भारत का एक उलझा हुआ प्रश्न है, जिससे सभी लोग त्रस्त हैं, वह है ‘जाति’. ऊपर से दुहाई देते हैं कि यह तो भगवान ने बनाया है. कहते हैं ऐसा गीता में लिखा है, जबकि एक भी श्लोक न तो गीता में है और न किसी शास्त्र में, जो जातियों का विभाजन करता हो, मनुष्य को बाँटता हो.
आज हम सब इस प्रश्न पर विचार करेंगे कि वर्ण है क्या? क्या भगवान ने बँटवारा किया है? वर्ण के विषय में चारों वेदों में केवल एक ऋचा है, स्मृतियों में इसी की चर्चा है और गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने इस पर पूरा जोर दिया है. आइए देखें कि शास्त्र कहते क्या हैं और हमने-आपने मान क्या लिया?
पहले सभी शास्त्र मौखिक थे. सर्वप्रथम कृष्ण द्वैपायन व्यास ने उन्हें लिपिबद्ध किया, उन महर्षि ने चारों वेद, छः शास्त्र, भागवत् महापुराण, महाभारत- इन सबका संकलन किया.
अंत में उन्होंने विचार किया कि मैंने इतना लिख डाला है कि पढ़ते-पढ़ते मनुष्य का एक-दो जन्म ही बीत जाय. अतः इन सबमें सर्वोपरि शास्त्र कौन है? स्वयं उन्होंने निर्णय दिया –
गीता सुगीता कर्त्तव्या किमन्यै शास्त्रविस्तरै:।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता॥
(भीष्म पर्व ४३/१)
गीता भली प्रकार हृदय में मनन करके धारण करने योग्य है जो स्वयं योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण के श्रीमुख से निकली है. अन्य शास्त्र के विस्तार में जाने की क्या आवश्यकता? अतः गीता स्वयं में एक पूर्ण शास्त्र है. ‘इति गुह्यतमं शास्त्रम्’ (गीता १५/२०), कह कर भगवान ने इसे शास्त्र की संज्ञा दी है.
परमात्म-धर्म का शुद्ध शास्त्र गीता है. गीता सार्वभौम है. विश्व के प्रत्येक मानव का कोई निर्दोष शास्त्र है – तो ‘गीता’ ही है.
अब गीता कहती क्या है? कोई व्यापारी गीता उठाता है तो कहता है, ‘व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन’ (२/४१) गीता कहती है अपना-अपना व्यवसाय करो. क्षत्रियों के लिए कहती है युद्ध करो. राजनीतिज्ञ कहते हैं- लाभ के लिए विदेशी कपड़ा बेचते हैं तो आप सकाम कर्मयोगी हैं. देश का कपड़ा देश में बेचें तो आप निष्काम कर्मयोगी हैं. कर्मयोग माने धंधा.
गीता पर लाखों विद्वान व्याख्यान दिया करते हैं, हज़ारों टीकाएँ तो केवल संस्कृत में हैं, लेकिन आज तक कोई यह नहीं बता सका कि गीता ‘कर्म’ किसे कहती हैं?
जिसको आप कर्म कहते हैं, गीता उसे कुकर्म और अचेत कर्म कहती है. गीता पढ़कर हम जानते हैं कि युद्ध हुआ था, किन्तु गीता में एक भी श्लोक ऐसा नहीं जो मार-काट का समर्थन करता हो.
ऐसे ही पन्द्रह-पचीस प्रश्न हैं… जो हैं पूरब… और हम-आप खोजा करते हैं पश्चिम. हैं हृदय की योग्यता, देखते हैं बाहर. उन्हीं में से एक प्रश्न है- ‘वर्ण-व्यवस्था.’
जिस जाति प्रथा को आज तक वर्ण समझा गया, गीता उसे वर्ण कहती ही नहीं.
गीता के अध्याय ४/१३ में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं’- अर्जुन! चार वर्णों की सृष्टि मैंने की.
विचार कीजिए, क्या सृष्टि का अर्थ केवल भारत होता है? भारत के बाहर भी क्या ये चारों वर्ण हैं? चार वर्ण को भगवान ने बनाया तो विश्व की अन्य जातियों को किसने पैदा किया? भगवान के कथन का अभिप्राय क्या है?
मद्रास में सामूहिक धर्म-परिवर्तन की एक घटना हुई. हरिजन अपना धर्म बदलकर मुसलमान हो गये. लोग धर्माचार्यों के पास गये. निवेदन किया कि ‘भगवन् कुछ कीजिए.’
उन्होंने निर्णय दिया- ‘वर्ण तो भगवान का बनाया हुआ है. मनुष्य को बदलने का कोई अधिकार नहीं है. हम कोई व्यवस्था नहीं दे सकते.’
भगवान की व्यवस्था को तो बदलना नहीं चाहिए था, किन्तु लोग बदल रहे हैं. एक-दो नहीं, करोड़ों में बदलते जा रहे हैं. मात्र बारह हज़ार मुसलमान बाहर से भारत में आये थे और देश के विभाजन के पश्चात् भी भारत में उन्तीस करोड़ के लगभग हो गये. जन्मना बढ़ते तो बारह हज़ार से बढ़कर लाख हो जाते, करोड़ में हो जाते. ये उन्तीस करोड़ आये कहाँ से?
ये सब आपके ही सगे भाई हैं. आपने ही तो धक्का देकर इन्हें अपने से अलग कर दिया. चार वर्ण की ईश्वरीय आज्ञा को कम से कम आपने तो माना होता. चार के स्थान पर असंख्य जातियों-उपजातियों की सृष्टि कहाँ से हो गई?
धर्म-परिवर्तन की उपर्युक्त घटना पर दूसरे आचार्य ने कहा था कि यदि वर्ण बदले जायेंगे तो सनातन धर्म नष्ट हो जायेगा, वर्ण व्यवस्था तो हमारा सनातन धर्म है कि तुम शूद्र बने रहो, हम वैश्य बने रहें। तुम क्षत्रिय रहो, हम ब्राह्मण रहें. यदि शूद्र न रहा तो सनातन धर्म नहीं रहेगा क्योंकि उसका एक अंग टूट जायेगा.
तीसरे आचार्य ने आशंका व्यक्त की कि धर्म-परिवर्तन से उनकी संख्या बढ़ जायेगी. वे पुनः अलग राष्ट्र की माँग करेंगे. देश की अखंडता को खतरा है इसलिए सरकार को धर्म-परिवर्तन पर रोक लगाना चाहिए.
अब सरकार तो धर्म-निरपेक्ष है. उसे तो बहुमत चाहिए. आपसे मिले या उनसे. अलग राष्ट्र की माँग वे क्यों करेंगे? माँग तो अल्पसंख्यक करते हैं और संख्या आपकी घटेगी.
वस्तुतः सनातन धर्म की गठरी फट गयी है. दो-दो दाना चावल गिरता जा रहा है. यदि इन भ्रान्तियों का निवारण नहीं किया गया तो एक समय ऐसा भी आयेगा कि गठरी बिल्कुल हल्की हो जायेगी.
क्रमश: 2
(महाकुम्भ के पर्व पर चंडीद्वीप हरिद्वार में दिनांक 8 अप्रेल 1986 ईस्वी की जनसभा में स्वामी श्री अड़गड़ानंदजी द्वारा वर्ण-व्यवस्था का रहस्योद्घाटन)
लोकहित में http://yatharthgeeta.com पर pdf वर्जन में नि:शुल्क उपलब्ध ‘शंका-समाधान’ से साभार. आदिशास्त्र ‘गीता’ की यथा-अर्थ सरल, सुबोध व्याख्या ‘यथार्थ गीता’ भी pdf वर्जन में नि:शुल्क उपलब्ध है.