहित शून्य में टिक जाय, उस समय ‘ज्ञानाग्नि दग्ध कर्माणम्’- जिसको हम नहीं जानते थे, जिसके लिए प्रयत्नशील थे, अजर-अमर-शाश्वत गुणधर्मो वाला वह परमात्मा विदित हो जाता है.
इसी अनुभूति का नाम है ज्ञान और उस ज्ञान में ‘दग्ध कर्माणम्’ – कर्म सदा-सदा के लिए जल जाते हैं. ऐसी अवस्था वालों को बोधस्वरूप महात्मा जन पण्डित कहते हैं.
यहाँ भी ‘कर्म’ कोई ऐसी वस्तु है, जो हमारे चित्त को समेट कर संकल्पों से ऊपर उठा देता है. कर्म माने आराधना!
सातवें अध्याय के अन्त में कहते हैं- कि जो मनुष्य जरा-मरण से छूटने के लिए मेरी शरण होकर यत्न करते हैं, वे सम्पूर्ण ‘कर्म’ को जानते हैं, सम्पूर्ण ‘अध्यात्म’ को जानते हैं, पूर्णरूप से मुझे जानते हैं और मुझे जानकर सदा के लिए मुझमें स्थित हो जाते हैं. ‘कर्म ‘ जरा-मरण से छुटकारा दिला देता है.
अर्जुन ने पूछा – भगवन्! वह सम्पूर्ण कर्म क्या है? सम्पूर्ण ब्रह्म क्या है और वह सम्पूर्ण अध्यात्म क्या है?
योगेश्वर ने बताया, ‘अक्षरं ब्रह्म परमं’ – जो अक्षय है, अमिट है, वही परम ब्रह्म है. ‘स्वभावोsध्यात्मं उच्यते’- स्व अर्थात् अपने स्वरूप में स्थिर भाव, स्वरूप की उपलब्धि का भाव ही अध्यात्म है. कुछ कह देना अध्यात्म नहीं है.
‘अधि’ माने आधिपत्य. स्वरूप की उपलब्धि होने पर व्यक्ति माया के आधिपत्य से निकल जाता है, आत्मा का आधिपत्य प्राप्त हो जाता है, यही ‘अध्यात्म’ है.
और ‘भूत भावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञित:’ – भूतों के वे भाव, जो कुछ न कुछ रचना करते हैं, आपके संकल्पों के वे भाव जो आपके संस्कारों की सृष्टि करते रहते हैं, उनका रुक जाना ही कर्म की पराकाष्ठा है.
‘कर्म’ कोई ऐसी वस्तु है जो आपके मन के अन्तराल में छिपे हुए संस्कारों का अंत करके, भले और बुरे, शुभ और अशुभ संस्कारों पर विसर्ग पूर्ण विराम लगाकर, उनका निरोध करके आपको अलग खड़ा कर देता है. अतः कर्म माने होता है चिन्तन.
अध्याय सोलह में कहते हैं कि काम, क्रोध और लोभ – ये नरक के तीन द्वार हैं. अर्जुन! इन तीनों को त्याग देने पर ही उस ‘कर्म’ की शुरुआत होती है जो परम श्रेय को दिलाने वाला होता है. ‘कर्म’ वह प्रक्रिया है, काम-क्रोध-लोभ त्यागने पर ही जिसमें प्रवेश मिलता है.
सांसारिक कार्यों में जो जितना अधिक व्यस्त है उसमें काम-क्रोधादि उतने ही सजे-सजाये दिखाई देते हैं.
श्रीकृष्ण जिसे कर्म मानते हैं वह एकमात्र आराधना ही है. त्याग के बिना उसका आरम्भ ही नहीं होता. साधना के सिद्ध होते ही ज्यों-ज्यों ये विकार अन्दर से घटते जायेंगे, त्यों-ही-त्यों कर्म में प्रवेश मिलता जायेगा.
इसी कर्म को योगेश्वर श्रीकृष्ण ने चार भागों में बाँटा है क्योंकि सहसा कोई एक साथ उस मंजिल को नहीं पा सकता.
जिस प्रकार किसी सांसारिक विद्या को सीखने के लिए मनुष्य को कई श्रेणियों से गुजरना पड़ता है.
इसी प्रकार योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं, अर्जुन! चार वर्णों की सृष्टि मैंने की.
वर्ण माने आकृति.
इस जीवात्मा का वर्ण शुद्ध वर्ण है, शाश्वत है, निर्दोष है, निर्लेप है, ‘आदित्यवर्णं तमसः परस्तात्’ (गीता ८/९)- वही हमारा वर्ण है. वर्ण का अर्थ है आपका स्वरूप.
चार वर्णों की सृष्टि की तो क्या मनुष्यों को बाँटा?
योगेश्वर कहते हैं, नहीं ‘गुणकर्म विभागशः’ (गीता ४/१३) गुणों के माध्यम से कर्म को चार भागों में बाँटा. कर्म माने चिन्तन, कर्म माने साधना की पद्धति. उस साधन-पथ को चार श्रेणी में बाँटा. एक ही साधना के चार सोपान हैं.
क्रमश: 5
(महाकुम्भ के पर्व पर चंडीद्वीप हरिद्वार में दिनांक 8 अप्रेल 1986 ईस्वी की जनसभा में स्वामी श्री अड़गड़ानंदजी द्वारा वर्ण-व्यवस्था का रहस्योद्घाटन)
लोकहित में http://yatharthgeeta.com पर pdf वर्जन में नि:शुल्क उपलब्ध ‘शंका-समाधान’ से साभार. आदिशास्त्र ‘गीता’ की यथा-अर्थ सरल, सुबोध व्याख्या ‘यथार्थ गीता’ भी pdf वर्जन में नि:शुल्क उपलब्ध है.