आज शहर बंद है : शरत घोड़ों पर लगाते हैं कठोर…

karahta sach pankaj kumar

ये ओंकारा फिल्म का डायलॉग है. दोस्तों पे हम यदा कदा इस फिल्म के डायलॉग चिपकाते रहते हैं. जाहिर है मामला शर्त का है. पिछले तीस साल में सिर्फ तीन बार हारे हैं, तो ये भी तय मानिए कि जीती हुई शर्त का ही किस्सा है. दो साल से थोड़ी सी पुरानी बात है, एक मित्र ने अपनी लिखी एक कहानी पढ़ने को दी और पूछा कैसी है?

गणित-कंप्यूटर की जानकारी और हिंदी के शौक के अलावा हम दोनों में परिचय की कोई वजह नहीं थी. फेसबुक मैत्री, पंकज के रहने का शहर और नाम भर पता था बस. उनका मानना था कि एक आयातित विचारधारा के खिलाफ जाती लगती है कहानी इसलिए चलेगी नहीं. हमने कहा कि अच्छी है, हिंदी में ऐसी शोर्ट स्टोरी कम आती है. जो कहीं ऐसी दस बीस हो तो इनकी किताब आनी चाहिए. जिन्होंने लिखी थी वो अड़ गए! कहने लगे, हरगिज़ नहीं! दस लोग भी ना पढ़ें ऐसी कहानी. ये तो कामरेडों के खिलाफ जाती है!

हम दोनों को ये तो पता था कि अगर आपकी विचारधारा से लाली ना टपकती हो तो आप हिंदी जगत में लेखक नहीं होते. मगर हमें कहानी पसंद थी, तो हम अड़े रहे कि ये लोगों को पसंद आएगी. आखिर शर्त लगी कि अगर दस लोगों को भी कहानी पसंद आ गई तो छोटी कहानियों की पूरी किताब लिखनी होगी. मेरी जीत का रिकॉर्ड पता होने के बावजूद पंकज मान गए. शर्त जीतने के बाद जब डायरियों को खंगाला तो पता चला ऐसी दो दर्जन कहानियां तो पंकज ने पहले ही लिख रखी हैं! अब मुश्किल काम शुरू हुआ. हम दोनों को पता नहीं था कि किताबें प्रकाशित कैसे की जाती हैं.

ना तो किसी प्रकाशक का नाम जानते थे, ना किसी का फ़ोन नंबर या मेल आई.डी. जो किसी से संपर्क साधा जाए! खैर ये ज़िम्मा तो पंकज का था, हमें कौन सी मेहनत करनी थी? तो जनाब कई प्रकाशकों के पास घूमने के बाद आखिर पंकज कुमार की कहानियों की किताब “कराहता सच”, बोधि प्रकाशन से किताब की शक्ल में आ गई है. किताब का आवरण चित्र कुँअर रविन्द्र का है. इस बार दिल्ली के पुस्तक मेले में पंकज कुमार की “कराहता सच” मौजूद होगी.

जिस कहानी पर शर्त लगी थी वो थी “आज शहर बंद है”. हमने दो साल से नोट्स में सहेज रखी है. ओह हां, शर्त घोड़ों पर लगाते हैं कठोर… किस्सों पर नहीं…

कहानी – आज शहर बंद है!!

नहीं नहीं आज नहीं, कल!

शहर कल बंद था. आज तो फिर से चहल पहल लौट आई है. कल जहाँ बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे, आज उन गलियों में फिर से पैर रखने की जगह नहीं है. सुस्त रफ़्तार से चलने वाली ट्राम सहम सहम कर फिर से चल पड़ी है, ना जी, इन्हे बंद का डर नहीं, इन ट्रामों को शहर के तेज रफ़्तार गाड़ियों के बीच अपनी पटरियों को ढूँढना पड़ता है.

इनकी घंटियों की मंद आवाज़ कोई नहीं सुनता. थोड़ा डर कर, सहम कर, कतरा कर, बस चली जा रही है. एक जमाना था जब कलकत्ता के बग्घियों के बीच ये ट्राम इतराया करती थी. हावड़ा स्टेशन के मेन गेट से लोगों का बहाव सुबह से जारी है, कभी ठीक से देखियेगा उन सीढ़ियों को, लोग चलते नहीं बहते दिखेंगे. बहाव की रफ़्तार थोड़ी तेज है आज, थोड़ी भूख ने, थोड़ी खीज ने, बीबी की फटकार ने स्पीड बढ़ा दी है.

रेल के अंदर पूरा पूरा बाजार लगता है, आज मुढ़ी झाल, नींबू, चाह और मूंगफली बेचने वाले छोकरों के लिए अच्छा दिन नहीं है, बंद के अगले दिन इनका धंधा हो नहीं पाता, रोज कमाने खाने वालों की जेब खाली रहती है. बंद का दिन तो गया ही, अगला दिन भी चौपट. शाम में शायद फिर से धंधा चमकेगा.

साल्टलेक, साल्टलेक, साल्टलेक, साल्टलेक…
बिधाननगर उल्टाडांगा,बिधाननगर उल्टाडांगा,बिधाननगर उल्टाडांगा . . . .
हावड़ा जाबे दादा?
एस्प्लेनेड, धरमतल्ला…….
गरिया?
ना ना गरिया जाबे ना, ई टा गरिया स्टेशन जाबे.
बसें सवारियों को दोनों गेट से बस उगल ही देना चाहती हैं, पूरी रफ़्तार से.

आज बंद नहीं है कुछ भी, बस एक दुकान बंद है, कल आधी शटर खुली थी, आज पूरी बंद है.

थी ही बदमिजाज ये दुकान, कमबख्त चालीस साल से बंद नहीं हुई थी. कैसे बंद करता इस दुकान को, पता नहीं कितने बच्चे भूखे रह जाते! कॉलेज के बच्चे, जो आस पास के लॉज और हॉस्टल में रहते हैं, सीए की तैयारी वाले सारे बच्चे दिन में दो बार जरूर आते हैं, उनका वक़्त कीमती है, बड़ी कठिन पढ़ाई करते हैं वो, कुछ को तो आठ आठ साल से खिला रहा हूँ, सीए वालों को चाय उनके कमरों में ही भिजवा देता हूँ. कल नहीं भिजवायी थी, बस दुकान खुली रखी थी, ताकि बच्चें भूखे ना रहें.

ऐसा नहीं केवल ये बच्चे ही आते हैं, रात को मजदूर भी आते हैं और साल्टलेक के इंजीनियर भी, हमारे हाथ का बना चिकन इन्हे खूब भाता है, कई बार इन्होंने मुझसे इस चिकन डिश का नाम पूछा, इन्हे दो प्याजा, बटर मसाला, कड़ाई चिकन, चिली चिकन जैसा कुछ दमदार नाम चाहिए था, हमारे पास था नहीं.

बाद में इन्होंने खुद से नाम इज़ाद किया था, नाम रखा था “मस्त चिकन”, अच्छा ही था. कामरेड भी आते हैं, अक्सर देर रात, इन्हे पता है, जब बच्चे दुकान में रहते हैं उस वक्त, मुझे सिगरेट का धुँआ पसंद नहीं . ये भी कॉलेज के जमाने से यहाँ आ रहे हैं, इनके साथ वाले पढ़कर चले गए, इन्हे समाज की फ़िक्र है, इसलिए इन्होने यही रहना अच्छा समझा.

शुरू शुरू में इनकी बातें अच्छी लगती थी, मार्क्स, लेनिन, क्रांति, परिवर्तन, बराबरी, भागीदारी की बात होती थी, फिर हताश दिखे कुछ दिन तक, और फिर, ढल गए शायद, बातें बदल गयी, अब मैं नहीं सुनता. अब बातें सिगरेट, दारू, गाँजा, चिलम की होती है. जब ये दुकान में होते हैं, पूरी दुकान सिगरेट के धुएँ से भर जाती है, थोड़ा लिहाज है, अबतक यहाँ दारू लेकर नहीं आये.

परसों, हाँ परसों ही, शाम सात बजे खबर आई थी, एक बड़ा कॉमरेड मर गया. काफी दिनों से बीमार था. बड़ा कॉमरेड, बूढ़ा कॉमरेड, बीमार कॉमरेड, मर गया कॉमरेड!! गरीबों का माई बाप कॉमरेड, पिछले साल बिधान नगर स्लम में आग लग गयी थी, लगभग दो एकड़ जमीन पर साढ़े सात हजार लोग रहते हैं वहां, बच्चों को भी जोड़ दे तो ग्यारह हजार लोग.

आग लगने से सब कुछ तबाह हो गया, कुछ नहीं बचा, हर तरफ बस राख ही राख, जनवरी की भीषण ठण्ड, इस कॉमरेड ने कुल ढेड़ सौ कम्बल बंटवायी थी, अगले दिन कम्बल बांटते कॉमरेड की फोटो अखबार में छपी थी पहले पेज पर, अंदर के पन्नों पर जला हुआ बिधान नगर था, ठिठुरते बच्चे थे, रोती औरतें थी, बारिश की बूँदें थी, आंसू की बूँदें थी. कॉमरेड दुखी था, लेकिन फोटो खिंचवाने के लिए मुस्कराना पड़ता है ना, वो भी अखबार का फोटो, मुस्कराना मजबूरी थी.

कॉमरेड बहुत बढिया गाता था, कॉलेज में गाना सुना था उसका! एकला चोलो रे, तुमी एकला चोलो रे . . . इसी अकेला चलने के कारण कॉमरेड बीमार हो गए, सोना गाछी में इनको अकेला जाने का चस्का था, विरोधी पार्टी ने पकड़ लिया. दूसरे दिन कॉमरेड बीमार, हस्पताल में भरती! दिल का दौरा पड़ गया, छाती में तेज दर्द है, लोग सोनागाछी भूल गए, तेज दर्द याद रहा, दिल का दौरा . . . मसीहा को दिल का दौरा, सहानुभूति . . . लोग भूल गए, लेकिन पार्टी नहीं भूली, कॉमरेड किनारे कर दिए गये, दिल में सच्चा वाला दर्द उठने लगा, इमेज गया, सीट गयी, पार्टी में पोजीशन भी गया, सोनागाछी वाली नेपालन, वो भी! नयी आई थी, अभी तो . . . ठीक से . . .
सोनागाछी वाले कॉमरेड मर गए, कॉमरेड मर गये.

बंद बंद बंद बंद बंद बंद! कल सबकुछ बंद, अरे नहीं साल्टलेक नहीं, आईटी नहीं, ना ना ना ना, हाई कमांड नाराज़ हो जाएगा, चंदा वहीँ से आता है, मोटा चंदा. साल्टलेक बंद तो दारू, मटन, चिकन सब बंद . कलकत्ता में ज्यादा साथी चाहिये, मालदह, दुर्गापुर, मिदनापुर,खड़गपुर सब जगह से कॉमरेड आ रहे हैं. सिलीगुड़ी से नहीं आएंगे, टाइम ज्यादा लगेगा, और सिलीगुड़ी भी बड़ा शहर है, वहां भी छोकरे चाहिए. आये फूटबाल नहीं बेसबॉल बोक्का, हॉकी सटीक, विकेट, बैट सब जमा कर लो, बहुत काम करना है, बंद सक्सेसफुल होना ही चाहिए. वो बिहारी पाड़ा से लड़के आये! इनको हमेशा पैसे पहले चाहिए, एक बार बंद हो जाय, फिर देखता हूँ इनको भी!

कई घरों के चूल्हे भी बंद थे, भात उबालने के लिए चावल लगता है. रोगियों की दवाइयाँ बंद थी. शादी, श्राद्ध, संस्कार बंद था. इंटरव्यू बंद था, दाखिला बंद था, हस्पताल में कराहना बंद था, चीटियों की तरह रेंगना बंद था, आज भूख बंद थी, मरना बंद था, रोना बंद था, घडी बंद थी. शहर, बाजार, समाज सब बंद था. बंद था ये सब कुछ. मसीहा कॉमरेड, बूढ़ा कॉमरेड, बीमार कॉमरेड मर गया. सरेआम, कोई भूख की नुमाइश नहीं कर सकता, चुप, बस चुप!!, सड़क खाली, नहीं वीरान!! कोई नहीं मर सकता आज, जब तक हम उनको मार ना दें!!

अरे ई शाल्ला भिखारी कहाँ से निकल गया आज, अच्छा, दिखाई नहीं देता …. आज जाओ यहाँ से, बंद है बंद, कोई नहीं है सड़क पर, कौन देगा तुमको भीख.

एफएम स्टेशन ने अपने ऑफिस साल्टलेक में बना रखे हैं, रेडियो गुलज़ार रहती है बंद के दिन, बस ट्रैफिक अपडेट नहीं सुनाते आज के दिन, कोई पागल ये सुन कर कि कोलकाता की सड़कों पर जाम नहीं है, बाहर निकल गया तो, बेकार अपना सर फोड़वाएगा!!

मेरी दुकान का शटर आधा खुला था, बच्चे चुपके से आ, खा कर निकल रहे थे, कुछ ने बस पार्सल ले लिया, बंद का डर, पेट छोड़, बाकी सबको एकही जैसी होती है. आज “मस्त चिकन ” नहीं थी, मांस, मछली कुछ भी नहीं था, बस पेट भरने लायक भात, दाल, आलू भाजा बस!! कॉमरेड आये थे, वहीँ जो रोज आते थे, कुछ नहीं कहा, देखा और चले गए, आज इनको बड़ी दावत मिलने वाली थी, भात दाल आलूभाजा!!! ये आज नहीं आएंगे.

लेकिन आज दुकान का शटर पूरा बंद है!!

साल्टलेक के अलावा एक और जगह है, जो बंद नहीं थी, सोनागाछी . . . . सोनागाछी वाले कॉमरेड!!
सोनागाछी वैसे भी रात में गुलजार होती है, रात में सँवरती है, रात में खुलती है, रात में जलती है, बुझती है, किसी को चढ़ती है, किसी की उतरती है. बंद की रात सारे कॉमरेड वहां जमा थे, दारु और मांस की दोनों किस्में, कच्चा मांस और पका भुना मांस. बंद कामयाब हुआ था. बड़ा कॉमरेड, बड़ा बंद. बंद वाले कॉमरेड.

ग्यारह बजे कॉमरेडों के दल दुकान पर आये थे, आज खाने नहीं आये थे, दाल भात आलू भाजा …. छिः!! गोस्त चाहिए, खून के साथ, बच्चे सब भाग गए जल्दी से, शुक्र है!!, शुक्र है!!

आधा शटर, शाल्ला . . . . …
दुकान खुली रखेगा …….

बड़ा कॉमरेड मर गया और एक भी मौत नहीं, कोई शाल्ला सड़क पर आया ही नहीं, जलाने के लिए बस भी डिपो से लानी पड़ी.

कुछ डंडे, कुछ लातें, सर, आँख, नाक.

मैं सिंधी था, बंटवारे के समय पाकिस्तान से आया था, भूख मालूम थी, इसलिये दुकान खोल दी, कि बच्चे भूखे ना रहें!
इन डंडो और लातों के पीछे “मस्त चिकन ” की मस्ती भी थी शायद, बगल के होटल वाले का ठंडा धंधा, इनकी गरम  जेबें, एक कामयाब कॉमरेड बनने की चाह.

दुकान की शटर नहीं खुलेंगी, कभी नहीं, मेरी मौत पर भी कुछ बंद है, हमेशा लिये.

बच्चे आ आ कर वापस जा रहे हैं, बंद शटर को निराशा से देख रहे हैं, उन्हें नहीं पता कल क्या हुआ! अखबार में बस इतनी खबर आई है कि बंद के दौरान अज्ञात हमलावरों के हमले से एक वृद्ध की जान गयी, लाश की शिनाख्त नहीं हो पायी है, कॉमरेडों ने इसे विरोधी दल की साज़िश बताया है.

– पंकज कुमार

पंकज कुमार की कहानियों की किताब “कराहता सच”, बोधि प्रकाशन से किताब की शक्ल में आ गई है. किताब का आवरण चित्र कुँअर रविन्द्र का है. इस बार दिल्ली के पुस्तक मेले में पंकज कुमार की “कराहता सच” मौजूद होगी.

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