गांधी की गोपनीय फ़ाइलें भी तो खोली जाएं : हत्या में थी अंग्रेज़ों की मौन स्वीकृति

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भारत सरकार ने नेताजी सुभाष चन्द्र बोस से संबंधित 100 गोपनीय फ़ाइलों को जन साधारण की जानकारी के लिए सार्वजनिक कर दिया. इन फ़ाइलों में यह स्पष्ट हो गया कि नेताजी को अंग्रेज़ों ने युद्ध अपराधी घोषित किया हुआ था और भारत की आज़ादी के समय सत्ता हस्तांतरण के समझौते के अन्तर्गत स्वतन्त्र भारत की ‘नेहरू सरकार ‘ द्वारा भी नेता जी को युद्ध अपराधी ही माना गया.

यह भी एक आश्चर्यजनक सत्य है कि देश के अंग्रेज़ों के चंगुल से मुक्त हो जाने के बाद भी नेहरू सरकार ने नेताजी के परिजनों की ठीक उसी तरह खुफियागिरी की थी जैसी कि अंग्रेज़ों के ज़माने मे उनकी हर गतिविधि पर नज़र रखी जाती थी. उनके पास आने जाने वालों का लेखा जोखा रखा जाता था, उनके पास आने वाली हर चिट्ठी को खोलकर पढ़ा जाता था, और यह भी सम्भव है कि यह पूरी जासूसी अंग्रेज़ों के इशारों पर की जा रही हो.

इससे यह प्रमाणित हो गया कि भारत को स्वतन्त्रता अंग्रेज़ों की “टर्म और कंडीशन्स” पर ही प्राप्त हुई है. आज़ादी पाने के लिए अंग्रेज़ों ने जो भी ज्ञात और अज्ञात शर्तें रखी होगी उन्हें मानना नेहरूजी की कांग्रेस सरकार को बन्धनकारी रहा होगा. यही कारण है कि आज़ादी के इतने साल बाद तक नेताजी से संबंधित फ़ाइलों को अति संवेदनशील और क्लासीफाइड श्रेणी में गोपनीय तरीक़े से रखा गया.

इन ऐतिहासिक फ़ाइलों के सार्वजनिकरण से एक नई सम्भावना ने जन्म ले लिया है. अब यह लगने लगा है कि महात्मा गांधी की हत्या कराने में भी जरूर अंग्रेज़ों का परोक्ष रूप से हाथ भी रहा होगा, अथवा अंग्रेज़ी हुक्मरानों की मौन स्वीकृति अवश्य रही होगी.

यह निष्कर्ष निकालने कि पहले 30 जनवरी 1948 को प्रकाशित न्यूयार्क टाइम्स (संलग्न चित्र) के समाचार को ध्यान से पढ़े. इसमें सबसे महत्वपूर्ण निम्न जानकारी प्रकाशित की गई थी.
1) गांधी जी पर गोडसे ने शाम 5 बजकर 15 मिनिट पर तीन गोलियाँ दाग़ी थी. गांधी जी को घटनास्थल से उठाकर कमरे में ले जाकर खटिया पर लेटाया गया. जहाँ उनके चिकित्सक ने 5 बजकर 40 मिनिट पर मृत्य घोषित कर दिया था. अर्थात गांधी जी गोलियाँ लगने के बाद 25 मिनिट तक जीवित रहे थे. इस दौरान उन्हें क्या चिकित्सा दी गई कोई नहीं जानता.

2) नाथूराम गोडसे को गोली चलाने के बाद सबसे पहले दोनों कंधों से पीछे से पकड़ने वाले व्यक्ति थे, अमेरिकन दूतावास के वाइस काउन्सिल “श्री टॉम रीनर” जो कि अमेरिका के लेन्कास्टर शहर मेसाच्यूट राज्य के निवासी थे तथा भारत में कुछ दिन पहले ही आए थे. टॉम रीनर ने ही गोडसे को पकड़ कर घटनास्थल पर मौजूद पुलिस को सौंपा था. रीनर की घटनास्थल पर मौजूदगी अनायास तो नहीं कही जा सकती है. विशेषकर जब नाथूराम गोडसे अंग्रेज़ सरकार की ख़ुपिया पुलिस की नज़र में वर्षों से था, और पुणे पुलिस के जासूस उसके पीछे ग्वालियर और दिल्ली मे मौजूद थे.

3) नाथूराम गोडसे के हाथ की पिस्तौल घटनास्थल पर मौजूद रॉयल इन्डियन एअरपोर्ट फ़ोर्स के फ़्लाइट सार्जेंट श्री डी आर सिंह ने छुड़ाई थी. पिस्तौल में 4 गोलियाँ बिना चली हुई थी, तथा 3 गोलियों में एक गांधी जी के सीने में तथा दो गोलियां उनके पेट में महज़ 2-3 फ़ुट की दूरी से दाग़ी गई थी. मरने के पूर्व गॉधीजी ने पीने का पानी भी माँगा था,और गोली लगते समय जब वे नीचे गिर पड़े तो “राम-राम’ बुदबुदाया था.

अर्थात गांधीजी मृत्यु के पूर्व पूरी तरह होश हवाश में रहे होगे. यह भी संदेहास्पद है कि बिरला हाऊस में आपातकालीन चिकित्सा व्यवस्था पर्याप्त मौजूद थी या नहीं. यहाँ यह उल्लेखनीय है कि गांधीजी की हत्या करने के पूर्व में भी चार प्रयास किये गए थे ऐसी परिस्थिति में गांधी जी की सुरक्षा व्यवस्था पर्याप्त न करना एक सोची समझी साज़िश भी हो सकती है.

4) गांधीजी को गोलियां शाम 5 बजकर 15 मिनिट पर मारी गई, उनकी मृत्यु 5 बजकर 40 मिनट पर हुई. मृत्यु स्थल से पंडित नेहरू की मौजूदगी का स्थान महज़ 7 मिनट की दूरी पर स्थित था, पर नेहरू मृत्यु स्थल पर शाम 6 बजे पहुँचे. जबकि उन्हे सब काम छोड़कर 5:30 बजे तक हर हालत में घटना स्थल पर मौजूद होना चाहिए था.

आधे घण्टे देर से आने के बाद पंडित नेहरू सीधे उस स्थान पर पहुँचे जहाँ गोली मारी गई थी. प० नेहरू अपनी चिरपरिचित स्टाइल में दोनो हाथ पीछे बाँधकर बापू के ख़ून की लकीर को निहारते हुए बापू की खटिया तक गए, फिर जल्दी से बाहर आकर उन्होंने बिरला हाऊस के बाहर फाटक पर आकर बाहर जमा भीड़ को सम्बोधित करके दूसरे दिन होने बाले बापू के दाह संस्कार के कार्यक्रम की घोषणा कर दी.

यह सब जानकारी और घटनाक्रम की समय तालिका न्यूयार्क टाइम्स के समाचार के आधार को अगर सही मान लिया जाए तो गांधी हत्याकाण्ड के दस्तावेज़ों में सबसे महत्वपूर्ण एफ०आई०आर० से उसका तालमेल बैठाना शंका उत्पन्न कर देता है.

नई दिल्ली के पुलिस थाना तुग़लक़ रोड में अपराध क्रमांक 68, दिनांक 30 जनवरी 1948 को गांधी हत्याकाण्ड की एफ आई आर दर्ज कराने का समय 5 बजकर 45 मिनिट लिखा गया है. जबकि गांधीजी की मृत्यु 5 बजकर 40 मिनिट पर हुई है. रिपोर्ट में थाने से घटना स्थल की दूरी दो फ़र्लांग लिखी गई है. अर्थात रिपोर्टकर्ता गांधीजी की मृत्यु के तुरन्त बाद पाँच मिनिट के भीतर ही दो फ़र्लांग चलकर एकदम एफ आई आर लिखा देता है. ज़रा गांधी जी की हत्या पर दर्ज एफ आई आर का बारीकी से अध्ययन करें.

“”अपराध क्रमांक.. 68
दिनांक…………. 30-1-1948
समय…………… 5:45 pm
शिकायत कर्ता….. श्री नन्दलाल मेहता पुत्र श्री नत्थूलाल मेहता, भारतीय, निवासी बिल्डिंग लाला
सूरजप्रसाद एम ब्लॉक, कनॉट सर्कस

आज मैं बिरला हाऊस में मौजूद था लगभग शाम के पाँच बजकर 10 मिनट पर महात्मा गॉधी बिरला हाऊस के अपने कमरे से बाहर निकलकर प्रार्थना स्थल की ओर आए. बहन आभा गांधी और बहन सन्नू गांधी उनके साथ थीं. महात्मा अपने हाथ इन बहनों के कंधों पर रखकर चल रहे थे. इनके साथ दो और लड़कियां भी थीं.

मेरे साथ लाला ब्रजकिशन चाँदी व्यापारी निवासी नम्बर 1, नरेन्द्र पैलेस पार्लियामेन्ट स्ट्रीट और सरदार गुरबचन सिंह निवासी तिमारपुर दिल्ली भी थे. हमारे अलावा बिरला हाऊस में काम करने वाली औरतें और दो तीन स्टाफ़ मेम्बर भी वहां पर मौजूद थे. बग़ीचे को क्रास करके महात्मा जी पक्की सीढ़ी पर चढ़कर प्रार्थना स्थल की तरफ़ जा रहे थे, रास्ते में दोनों ओर लगभग तीन फ़ुट महात्मा को चलने की जगह ख़ाली छोड़कर लोग खड़े थे.

परम्परा के अनुसार महात्मा अपने दोनों हाथ जोड़कर लोगों का अभिवादन कर रहे थे. वह बमुश्किल 6-7 क़दम ही चले होंगे कि एक आदमी उनके पास आया, जिसका नाम बाद में मुझे पता लगा नारायण विनायक गोडसे निवासी पूना था और उसने तीन गोलियाँ सिर्फ़ 2-3 फ़ुट की दूरी से महात्मा जी पर दाग़ी. गोलियाँ महात्मा जी के पेट और छाती में लगी, ख़ून बहने लगा, महात्मा जी पीछे की ओर गिर पड़े और “राम-राम” बोले. हमला करने वाले को घटनास्थल पर पकड़ा. महात्मा जी को बेहोशी की हालत में उनके निवास पर लें गए, जहाँ उनकी मृत्यु हो गई और पुलिस हमलावर को अपने साथ ले गई.”

इस एफ आई आर में दर्ज रिपोर्ट का समय 5 बजकर 45 मिनिट पर गांधी जी की मृत्यु होने की पुख़्ता जानकारी दी गई है. जबकि गांधी जी की मृत्यु आन रिकार्ड 5 बजकर 40 मिनिट में बताई गई है तथा मृत्यु की अधिकृत औपचारिक घोषणा स्वंय पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा उनके घटनास्थल पर आने के बाद 6 बजकर 10 मिनिट पर की गई थी. जब मृत्यु की औपचारिक पुष्टि 6 : 10  सायंकाल में होती है तो एफ आई आर 25 मिनिट पहिले कैसे दर्ज की जा सकती है?

फिर एफ आई आर मे हमलावर का नाम नारायण विनायक गोडसे लिखाया गया है जो कि ग़लत है.

स्वंय जय प्रकाश नारायण ने लार्ड माउन्टबैटन पर आरोप लगाए थे कि उन्होंने गांधी जी की सुरक्षा के पुख़्ता इन्तज़ामात नहीं किए थे. यद्यपि गृह विभाग के मुखिया सरदार पटेल थे पर उन दिनों अंग्रेज़ों के इशारों पर ही सबकुछ होता था. यह भी एक ऐतिहासिक सत्य है कि गांधी जी और अंग्रेज़ों के गहरे मनमुटाव थे. गांधी जी का तौर तरीक़ा आज़ादी के बाद पं० नेहरू को नागवार हो रहा था. उसके दो प्रमुख कारण थे.

1) गांधी जी को ऐसी आशंका अवश्य हो गई थी कि उनकी हत्या कर दी जावेगी इसीलिए मृत्यु के दिन ही उन्होंने अपनी वसीयत लिखी और उसमें लिखा कि कांग्रेस पार्टी को भंग कर देना चाहिए और पार्टी जनों को ‘लोक सेवा संघ’ के बतौर जनता की सेवा करना चाहिए.

2) गांधी जी 14 फ़रवरी 1948 को मोहम्मद अली जिन्ना की सहमति से दिल्ली में पाकिस्तान से भागकर आए विस्थापितों के साथ सड़क और रेल मार्ग से पाकिस्तान के लाहौर शहर में जाकर रहना चाह रहे थे. लार्ड माउन्टबैटन को जैसे ही गांधी जी की इस योजना का पता लगा वे घबड़ा गए. उन्हे इस बात की शंका हो गई थी कि पुराना क़िला में ठहराए गए पाकिस्तान से आए शरणार्थियों के पचास परिवारों के साथ अगर गांधीजी को लाहौर जाकर बसने का कार्यक्रम सफल हो जाता है तो जिन्ना और गांधी द्वारा मिलकर हिन्दुस्तान पाकिस्तान के बँटवारे का अंग्रेज़ों के राजनैतिक षड़यन्त्र पर पूरी तरह पानी फेर देंगे और गांधी जी के अखण्ड भारत का सपना पूरा हो जावेगा.

अंग्रेज़ कभी नहीं चाहते थे कि भारत में हिन्दू मुस्लिम एक होकर रहें और इसी लिये उन्होंने विभाजन करके दो दुश्मन देशों के निर्माण की चाल चली थी. इस बात के पुख़्ता सबूत हैं कि स्वंय लार्ड माउन्टबैटन गांधी जी से मिलने बिरला हाऊस आए थे. बिरला हाऊस के चारों ओर गुप्तचरों का जाल फैला था. बिना अंग्रेज़ों की मर्ज़ी के वहां का पत्ता भी नहीं हिलता था. पल पल की ख़बर अंग्रेज़ों को थी.कहने को तो भारत 15 अगस्त 1947 को आज़ाद हो गया था पर प्रशासकीय स्तर पर पूरे देश की बागडोर अंग्रेज़ों के हाथ में ही थी. यही कारण था कि विभाजन के समय हुए भीषण नरसंहारों को पुलिस और फ़ौज खड़ी खड़ी देखती रही.

3) सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा वह पिस्तौल है जिसे चलाकर नाथूराम गोडसे ने गांधीजी की हत्या की थी. इटली की बनी हुई “बेरेट्टा एम 1934” नामक यह पिस्तौल जिस पर 0.380 ए सी पी न० 606824 लिखा था गोडसे से बरामद की गई. इस पिस्तौल को ‘गंगाराम दण्डवते ‘नामक व्यक्ति ने 28 जनवरी 1948, यानि गांधी जी की हत्या के ठीक दो दिन पहले ग्वालियर में दी थी.

गंगाराम दण्डवते को उक्त पिस्तौल ‘जगदीश प्रसाद गोयल ‘ नामक आदमी से मिली थी. पर पुलिस को आज तक यह पता नहीं चल सका, या अंग्रेज़ परस्त आज़ाद भारत की पुलिस को इशारा किया गया होगा कि वह इस तथ्य का पता न लगाए कि जगदीश प्रसाद गोयल के पास यह हत्यारी पिस्तौल कहाँ से आई थी. फिर मात्र दो दिन पहले किसी को हथियार दिया जाए और वह एक अनुभवी व्यक्ति की तरह गोली दागे वह भी बिना कोई प्रैक्टिस किए.

इन बिन्दुओं को क्या सचमुच परखा गया था. बेरेट्टा नाम की इटैलियन पिस्तौल द्वितीय विश्व युद्ध में सिर्फ़ अंग्रेज़ फ़ौज को ही दी जाती रही थी. आम आदमी उस ज़माने में न तो इसे रख सकता था न ही ख़रीद सकता था. स्वंय महात्मा गांधी ने 2 मार्च 1930 को तत्कालीन वायसराय लार्ड इर्विन को पत्र लिखा था और उसे गांधी जी की पत्रिका ‘यंग- इन्डिया’ में प्रकाशित किया था जिसमें भारतीयों को आत्मरक्षा करने के लिए हथियारों का लाइसेन्स देने की माँग की गई थी.

इतना ही नहीं मार्च 1931 में कराची डिक्लेरेशन में कांग्रेस ने जो ब्रिटिश सरकार से 11 सूत्रों का माँग पत्र रखा था, उसमें एक माँग हथियार रखने का अधिकार माँगा गया था. उस ज़माने में इन्डियन आर्म एक्ट 1878 के अन्तर्गत कोई भी व्यक्ति आग्नेय शस्त्र नहीं रख सकता था. यही एक्ट संशोधित रूप में आज़ाद भारत में 1959 से आज भी लागू है.

जिस तरह से मोदी सरकार ने नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की गोपनीय फ़ाइलों को उजागर किया है उसी तरह अब समय आ गया है कि ब्रिटिश सरकार ने गांधी जी के बारे में गोपनीय फ़ाइलें तैयार की होंगी उन्हे भी उजागर किया जाय. तभी यह प्रमाणित हो सकेगा कि क्या गांधी जी की हत्या में अंग्रेज़ों की मौन स्वीकृति तो नहीं थी.

अभी तो शंका की सुई यहीं आकर ठहर जाती है कि मृत्यु के बाद क्या गांधी जी का सचमुच पोस्ट मार्टम कराया गया था या नहीं? क्योंकि क़ानूनी दांवपैंचों में पोस्ट मार्टम होना बहुत जरूरी होता है. फिर सरकार की ऐसी क्या मजबूरी थी कि दो लोगों को फाँसी और 6 लोगों को आजन्म कारावास की सजा देने वाले मुक़दमे की पूरी सुनवाई गोपनीय तरीक़े से की गई. इतना ही नहीं गांधी हत्याकाण्ड से जुड़े लेखक और विशेषज्ञ राजेन्द्र पुरी के अनुसार तो इस पूरे प्रकरण में पं० नेहरू की भूमिका पर भी प्रश्न चिन्ह खड़े कर दिए हैं.

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