जैसे मनुष्य का स्वभाव, मनुष्यों के समूह की संस्कृति होती है उसी तरह किसी भी राष्ट्र की चिति भी होती है. इसमें सदैव से जोड़-घटाव भी चलता रहता है. इसी के बदलने के कारण राष्ट्रांतरण होता है. धर्मांतरण मूलतः इसी समस्या का एक उपकरण है. इस्लाम का सीधा-सीधा प्रयास, प्रहार इसी चिति बदलने के लिये होता है.
बांग्ला देश और उसकी अस्मिता बंगाली है या वो अरबी उत्स की है ये प्रश्न बांग्ला देश को ही नहीं भारत के बंगालियों और उससे लगते असम के लोगों के मानस में दशकों से उथल-पुथल मचाये हुए है.
मेरे देखे ये विषय सदियों से सोची-चली आ रही एक वृहत्तर कुटिल योजना का अंग है और लम्बे विमर्श का है. अतः आपसे लगातार 3 लेखों के माध्यम से बात करना चाहता हूँ.
इसकी शुरूआत इस्लाम के प्रवर्तक मुहम्मद जी के मक्का से निष्कासन और मदीना स्थापित होने से हुई थी. मदीना जाने के बाद मुहम्मद जी और तब तक धर्मान्तरित हो पाये मुट्ठी भर मुसलमानों के हाथ मदीना की रियासत लग गयी.
स्थानीय कबीलों को एक-एक कर जिहाद यानी माले-गनीमत की जायज़ लूट, जिसका हिस्सा लौंडियाँ-माल था के नाम पर, जिहाद में मारे जाने पर जन्नत में 72 कुंवारी हूरों, शराब पिलाने तथा अन्य काम आने वाले कमसिन लड़कों-गिलमां के नाम पर और ऐसे ही बर्बर-जंगली अरबों को लालायित करने वाले भौतिक, पारलौकिक प्रलोभनों से छोटा सा इस्लामिक राज्य धीरे-धीरे स्थापित होने लगा. शनैः शनैः विस्तार की भूख बढ़ने लगी.
इसके लिये बड़े पैमाने पर सैनिक अभियान चाहिए थे. एक लाख लोगों की सेना के प्रयाण के लिए केवल एक लाख लोग ही नहीं चाहिए बल्कि उनकी सुचारू व्यवस्था के लिये दस करोड़ किसानों का उत्पादन, भोजन, पशुओं का चारा, सैनिकों के वेतन के लिए उपज की मालगुज़ारी इत्यादि बड़े पैमाने पर सुदृढ़ व्यवस्थायें चाहिये.
मगर अरब में भोजन-पानी तो बहुत ही कम था. वर्षा कम होने से धरती उर्वर भी नहीं थी. इसलिये इन गिरोहों ने अपनी विचारधारा के विस्तार के लिये योरोप, अफ्रीका, ईरान की दिशा पकड़ी.
इन सभी क्षेत्रों में इस्लाम और स्थानीय शक्तियों में सदियों संघर्ष चलता रहा. स्थानीय लोगों को अपने साथ जोड़ने, उनकी आस्थाओं में पूर्णरूपेण बदलाव करने के बाद इन आक्रमणकारियों और मतांतरित लोगों ने स्थानीय आस्थाओं पर प्रहार किये. पारसियों के अग्नि मंदिर, चर्च, बौद्ध विहार ध्वस्त किये.
अपने विचार से असहमत व्यक्ति, समाज के लिये अत्यंत हिंसक विचारधारा के फैलाव, बढ़वार के लिये इन देशों से फिर भी पर्याप्त उत्पादन नहीं आ सकता था. केवल भारत ही ऐसा देश था जहाँ से सैनिकों के साथ-साथ ये सारी व्यवस्थाएं भी संभव थीं. इसी लिये लम्बे समय से इन आसुरी शक्तियों का भारत को जीतने का लक्ष्य रहा है.
भूखे-नंगे, अभावग्रस्त-निर्धन लोगों के समाज के लिये हरा-भरा भारत, बरसात से भरी अन्न उगलती शस्य श्यामला धरती सदैव से सपना रही है. रेगिस्तानी क्षेत्रों के लोग घुमड़ते काले बादलों वाली मूसलाधार बरसात की धरती को, निर्जन पहाड़ी क्षेत्रों के लोग घाटियों की धरती को दिवास्वप्न समझते रहे हैं. उनके लिए मैदानी क्षेत्र और वो भी जहाँ तक दृष्टि जाये, क्षितिज तक हरा-भरा क्षेत्र अपने आस-पास तो दिखाई भी नहीं देता.
विश्व में छह ऋतुएँ किसी देश में क्या किसी महाद्वीप में भी नहीं होतीं. स्वाभाविक था कि उन लोगों के लिए भारत में आ कर बसना और उसे अपनी सर्वभक्षी विचारधारा के फैलाव की केंद्र भूमि बना पाना अत्यधिक संतोष का विषय था.
इन लफंगों ने ईरान के बाद भारत को पूरी तरह अपनी मुट्ठी में भींचने का सपना देखा. इसी सपने का नाम ग़ज़वा-ए-हिन्द यानी हिन्द को जीतना है.
भारत आज भी पर्याप्त बड़ा और शक्तिशाली है मगर उस समय का तो भारत बहुत ही बड़ा था. ऐसे किसी भी व्यक्ति की क्षमताओं की तो बात ही क्या उसकी चिंतन की सीमाओं से भी बड़ा और शक्तिशाली था.
अतः इस सपने को कार्य रूप में परिणत करने के लिये आवश्यक था कि भारत के समाज की चिंतन धारा को खंडित किया जाये. उसके अंतर्सूत्रों को तोड़ कर उसकी एकात्मता की माला के मोती बिखरा दिये जायें और इसमें सफलता मिलने पर उसके छोटे-छोटे टुकड़ों को एक-एक कर निगला जाये.
केंद्रीय भारत से थोड़ा दूर बसे शक, हूण इत्यादि क्षत्रिय लोग भारत के बारे में ऐसा सपना पाल रहे लोगों का मध्य एशिया में कचूमर निकालने पर तुल गये. पूज्य हिंदू सेनापति चंगेज खान, हलाकू खान, कुबलई खान की प्रचंड मार से मुस्लिम समाज त्राहि माम् त्राहि माम् करता हुआ भाग-भाग कर शांत क्षेत्र यानी भारत की केंद्रीय भूमि की ओर आया.
संभव है किसी मित्र को इन महान योद्धाओं के हिन्दू होने में संदेह हो अतः ऐसे मित्रों से निवेदन करूँगा कि किसी भी प्रतिष्ठित प्रकाशक की इन योद्धाओं पर पुस्तक खरीद लीजिये. पहले ही पृष्ठ पर भगवान महाकाल का चित्र दिखाई देगा. ये वही महाकाल की मूर्ति है जो नेपाल के हनुमान ढोका मंदिर के प्रांगण में लगी हुई है. भगवती दुर्गा के चित्र भी इन्हीं पुस्तकों में मिलेंगे. उनकी सेनाओं के ध्वज देखिये. उनके ध्वजों को त्रिशूल में पिरोया जाना ही वास्तविकता बता देगा.
यहाँ उस काल में भी कुछ मुस्लिम राजनैतिक नेतृत्व था मगर वो उन अर्थों में मुसलमान नहीं था जिन अर्थों में भारत आने वाले इन शरणार्थियों ने इस्लाम को देखा-पाया था.
असली इस्लामी विचार अर्थात काफ़िर वाजिबुल क़त्ल (अपने से भिन्न विश्वासी हत्या के पात्र हैं) क़त्ताल फ़ी सबीलिल्लाह, जिहाद फीसबीलिल्लाह (अल्लाह की राह में क़त्ल करो, अल्लाह के लिए जिहाद करो), बुतपरस्ती कुफ़्र है और कुफ्र को मिटाना प्रत्येक मुसलमान का कर्तव्य है, भारत में बड़े पैमाने पर नहीं हो पा रही थी.
इसका कारण भारत की ऊपरी भिन्नता के बावजूद अजस्र सांस्कृतिक अंतर्धारा थी. ये अंतर्धारा हमारे त्योहारों, हमारी संस्कार विधियों, हमारी नदियों-पर्वतों-आस्था केन्द्रों में सभी भारतीयों की अटूट आस्था में परिलक्षित हो रही थी. ये वैचारिक मामला था अतः इससे निबटने, इसे तोड़ने के लिये वैचारिक आधार आवश्यक था. यही वो प्रस्थान बिंदु है जहाँ से हमारी ये यात्रा शुरू होती है.
इसे समाप्त करने के लिये भारतीयों का अपने मूल से टूटना, उनका मतांतरण, उनमें अपनी जड़ों के प्रति अनास्था आवश्यक थी. भारत का मुस्लिम नेतृत्व इस काम में सदियों से लगा हुआ है. गजवा-ए-हिंद को पूरा करने में सदियों से लगा हुआ है और काफ़ी सफल भी हुआ है.
सांस्कृतिक भारत के अंग ईरान, अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश जिस वैचारिक कलुष के कारण हमसे अलग हुए वो इसी मानसिकता की देन हैं.
भारत के मुस्लिम मानसिकता के अग्रणी शेख़ अहमद सरहिंदी, शाह वलीउल्लाह, शाह अब्दुल अज़ीज़, शाह अब्दुल क़ादिर, शाह रफ़ीउद्दीन, दादू मियां, तीतू मीर, सैयद अहमद बरेलवी, हाजी शरीयतुल्लाह, सर सय्यद अहमद ख़ान, सर इक़बाल, मौलाना मुहम्मद अली जौहर, मौलाना शौकत अली इत्यादि के लिए भारत केवल मुस्लिम अधीनता का ही भारत होना चाहिये. उनकी राष्ट्रीयता केवल और केवल अरबी इस्लामी विस्तारवाद का उपकरण और उसको सबल बनाने का यंत्र थी… मगर ये एक पक्ष है.
राष्ट्रीयता के घोर विरोधी इस अरबी साम्राज्यवाद के विरोध में इस सारे क्षेत्र में आज मुस्लिम समाज भी खड़ा है. वो अफ़ग़ानिस्तान में पूरी तरह मुसलमान हो जाने के बाद भी अपने बौद्ध पूर्वजों के स्तूपों की साज-संभार करता है और अपने पूर्वजों की परम्पराओं को न्यूनाधिक मानता है.
बिन लादेन और तालिबान, जो पाकिस्तानी सेना का ही रूप था, के काल से पहले पठानों ने अपने देश में कभी अरबी मानसिकता नहीं चलने दी.
पाकिस्तान के प्रमुख नगर लाहौर में मुल्ला पार्टी की वार्षिक कांय-कांय के बाद भी हर साल आज भी बसंत का त्यौहार मनाया जाता है. उस दिन ग़ुलाम पंजाब के आसमान में लाखों पतंगें उड़ाई जाती हैं.
सिंधी मुसलमान महाराज दाहर को अब तो विशेष रूप से बढ़-चढ़ कर अपना पुरखा बताता है. महाराज दाहर की जयंती को प्रचंड आंदोलन कर सरकारी स्तर पर मनवाता है और मुहम्मद बिन कासिम को हत्यारा आक्रमणकारी कहता है.
बांग्ला देश में सरस्वती पूजा का आग्रह करता है, उस दिन विशेष रूप से पीले कपड़े पहनता है. इस्लाम के मूर्तिपूजा के विरोध बाद भी काली पूजा में धूमधाम से सम्मिलित होता है. रवीन्द्र नाथ ठाकुर का लिखा आमार शोनार बांग्ला अपना राष्ट्र-गीत बनाता है.
अफगानिस्तान के शायर खुश हाल खां ‘खटक’ इस्लामी बंधुता को कोसते हैं और अपने पठान मूल का प्रबल आग्रह करते हैं. उन्हें अफगानिस्तान में राष्ट्र कवि जैसी ही मान्यता प्राप्त है. असदुल्लाह खां ‘ग़ालिब’ अपने काव्य में भारत की परम्परायें अपनाते हैं.
जला है जिस्म जहाँ, दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तजू क्या है
ऐसे ही अपनी जड़ों के प्रति प्रबल आग्रही बंगला भाषा के कवि क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम हैं. 24 मई 1899 को चुरलिया में जन्मे और 29 अगस्त 1976 को ढाका में पंचतत्व में विलीन हुए नज़रुल इस्लाम ने मस्जिद में बांग देने का कार्य भी किया मगर जन्मजात विद्रोही नज़रुल इस्लाम अरबी साम्राज्यवाद के खिलाफ बंगाली चेतना की अभिव्यक्ति बन गए.
भारत के अंतर्सूत्रों को तोड़ देने की गजवा-ए-हिन्द की योजना को भारी पराजय 1971 के पाकिस्तान के विभाजन से मिली. पूर्वी तथा पश्चिमी बंगाल में धर्मांतरण का काम तो हुआ मगर बंगाल को अरबी दासता के जुए में जोता जाना स्वीकार नहीं था. उसे बंगाली इस्लाम चाहिए था.
जिस ढाका के नवाब के सक्रिय सहयोग से 1907 में मुस्लिम लीग का जन्म हुआ उसी ढाका में मुल्ला पार्टी के सबसे बड़े चिंतक, विचारक, लेखक मौलाना मौदूदी को ढाका में जूतों के हार पहनाये गए.
अपने नेतृत्व के बहकावे में आ कर भारत का विभाजन मांगने-स्वीकारने वाले पूर्वी पाकिस्तान ने बंटवारे के केवल चौबीस वर्ष बाद अरबी दासता को अस्वीकार कर दिया. बंगाली समाज से उसकी जड़ों को काट देने उसे अरबी बनाने का हर प्रयास लगभग असफल कर दिया गया.
अपनी जड़ों से जुड़े रहने की ललक ने 1971 में पाकिस्तान का साथ देने वाले, बंगालियों का नरसंहार करने, हत्याओं की योजनाओं में भागीदार लोगों को फांसी दिलानी शुरू कर दी है. बांग्ला देश के निवासियों का अपनी जड़ों से प्रेम, अपनी संस्कृति से लगाव, अपने राष्ट्र के लिये हुमक, स्तुत्य है.
इस छुपे साम्राज्यवाद के दो ही हल हैं. या तो इस राष्ट्र विरोधी विचारधारा को प्रारम्भ में ही दबोच लिया जाये या वैचारिक स्तर पर पराजित कर वापस धर्मान्तरण किया जाये अन्यथा इसके इलाज के लिए ब्रिटेन वाला काल्पनिक उपाय ढूंढना पड़ेगा.
कहा जाता है कुछ समय पहले लंदन में कबूतरों की भरमार हो गयी थी. हर मकान, हर दुकान, हर गुम्बद, हर लैम्प पोस्ट, हर छत पर सैकड़ों की तादाद में कबूतर दिखाई देने लगे थे. सारे फुटपाथ, गलियारे, सड़कें कबूतरों की बीट से पट गयी थीं.
दैनिक रूप से गन्दगी इतनी फैलती थी कि खिड़कियाँ खोलना असंभव था. लोगों को कहीं निकलना होता था तो छतरी लगा कर निकलना पड़ता था. आकश में हर समय लाखों कबूतर मंडराते रहते थे.
तंग आ कर लन्दन के मेयर ने इस समस्या के हल के लिये विज्ञापन दिए. जिसमें कहा गया था कि ब्रिटेन की आर्थिक अवस्था इस समय योरोप की ख़स्ता अर्थव्यवस्था के कारण डांवाडोल है अतः कोई सस्ता उपाय सुझाइये.
एक साहब ने उनके कार्यालय में आ कर कहा मैं इस समस्या का मुफ़्त में समाधान कर दूंगा. मेरी बस एक शर्त है कि अगर आप मुझसे कुछ पूछना चाहेंगे तो आपको दस करोड़ पौंड देने होंगे. मेयर राज़ी हो गये.
अगले दिन दस बजे का समय तय हुआ. वो सज्जन सुब्ह मुख्य चौक में आये. इस समस्या का हल देखने के लिए मेयर सहित प्रधानमंत्री, अन्य गणमान्य लोग भी हजारों की संख्या में वहां पहुंची जनता के साथ उपस्थित थे.
उन सज्जन ने अपने साथ लाये एक पिंजड़े से कपड़ा उतारा. पिंजड़े से एक नीले रंग का कबूतर निकाला और उसे आसमान में उड़ा दिया. नीले कबूतर के आसमान में पहुंचते ही लन्दन की हर भवन की छत पर बैठे कबूतर तुरंत उसके चारों और उड़ कर इकठ्ठा होने लगे.
अचानक उस नीले कबूतर ने आसमान में एक दिशा पकड़ी. पीछे-पीछे सारे कबूतर लग लिये. थोड़ी देर में लन्दन से सारे कबूतर उड़ते हुए निकल गये और सारा शहर कबूतरों से ख़ाली हो गया.
वो सज्जन अपने घर की दिशा में मुड़े और वापस चलने लगे. प्रधानमंत्री भागते हुए उनके पास पहुंचे और बोले, ‘कृपया चल कर दस करोड़ पौंड का चैक अभी ले लीजिये और बताइये क्या आपके या किसी के पास नीला मुसलमान भी है?’