मानव अपने मूल स्वभाव में उद्दंड, अधिकारवादी, वर्चस्व स्थापित करने वाला है. आप घर में बच्चों को देखिये, थोड़ा सा भी ताकतवर बच्चा कमज़ोर बच्चों को चिकोटी काटता, पेन चुभाता, बाल खींचता मिलेगा. कुत्ते, बिल्लियों को सताता, कीड़ों को मारता मिलेगा. माचिस की खाली डिबिया, गुब्बारे, पेंसिल पर कभी बच्चों को लड़ते देखिये.
ये वर्चस्वतावादी, अहमन्यतावादी सोच हम जन्म से ही ले कर पैदा होते हैं. इन्हीं गुणों और दुर्गुणों का समाज अपने नियमों से विकास और दमन करता है. यदि ये भेड़ियाधसान चलता रहे और इसकी अबाध छूट दे दी जाये तो स्वाभाविक परिणाम होगा कि सामाजिक जीवन संभव ही नहीं रह पायेगा. लोग अंगुलिमाल बन जायेंगे.
समाज के नियम इस उत्पाती स्वभाव का दमन करने के लिए ही बने हैं. लगातार की इस ठोका-पीटी का ही परिणाम है कि मानव-सभ्यता विकसित हुई है. शालीनता, मीठा बोलना, बंधुत्व, ईमानदारी ये सब सभ्य होते जाने के क्रम में आने वाले गुण हैं.
इन्हीं के विकास का एक प्रमुख अंग स्त्रियों और दासों को बराबरी का अधिकार देना है. विश्व भर में दास-प्रथा रही है. मुस्लिम काल में बादशाहों के अर्थ-उपार्जन का बड़ा भाग भारत के लोगों को दास बना कर मध्य एशिया के बाजारों में बेचना था.
ये घृणित कृत्य इतने बड़े पैमाने पर हुआ है कि भारत से दास बना कर बेचे गए लोगों के वंशज, जो अब विश्व में रोमा अथवा जिप्सी नाम से अपनी पहचान रखते हैं, एक भरा-पूरा करोड़ों की संख्या का समाज है.
सभ्य समाज ने सामाजिकता के मूल नियम ‘सब मनुष्य बराबर हैं और उनके अधिकार भी समान हैं’ अपना लिया और दास-प्रथा बंद कर दी गयी. किन्तु अभी भी कुछ बर्बर समूह दास-प्रथा मानते और चलाते हैं.
सीरिया, ईराक में आईएसआईएस के लड़के, मारे गए यज़ीदी और शिया समुदाय के लोगों की सात-आठ साल की बच्चिओं के साथ निकाह कर रहे हैं, उनके पुरुषों को गुलाम बना कर बेच रहे हैं. अफ्रीका के मुस्लिम देशों में भी कहीं-कहीं दास प्रथा है.
इसी तरह स्त्रियों के अधिकार का विषय है. स्त्रियों को अपने बराबर मानने में संसार की पुरुषवादी व्यवस्थाओं को बहुत समय लगा है. स्त्रियों के बराबरी के अधिकार का पहला भाग यानी वोट का अधिकार उन्हें बहुत देर में मिला है.
स्त्रियों को यह अधिकार जर्मनी में 1919 में, अमरीका में 1920 में, इंग्लैंड में 1928 में, पुर्तगाल में 1931 में, फ़्रांस में 1944 में, माल्टा में 1947 में, स्वतंत्र भारत में 1949 में, ग्रीस में 1952 में, मोनाको में 1962 में, स्विट्ज़रलैंड में 1971 में, लिंचेस्टिन में 1984 में प्राप्त हुआ है.
सऊदी अरब में 1960 में म्युनिस्पिल चुनाव हुए जिसमें स्त्रियों को भाग लेने, वोट डालने के अधिकार नहीं थे. उसके बाद अगले चुनाव 2005 में हुए. इस चुनाव में इस कारण औरतों को वोट डालने का अधिकार नहीं दिया गया कि वहां के अधिकारियों के अनुसार उनके पास इतनी मात्रा में स्त्री अधिकारी नहीं थीं कि चुनाव संपन्न कराये जा सकें.
शुद्ध मुस्लिम व्यवस्था में स्त्रियां केवल स्त्रियों द्वारा संचालित, नियंत्रित बूथ में ही वोट डाल सकती हैं. सऊदी अरब में अगर किसी टैक्सी ड्राइवर के साथ औरत अकेली सफर कर रही है तो उसे उस पुरुष ड्राइवर से निकाह करने की बाध्यता है.
सयुंक्त अरब अमीरात, क़तर इत्यादि मुस्लिम देशों में भी ऐसी ही स्थिति है चूँकि इस्लाम अपने मूल स्वभाव में ही प्रजातंत्र विरोधी है.
ऐसा नहीं है कि हम हिन्दू स्त्रियों के प्रति बहुत अच्छे हैं. पुरुषों के वर्चस्व वाले संसार में हिन्दू भी स्त्रियों के प्रति न्यूनाधिक उतने ही कठोर रहे हैं जितने अन्य समाज मगर हमारे व्यवहार की ऐसी स्थिति के बाद भी शास्त्रीय पक्ष ‘नार्यस्तु यत्र पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ का ही रहा है.
हमें शास्त्र आदेश करते हैं कि स्त्रियों का सम्मान करो. इसी कारण व्यवहार में खराबी होने के बाद भी सुधरने, बदलने की संभावना-आशा है, बाध्यता है.
लगातार प्रशासनिक दबाव, दंड-विधान, सामाजिक प्रभाव इत्यादि ने देशी में स्त्रियों की सामजिक स्थिति बहुत बेहतर कर दी है और यह स्थिति दिनों-दिन बेहतर होती जा रही है. स्त्री-पुरुषों को बराबरी के अधिकार देना समाज को बदलता, सभ्य करता जा रहा है.
इस्लाम में औरत को नाकिस-उल-अक्ल कहा गया है अर्थात जड़-बुद्धि. इसी कारण इस्लामी कानून में एक पुरुष के सामने एक औरत को आधा माना जाता है. आश्चर्यजनक रूप से इस्लाम स्त्रियों को पिता की संपत्ति में अधिकार देने के बारे में अग्रणी है मगर समाज में उनके अधिकार नहीं मानता.
औरत की गवाही मान्य होना तो दूर सुनी ही नहीं जा सकती. उसकी पुष्टि यदि दूसरी औरत न करे तो उसकी बात सुनी जाने के योग्य ही नहीं है.
इस छोटी सी लगने वाली बात के कारण सदियों से उन पर कितना भयानक दबाव है इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि मुस्लिम औरतें स्वयं पर से समाज की बेड़ी उतारने के विचार से ही भयभीत रहती हैं. इसका व्यवहारिक रूप इतिहास के प्रकाश में देखिये.
मुझे ये घटना डा कमाल अहमद सिद्दीक़ी साहब ने, जो उर्दू शायरी के आलोचकों में से एक थे, जेएनयू में मास कम्युनिकेशन पढ़ाते थे और मुस्लिम शास्त्रों के अच्छे जानकार थे, ने बताई थी.
खलीफा हारून रशीद, जिसे मुल्ला पार्टी बहुत प्रजा-वत्सल, न्याय-प्रिय, विद्वान और न जाने क्या-क्या बताती है, जब अपने पिता की मृत्यु के बाद खलीफा बना तो उसका दिल अपने महल की एक बांदी (दासी. इस्लाम में दास प्रथा की स्वीकृति है. इस्लाम के प्रवर्तक मुहम्मद जी के पास भी दासियाँ थीं) पर आ गया.
उसने बांदी से अपनी इच्छा प्रकट की तो दासी ने कहा मैं आपके पिता की भोग्या थी. मुझ पर आपके पिता कृपालु रह चुके है. मैं आपके लिए वर्जित हूँ.
खलीफा हारून रशीद उसके वियोग में बीमार रहने लगा. वज़ीर चिंतित हुआ. किसी ने कहा, मुफ़्ती से फ़तवा ले लीजिये. हारून रशीद ने मुफ़्ती को बुलवाया. उसने कहा एक लाख दीनार लूंगा और रास्ता निकाल दूंगा. खलीफा राज़ी हो गया.
मुफ़्ती ने कुरआन और हदीस की रौशनी में प्रसिद्ध फ़तवा दिया- ‘ये बांदी जो आपके पिता की भोग्या होने कि बात कह रही है, की बात की पुष्टि, कोई और औरत या पुरुष जिसने इस कृत्य को देखा हो, करे… तब ही इसकी बात विश्वसनीय होगी.’
ऐसे कृत्य किसी को साक्षी बना कर तो किये नहीं जाते, अतः उस दासी की बात को स्वीकार योग्य नहीं माना गया. इस तरह खलीफा हरुल रशीद के अपने पिता की भोग्या को भोगने का रास्ता, इसी नाकिस-उल-अक्ल की इस्लामी मान्यता के कारण खुला.
ये कोई पुराने काल की ही बात नहीं है. अभी कुछ समय पूर्व जब अफगानिस्तान में तालिबानी शासन था, एक औरत ने कुछ पुरुषों पर बलात्कार की रिपोर्ट कराई. इस आरोप की पुष्टि किसी और औरत या पुरुष ने नहीं की.
उस औरत पर उन्मुक्त यौनाचार का अभियोग लगाया गया और उसे संगसार करने अर्थात पत्थर मार-मार कर मार डालने की सज़ा दी गयी. अभियुक्तों सहित अन्य लोगों ने पत्थर मार-मार कर उस पीड़ित और बेबस स्त्री की हत्या कर दी.
अरबी मूल की अनीला अहसान ANEELA EHSAN ने फेसबुक पर एक जानकारी पोस्ट की है. इस्लामी अध्ययन के लिए संसार भर में विख्यात अल-अज़हर विश्वविद्यालय की फतवा कमेटी ने स्त्रियों के समुद्र में स्नान के खिलाफ फतवा दिया है.
उनके अनुसार समुद्र पुल्लिंग है. जब पानी स्त्री शरीर के गुह्य भागों को स्पर्श करता है तो ये उसे (समुद्र को, दर्शक को नहीं) उकसाता है अतः इसे वर्जित होना चाहिए और स्त्री को दण्डित किया जाना चाहिए.
इसी कथित रूप से महान विश्वविद्यालय की फ़तवा कमेटी ने स्त्रियों के सार्वजनिक रूप से केले, खीरे खरीदने के विरोध में (उनकी शक्ल पुरुष जननांग जैसी होने के कारण) और न जाने किस-किस बात पर चित्र-विचित्र फ़तवे दिए हैं.
सभ्यता, मानवता विकसित होते जाने की एक सतत प्रक्रिया है. इसे बर्बर, जंगली और जड़-कबीलाई नियमों से नहीं चलाया जा सकता है, नहीं चलाया जाना चाहिए. इस का शिकार दूसरे ही नहीं होते हम भी होते हैं.
काल का चक्र अनवरत घूमता है. जो आरा अभी ऊपर है उसे नीचे भी आना होता है. इस लिए सभ्य समाज के नियम व्यक्ति, जाति, पंथ, मज़हब निरपेक्ष बनाये जाते हैं. इन्हें न्याय के सिद्धांत ‘ सब मनुष्य बराबर हैं ‘ के अतिरिक्त हर बात से निरपेक्ष्य होना ही चाहिए.
इस्लामियों को यह बात समझाना/ मनवाना सभ्य समाज का दायित्व है. सभ्य लोगों का पिछड़ी सोच वाले समाज के जंगलीपन दूर करने के काम में लगना उन के लिये भी आवश्यक है.