‘खुदा के लिये’ ‘बोल’ : किताबें बदली नहीं जानी चाहिये पर लाज़िम है समय के अनुसार बदलती व्याख्या

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बॉलीवुड के लोग चाहे अपने बड़े फिल्मकार होने के जितने दावे कर लें पर विषय चयन में वो पाकिस्तानी फिल्मकारों के पासंग भी बैठने लायक नहीं हैं. शोयब मंसूर की फिल्म ‘खुदा के लिये’ या ‘बोल’ इसके उदाहरण हैं. पाकिस्तान की दुनिया में जो छवि बन चुकी है उसे देखते हुए कोई ये मान ही नहीं सकता कि वहां कोई फिल्मकार ऐसा हो सकता है जो इस्लाम के उस चेहरे पर रोशनी डालने की हिमाकत करे जो कट्टरपंथियों को बेहद नागवार गुजरती है.

मजहबी किताबों का विरोध किये बिना और नबी की उन्हीं हदीसों की सही व्याख्या कर कैसे रास्ते निकाले जा सकतें हैं, इसे शोयब मंसूर ने बेहतरीन तरीके से समझाया है. बेटे की चाहत में बेटियाँ पैदा करते चले जा रहे एक मौलाना के परिवार की कहानी है ‘बोल’ में.

मजहबी जंजीरों की जकड़न उस मौलाना की एक तलाकशुदा बेटी को बगावत कर मजबूर कर देती है. मौलाना जिन हदीसों की जहालत भरी व्याख्या करता है, बेटी उसी हदीस से बेहतरी की राह निकाल कर मौलाना को खामोश कर देती है. मसलन नबी की एक हदीस जिसमें वो फर्मातें हैं कि “क़यामत के दिन मैं अपने उम्मतियों के सबसे बड़े होने पर फ़क्र करूँगा” को मौलाना इस रूप में समझता है कि नबी ने लगातार बच्चे पैदा करते चले जाने का आदेश दिया है और इसी आदेश को पूरा करने के लिये वो बच्चों की लाइन लगाता चला जाता है जबकि उसी हदीस की व्याख्या करते हुए बेटी अपने बाप से कहती हैं,

“खुदा के लिये रहम करें अब्बा, इतने बड़े पैगंबर ऐसी बात कैसे कह सकतें हैं ? उन्होंने ये जरूर कहा होगा कि मेरी उम्मत सबसे बड़ी होनी चाहिये पर बड़ी हो इज्जत में, रूतबे में, इल्म में और तरक्की में, वो ये कैसे कह सकतें हैं कि चाहे गधे हों पर सबसे बड़े हों, चाहे भूखे मर रहे हों पर सबसे ज्यादा हों ?”

[हम क्या सिखा रहे हैं अगली पीढ़ी को??]

किताबें बदली नहीं जानी चाहिये पर उसकी युगानुकुल व्याख्या लाजिम है, अन्यथा प्रकृति के ऊपर जब अनावश्यक बोझ बढ़ जाती है तो फिर वो अपना इंतकाम लेती है. आप अपनी चीजों की सार्थक और युगानुकूल व्याख्या करिये. सौ पुत्र का आशीर्वाद हमारे यहाँ भी दिया जाता था पर ये अनुभव करने के बाद कि कौरव संख्या में सौ थे परंतु आज कीर्ति पताका पांच पांडवों की लहरा रही है, इस आशीर्वाद को हमने “एक या दो मगर गुणी संतान” में बदल दिया और आज सौभाग्य से यही सोच इस महाद्वीप के उस खित्ते में भी जन्मने लगी है.

मुस्लिम समाज की चिंता करने का ढ़ोंग करने वाले कबीर खानों और करण जौहरों को शोयब मंसूर के पैरों के नीचे बैठकर सीखना चहिये कि अगर सच में फिल्मों के माध्यम से मुस्लिम समाज की बेहतरी तलाशनी है तो उसका तरीका क्या है.

फिलहाल इस लिंक पर जाकर आप ‘बोल’ फिल्म का ये छोटा सा अंश देखिये और ऊपर लिखी बातों की खुद तस्दीक कीजिये वर्ना पोस्ट पढ़ने की सार्थकता नहीं रहेगी.

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