“……….. हमारे लिए बाहर का मूल्य इतना ज्यादा है कि संयम को भी जब हम साधते हैं तो बाहर से ही शुरू करते हैं. हमारी आंखें बाहर से इस तरह आब्सेस्ड हो गयी हैं, इस तरह बंध गयी हैं. और हमारी वासनाओं ने हमें बाहर से इस तरह चिपका दिया है कि हम अगर साधना भी करते हैं तो भी बाहर से ही शुरू करते हैं. और साधना शुरू ही हो सकती है भीतर से.” – ओशो
सवाल – क्योंकि संभवतः साधना किसे है , इस बेसिक समझ की कमी है , वह जो सब को साध रहा है, हमारे भीतर, जिसके साधने से सब साध पाएंगे उसे साधना है, पर तब मैं सोचता हूँ उसे साधना है या खुला छोड़ना है, बिना किसी कंट्रोल के, बिलकुल मुक्त, स्वच्छंद, स्वभाविक. क्या सही है ? माँ जीवन शैफाली प्रकाश डालें .” – प्रशांत कोठारी
कोई बात शुरू करने से पहले मैं हमेशा एक बात कहती हूँ कि मेरे कहे पर सहमत होने की बिलकुल आवश्यकता नहीं है, आप असहमत होने के लिए पूरी तरह स्वतन्त्र है. क्योंकि एक ही घटना दो व्यक्तियों के साथ समान रूप से घटित होते हुए भी दोनों से गुज़रते हुए दो अलग अनुभव दे जाती है.
तो जो मुझे मेरी तरफ से दिखाई देता है वो कुछ यूं है- कि ब्रह्माण्ड के अनगिनत सितारे हमें स्वतन्त्र रूप से अन्तरिक्ष में विचरते हुए दिखाई देते हैं… लेकिन कोई एक तारा सूर्य की भांति जब स्वतन्त्र होते हुए भी सध जाता है तो उसकी आग उगलती किरणें भी पृथ्वी पर जीवन पल्लवित कर देती है….
अब वो अपनी खुद की साधना से सध गया या जो हम सब को साध रहा है उसकी कृपा से सधे हुए भी स्वतन्त्र है, ये विचारणीय है. इसको विस्तृत रूप देने के लिए एक उदाहरण देती हूँ.
एक आदमी है उसे समंदर पार करना है. उसके पास तीन विकल्प है, या तो वो नाव पर सवार हो कर पार करे, दूसरा तैर कर पार करे, तीसरा वो अपने को लहरों के साथ स्वतन्त्र रूप से छोड़ दें, फिर वो लहरे जहां ले जाए.
उसी तरह हमारे पास भी तीन विकल्प होते हैं, पहला अनुभव की नाव, और ये भाव कि इस भव-सागर को हम अपने अनुभवों की नाव पर सवार होकर पार कर लेंगे. ऐसे व्यक्ति अपनी यात्रा को अपने अनुसार दिशा देते हुए चलते हैं.
दूसरे वो होते हैं जो सीधे समंदर में छलांग लगा देते हैं, उन्हें अपने सामर्थ्य पर पूरा विश्वास होता है कि हम इस भव-सागर को तैर कर पार कर लेंगे.
तीसरे वो होते हैं जो खुद को समंदर में उस तिनके की भांति छोड़ देते हैं इस आस्था के साथ कि मेरे हाथ में कुछ नहीं है, मैं एक बूँद की भांति इस समंदर से अलग हुआ था आज उसी समंदर में जा मिला हूँ अब उसकी मर्ज़ी जहाँ ले जाए.
अब जो व्यक्ति अनुभवों की नाव पर सवार है एक दिन वो भी नाव चलाते चलाते थक जाएगा… पतवार छूट जाएगी…
जो तैर रहा है हो सकता है उसकी भी हिम्मत जवाब दे जाए… और हाथ पाँव चलना बंद हो जाए….
उपरोक्त दोनों परिस्थिति में अंतत: दोनों खुद ब खुद लहरों के हवाले हो जाएंगे…. और आ जाएँगे उस तीसरे की स्थिति में जिसने पहले ही खुद को लहरों के हवाले कर रखा है…
जीवन का मार्ग मुझे ऐसा ही लगता है… सत्य की खोज में निकला व्यक्ति पहले तो अपने अनुभवों की नाव पर सवार होकर खुद ही अपनी नाव को दिशा देता रहेगा, लेकिन अंत में थककर समर्पण कर देगा… इस जन्म में न सही अगले जन्म में सही… या जन्मों बाद ही सही…
तैरकर जाने वाला उस ध्यानी की तरह है जिसे अपने ध्यान और सामर्थ्य पर पूरा विश्वास है लेकिन उसे ये भी पता होता है कि एक समय तो ऐसा आएगा जब उसे पूर्ण समर्पण करना होगा… वहां से उसकी आस्था की यात्रा प्रारम्भ होती है…
और जिस व्यक्ति ने पहले ही खुद को समर्पित कर दिया उसे मैं भक्ति मार्ग का यात्री कहती हूँ… जो घटनाओं को इस तरह लेता है जैसे वो इस विराट समंदर में मात्र एक तिनके की तरह है… उस विशाल समंदर की लहरों के साथ कभी ऊपर उठता है, कभी वही लहरें उसे किनारे पर ला पटकती है, कभी किनारे से उठाकर फिर समंदर में धकेल देती है.. कभी डुबाती है, कभी उबारती है… उसे कहीं पहुँचने की ज़िद नहीं होती… उसके लिए समंदर ही परमात्मा है…
बाकी दोनों के साथ भी अंतत: यही होना है…. फिर ये भी कौन तय करेगा कि वो जिस नाव को चला रहा है वो उसी के द्वारा चलाई जा रही है… या जिस दिशा में वो तैर रहा है वो उसी की तय की हुई दिशा है…. या कोई अदृश्य शक्ति है जो एक ही जीवन में कई बार तीनों परिस्थिति का अनुभव करा जाती है….. तो कई बार जन्मों की यात्रा के बाद भी व्यक्ति कहीं नहीं पहुँचता….
मैं नहीं जानती कौन कहाँ तक कैसे पहुँचता है….. मैं खुद को उस तिनके की भांति अनुभव करती हूँ जिसकी अगली सांस पर भी मेरा कोई अधिकार नहीं… पूरे समर्पण के बाद ही मैं उस तिनके की भांति पूरी तरह स्वतन्त्र हो पाई हूँ जिसे लहरे जहाँ ले जाती है वहीं चली जाती हूँ…. मेरे लिए समंदर ही परमात्मा है… उसकी मर्जी होगी तो यहीं बहते रहेंगे…. उसकी मर्ज़ी होगी तो वो भव-सागर पार करा देगा…