तो अब इस गांव की यात्रा अब समाप्ति पर थी. हमारे क्षणिक लेकिन अनमोल संबंधों की मधुशाला बंद हो रही थी. हम फिर गले मिल रहे थे, विदा हो रहे थे. अब हमें सेंट्रल प्राविंस के नुवारा एलिया ज़िले के लिए प्रस्थान करना था. वहां जहां कहा जाता है कि सीता के अपहरण के बाद रावण ने सीता को रखा था. यह मंदोदरी के मायके का इलाक़ा था. यानी रावण की ससुराल थी. हम लोग जिसे अशोक वाटिका के रुप में रामायण में पढ़ते हैं. नुवारा एलिया को श्रीलंका के स्वीटजरलैंड के रुप में भी जाना जाता है. श्रीलंका के पहाड़ी रास्ते भी बहुत मनमोहक हैं. ख़ूबसूरत मोड़ और हरियाली से संपन्न। नुवारा एलिया हम लोग पहुंचे. रास्ते में अशोक वाटिका भी पड़ी. श्रीरामजयम नाम से मंदिर है. जिसे प्रणाम करते हुए हम गुज़रे.
तय हुआ कि लंच कर के यहां लौटेंगे. फिर आराम से मंदिर देखेंगे. नुवारा एलिया के स्थानीय पत्रकारों ने एक कार्यक्रम भी रखा था. हम लंच कर और उस कार्यक्रम को अटेंड कर लौटे भी. श्रीरामजयम मंदिर. शहर से थोड़ी दूरी पर बना यह मंदिर है हालां कि प्रतीकात्मक ही. यह तथ्य वहां स्पष्ट रुप से लिखा भी है एक पत्थर पर. फिर भी आस्था, विश्वास और मन का भाव ही असल होता है. इस छोटे से मंदिर में पहुंच कर हम ने शीश नवाया और सीता के दुःख में डूब गए. उन की यातना और तकलीफ की खोह में समा गए. कि कैसे एक अकेली स्त्री, अपहरित स्त्री इस वियाबान में, पर्वतीय वन में रही होगी. अब तो यहां कोई अशोक का वृक्ष भी नहीं है जो मेरे शोक को हरता. पर हमारे मन में सीता हरण के वह त्रासद क्षण और कष्ट दर्ज थे. मंदिर में भीतर तो राम, लक्ष्मण और सीता की मूर्तियां हैं. अलग से हनुमान का मंदिर भी है. लेकिन बाहर पहाड़ी नदी किनारे खुले में सीता से भेंट करते हुए हनुमान की मूर्ति है.
साथ में एक हिरन है. हनुमान के पद-चिन्ह हैं. मूर्ति का यह खंड विचलित करता है. पास ही एक ऊंची पर्वत माला है. जहां कहा जाता है कि सीता को अशोक वाटिका में क़ैद करने के बाद अपना महल छोड़ कर अस्थाई रुप से रावण यहीं ऊंची पहाड़ी पर रहने लगा था. भारत को श्रीलंका का बड़ा भाई मानने वाले यहां के लोग सीता, राम या हनुमान का निरादर तो नहीं करते, आदर के साथ ही उन का नाम लेते हैं लेकिन इस सब के बावजूद रावण को वह अपना हीरो मानते हैं. रावण के खिलाफ कुछ सुनना नहीं चाहते. इस तरह की बहुत सारी बातें हैं, बहुत सारी कथाएं हैं. वाचिक भी, लिखित भी. बहरहाल जैसा कि तुलसीदास ने सुंदर कांड में लिखा है कि जब अशोक वाटिका में हनुमान ने सीता को देखा तो :
देखि मनहि महुं कीन्ह प्रनामा।
बैठेहिं बीति जात निसि जामा॥
कृस तनु सीस जटा एक बेनी।
जपति हृदय रघुपति गुन श्रेनी॥
मैं ने भी सीता जी को, उन की व्यथा को मन ही मन ही नहीं हाथ जोड़ कर भी प्रणाम किया. और उन की उन की मूर्ति के पास जा कर बैठ गया. उन के दुःख को भीतर से महसूस किया. तुलसीदास लिख ही गए हैं :
निज पद नयन दिए मन राम पद कमल लीन।
परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन ॥
अब यह कथा, कथा का दुःख सभी को मालूम है. हम ने भी तुलसीदास के लिखे के भाव में शीश नवाए, रस्सी से बंधा घंटा बजाया, फ़ोटो खिंचवाया और चले आए :
बार बार नाएसि पद सीसा।
बोला बचन जोरि कर कीसा॥
अब कृतकृत्य भयउ मैं माता।
आसिष तव अमोघ बिख्याता॥
नुवारा एलिया में श्रीरामजयम मंदिर यानी अशोक वाटिका के पास इस ऊंची पहाड़ी पर रावण भी रहा करता था
नुवारा एलिया में एक सुंदर झील है. झील किनारे मादक हरियाली है. अपने भारतीय झीलों की तरह उन के किनारे होटलों और दुकानों की भीड़ नहीं है. हां, रेसकोर्स है. झील में बोट हैं, बोटिंग के लिए. तैरता हुआ बड़ा सा हाऊस बोट भी है. इसी हाऊस बोट पर नुवारा एलिया के स्थानीय पत्रकारों ने रात में कॉकटेल पार्टी आयोजित की थी भारतीय पत्रकारों के लिए. शाम को ठंड बढ़ गई थी. शिमला की तरह. हम सब ने हलके गरम कपड़े पहने. इस पार्टी में हिंदी गानों की बहार थी. वहां के स्थानीय लोगों ने आर्केस्ट्रा का भी बंदोबस्त भी किया था. इस सुरमई शाम को और दिलकश किया गीतांजलि ताल्लुकदार और उत्कर्ष सिनहा ने अपने गाए हिंदी फ़िल्मी डुवेट गानों से. गीतांजलि भारत में गौहाटी की हैं, भारत की बेटी हैं लेकिन अब श्रीलंका की बहू हैं.
उत्कर्ष सिनहा गोरखपुर के हैं, अब लखनऊ में रहते हैं. पर बिना किसी रिहर्सल के गीतांजलि और उत्कर्ष ने डुएट गीतों की जो दरिया बहाई वह अनन्य थी. कॉकटेल की बहार थी ही, इस बहार की बयार में हम जैसे लोग झूम कर नाचने भी लगे. इस के एक दिन पहले भी रास्ते में गीतांजलि ने अपने मधुर कंठ से रास्ते में हिंदी फ़िल्मी गाने सुनाए थे. ये शमां, शमां है सुहाना और अजीब दास्तां है ये, न तुम समझ सके न हम ! जैसे गाने सुनाए थे. उत्कर्ष भी लगातार रास्ते में अपने मोबाइल से एक से एक सजीले और दुर्लभ गीत – ग़ज़ल सुनवाते रहे थे पर वह ख़ुद भी इतने सुरीले हैं, अच्छा गाते हैं यह इस कॉकटेल पार्टी में ही पता चला. इस मौके पर मैं ने उन के चेहरे को अपनी हथेली में भर कर उन्हें विश भी किया.
दूसरी सुबह हम लोगों को कैंडी के लिए निकलना था. कैंडी होते हुए कोलंबो पहुंचना था. सुबह चले भी हम कैंडी के लिए. लेकिन शाम को फेयरवेल पार्टी भी थी. लगा कि कोलंबो पहुंचने में बहुत देर हो जाएगी. सो बीच रास्ते में कैंडी जाना कैंसिल हो गया और हम कोलंबो के रास्ते पर चल पड़े. भारत में ही दोस्तों ने कहा था कि कैंडी ज़रुर जाइएगा. श्रीलंका की सब से खूबसूरत जगह है. अफ़सोस बहुत हुआ कैंडी न जा पाने पर. पर करते भी तो क्या करते.
खैर, केजल्ल मावलेन, रामबड़ , वेलिमा, , पुसलेवान, गाम पोवर, पेरादेनिया और खड़गन्नाव जैसे शहरों से गुज़रते हुए रास्ते भर चाय बागानों का हुस्न, उन की मादक हरियाली मन में उफान भरती रही. हम ने दार्जिलिंग, गैंगटोक और गौहाटी के चाय बागान भी देखे हैं, उन का हुस्न और अंदाज़ भी जाना है लेकिन श्रीलंका के चाय बागानों के हुस्न के क्या कहने. रास्ते भर हम हरियाली पीते रहे और मन जुड़ाता रहा. इतना कि अपनी ही एक ग़ज़ल के मतले का शेर याद आ गया :
कभी जीप तो कभी हाथी पर बैठ कर जंगल-जंगल फ़ोटो खींच रहा हूं
अपने भीतर तुम को चीन्ह रहा हूं मैं तो हर पल हरियाली बीन रहा हूं
हम ने इस रास्ते में सिर्फ़ चाय बागान ही नहीं देखे बल्कि चाय के कुछ पेड़ भी देखे. हमारी दुभाषिया सुभाषिनी जी इन सारे विवरणों से हमें निरंतर परिचित और समृद्ध करवाती रहीं. सुभाषिनी श्रीलंका की ही हैं. लेकिन सिंहली, और हिंदी पर पूरा अधिकार रखती हैं. इस भाषा से उस भाषा में बात को चुटकी बजाते ही बता देना, रख देना सुभाषिनी के लिए जैसे बच्चों का खेल था. एक राष्ट्रपति वाले कार्यक्रम में हमें एक हियर रिंग दिया गया था जिस से सिंहली का अनुवाद फौरन हिंदी में मिल जाता था. चाहे जिस भी किसी का संबोधन हो. लेकिन बाक़ी जगहों पर सुभाषिनी ही हम लोगों को हिंदी और स्थानीय लोगों को सिंहली में हमारी बात बताती रहीं. चाहे भाषण हो या बातचीत. सुभाषिनी हर कहीं किसी पुष्प की सुगंध की तरह अपनी पूरी सरलता के साथ उपस्थित रहतीं. कोई रास्ता हो, कार्यक्रम हो हर कहीं सुभाषिनी अपने सुभाषित के साथ उपस्थित.
सुभाषिनी श्रीलंका रेडियो में तो काम कर ही चुकी हैं, लखनऊ के भातखंडे संगीत विश्वविद्यालय में संगीत की शिक्षा भी ले चुकी हैं. लखनऊ आ कर ही उन्हों ने हिंदी सीखी थी. इस हरे-भरे मदमाते रास्ते में अंबे पुस रेस्टोरेंट में हम लोगों ने लंच लिया. इस रेस्टोरेंट में भी हिंदी फ़िल्मी गाने सुनाने वाले लोग मिले. एक से एक गाने. परदेस में संगीतमय लंच की ऐसी यादें मन की अलमारी में सर्वदा अपने टटकेपन के साथ उपस्थित रहती हैं. इस बात को शायद इस रेस्टोरेंट के प्रबंधन के लोग बेहतर जानते हैं. श्रीलंका के शहर दर शहर घूमते हुए, वहां की समृद्धि को देखते हुए यह विश्वास नहीं होता कि कोई बारह बरस पहले 2004 में आई सुनामी से यह देश बुरी तरह बरबाद हो गया था. विनाश का एक भी निशान नहीं. यह आसान नहीं है. बहुत बड़ी बात है.
हम लोग सांझ घिरते-घिरते कोलंबो आ गए. उसी पुराने होटल माउंट लेवेनिया में ठहरे जहां भारत से आ कर पहली रात ठहरे थे. हम तो चाहते थे कि हमें फिर से वही हमारा पुराना कमरा मिल जाए. सागर के सौंदर्य और उस के शोर का वही नज़ारा मिल जाए. लेकिन नहीं मिला. कमरा दूसरा मिला पर यह कमरा भी समुद्र की लहरों की लज्ज़त लिए हुए था. तासीर वह नहीं थी, नज़दीकी भी वह नहीं थी पर लहरों की सरग़ोशी और सौंदर्य तो वही था. लहरों का शोर और उस की उछाल वही थी. लेकिन वह पहले सी मुहब्बत नहीं थी. फैज़ ने लिखा ही है:
मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग
मैने समझा था कि तू है तो दरख़्शां है हयात
तेरा ग़म है तो ग़मे-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आँखों के सिवा दुनिया मे रक्खा क्या है
तू जो मिल जाये तो तक़दीर निगूँ हो जाये
यूँ न था, मैने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाये
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
यही हुआ मेरे साथ भी. पर जो भी होता है, अच्छा ही होता है. यह कमरा भी अच्छा था. उस कमरे का हुस्न जुदा था तो इस कमरे का अपना हुस्न था. मुझे तो बस सागर और उस के सौंदर्य से आशिक़ी करनी थी, उसी से मतलब था. और आशिक़ी जैसे भी हो निभा लेने में ही सुख है. आकाश और धरती उस में आड़े नहीं आते. मैं ने निभाया. सागर की लहरों का शोर और दूधिया लहरों की उछाल ऐसी थी गोया आप की माशूक़ा आप के ऊपर अनायास ही, अचानक ही सवार हो जाए. और आप हकबक रह जाएं. मारे प्यार के. प्यार का बुखार होता ही ऐसा है. रोमांस का ज्वार जैसे मुझ पर ही नहीं सागर पर भी सवार था. दोनों ही सुर्खुरु थे.
रात में हम लोग फेयरवेल पार्टी में पहुंचे. आत्मीयता और मेहमाननवाज़ी की नदी यहां भी बहती मिली. आज इंडियन फेडरेशन आफ वर्किंग जर्नलिस्ट की 67 वीं वर्षगांठ भी थी. जिसे केक काट कर उपाध्यक्ष हेमंत तिवारी के नेतृत्व में मनाई गई. जनरल सेक्रेटरी परमानंद पांडेय दो दिन पहले ही भारत जा चुके थे. हेमंत तिवारी ने अध्यक्ष मल्लिकार्जुनैया की उपस्थिति में बहुत भावुक कर देने वाला भाषण भी इस मौक़े पर दिया. श्रीलंका प्रेस एसोशिएशन के साथियों ने भी भाव-विभोर किया अपने उदबोधन में. हम लोगों की पूरी यात्रा पहले 30 अक्टूबर तक की तय थी. पर 30 अक्टूबर को दीपावली पड़ जाने के कारण कार्यक्रम तितर-बितर हुआ. दो दिन पहले ही सब कुछ समेटना पड़ा. 29 अक्टूबर को दिन में कुछ साथी भारत के लिए चले गए. लेकिन हमारी फ्लाइट 30 अक्टूबर की सुबह की थी. हम 29 अक्टूबर को भी रहे. कुछ और साथी भी. कर्नाटक, उड़ीसा और उत्तराखंड के साथी भी रहे.
29 अक्टूबर की सुबह जब डाइनिंग हाल में हम ब्रेकफास्ट के लिए पहुंचे तो दीपावली का सा नज़ारा था. रंगोली सजी हुई थी. दिये जल रहे थे. भारतीय मिठाइयां सजी हुई थीं. जलेबी, रसमलाई, चावल की खीर, बादाम की खीर. होटल स्टाफ़ हैपी दीपावली बोल रहा था. हम चकित थे. शाम को भी इंडियन कल्चर सेंटर में दीपावली का आयोजन था. सुश्री शिरीन कुरेशी ने मुझे इस दीपावली कार्यक्रम में पहले ही से आमंत्रित कर रखा था. सुश्री शिरीन कुरेशी भारत की ही हैं. इंदौर की रहने वाली हैं. कोलंबो में दो साल से हैं. उन के पिता मोहम्मद नवाब हसन कुरेशी भी साथ रहते हैं. शेरो शायरी और फ़िल्मी गानों के बेहद शौक़ीन.
होटल माऊंट लेवेनिया जहां हम ठहरे हुए थे इंडियन कल्चर सेंटर के अब्दुल गफूर मुझे लेने आए. साथ में चमोली के देवेंद्र सिंह रावत ने भी चलने की इच्छा जताई तो मैं ने कहा चलिए. हम लोग जब इंडियन कल्चर सेंटर पहुंचे तो वहां तो भारी भीड़ थी. मुझे लगा था कि कोई औपचारिक सा सरकारी कार्यक्रम होगा. संक्षिप्त सा. लेकिन शिरीन जी ने तो न सिर्फ़ लोगों को इकट्ठा कर रखा था बल्कि दीपावली की पूजा, दिया, संगीत, मिठाई और पटाखे का दिलकश बंदोबस्त भी कर रखा था. इस में भारतीय लोग भी थे और श्रीलंका के स्थानीय लोग भी. बल्कि स्थानीय लोग ज़्यादा थे. और अच्छी – खासी हिंदी बोलते और फ़िल्मी गाने गाते हुए. मैं ने वहां दीप जलाया, पूजन किया. श्रीमती अंजली मिश्रा ने इस में मेरी मदद की. आरती गाई। श्रीमती अंजलि मिश्र हैं तो मध्य प्रदेश की लेकिन उन का ननिहाल बनारस में है. सो वह भोजपुरी भी बढ़िया जानती थीं. उन से भोजपुरी में भी बात हुई. भारत की बेटी अंजलि मिश्र भी अब श्रीलंका की बहू हैं. लेकिन अपनी परंपराओं को जीती हुई. यहां वह यूनिवर्सिटी में पढ़ाती हैं. इस दीपावली के मौके पर अपनी एक ग़ज़ल यह मन के दीप जलने का समय है तुम कहां हो भी सुनाई मैं ने. जिसे भाव-विभोर हो कर सुना भी लोगों ने.
यह मन के दीप जलने का समय है तुम कहां हो
प्राण में पुलकित नदी की धार मेरी तुम कहां हो
रंगोली के रंगों में बैठी हो तुम, दिये करते हैं इंकार जलने से
लौट आओ वर्जना के द्वार सारे तोड़ कर परवाज़ मेरी तुम कहां हो
लौट आओ कि दीप सारे पुकारते हैं तुम्हें साथ मेरे
रौशनी की इस प्रीति सभा में प्राण मेरी तुम कहां हो
देहरी के दीप नवाते हैं बारंबार शीश तुम को
सांझ की इस मनुहार में आवाज़ मेरी तुम कहां हो
न आज चांद दिखेगा, न तारे, तुम तो दिख जाओ
सांझ की सिहरन सुलगती है, जान मेरी तुम कहां हो
हर कहीं तेरी महक है, तेल में, दिये में और बाती में
माटी की खुशबू में तुम चहकती, शान मेरी तुम कहां हो
घर का हर हिस्सा धड़कता है तुम्हारी निरुपम मुस्कान में
दिल की बाती जल गई दिये के तेल में, आग मेरी तुम कहां हो
सांस क्षण-क्षण दहकती है तुम्हारी याद में, विरह की आग में तेरी
अंधेरे भी उजाला मांगते हैं तुम से , अरमान मेरी तुम कहां हो
यह घर के दीप हैं, दीवार और खिड़की, रंगोली है, मन के पुष्प भी
तुम्हारे इस्तकबाल ख़ातिर सब खड़े हैं, सौभाग्य मेरी तुम कहां हो
फिर हिंदी फ़िल्मों के गाने गाए गए. मिठाई खाई गई और पटाखे छोड़े गए. इस कार्यक्रम में भारतीय मूल के लोग भी थे लेकिन श्रीलंका मूल के लोग ज़्यादा थे. ख़ास कर हिंदी बोलते और हिंदी गाने गाते बच्चे. भारत में हिंदी भले उपेक्षित हो रही हो लेकिन श्रीलंका में हिंदी गर्व का विषय है। हिंदी गाने गाने वाले लोग श्रीलंका मूल के ही लोग थे. श्रीलंका मूल की स्नेहा मिलीं. धाराप्रवाह हिंदी बोलती हुई. अभी पढ़ती हैं. पांच मिनट की बातचीत में स्नेहा मेरी बेटी बन गईं. मैं ने उन्हें बताया कि बेटियां तो साझी होती हैं. चाहे वह कहीं की भी हों. तो वह और खुश हो गईं. इंडियन कल्चर सेंटर से अब्दुल गफूर फिर हमें होटल तक छोड़ गए. अब्दुल गफूर भी इंडियन कल्चर सेंटर में हैं और भारत में गुजरात के रहने वाले हैं. सपरिवार रहते हैं श्रीलंका में बीते कई बरस से. बच्चे बड़े हो गए हैं. बच्चे कारोबारी हैं. अपना-अपना व्यवसाय करते हैं. कोलंबो में ही. कोलंबो की सड़कों पर जैसे भारतीय बाज़ार ही सजा दीखता है. हच और एयरटेल की मोबाईल सर्विस एयरपोर्ट से ही दिखने लगती है. पूरे श्रीलंका में दिखती है. नैनो की टैक्सियां भी बहुतेरी. अशोक लेलैंड की बसें. बजाज की थ्री ह्वीलर. एशियन पेंट्स और बाटा की दुकानें वहां आम हैं. चाइनीज सामानों से यहां के बाज़ार भी अटे पड़े हैं. वैसे ही बढ़ते हुए माल, वैसे ही दुकानें. मोल-तोल करते लोग. वैसे ही रेस्टोरेंट, वैसे ही लोग. जैसे भारतीय. खैर, हम लौटे इंडियन कल्चर सेंटर से. पैराडाइज बीच पर गए. अंधेरे में भी समुद्र की लहरों का रोमांस जिया. लहरों के साथ टहले. बीच पर ही एक रेस्टोरेंट में कैंडिल लाईट डिनर किया. समुद्र की लहरों को चूमते हुए टहलते रहे. फिर समुद्र देवता को प्रणाम किया और होटल लौटे.
अब हम फिर भंडारनायके एयरपोर्ट पर थे. ऊंघते हुए एयरपोर्ट पर भी हिंदी फ़िल्मी गाने बज रहे थे. इंस्ट्रूमेंटल म्यूजिक में. बहुत प्यार करते हैं तुम को सनम. सुन कर हम भी गाना चाहते हैं बहुत प्यार करते हैं श्रीलंका को हम. पासपोर्ट पर वापसी के लिए इमिग्रेशन की मुहर लग चुकी है. हम जहाज में हैं और जहाज रनवे पर. एयरपोर्ट भी समुद्र किनारे ही है. उड़ान भरते ही नीचे समुद्र दीखता है. लहराता हुआ. कोलंबो शहर छूट रहा है. श्रीलंका छूट रहा है. एक ही द्वीप में बसा हिंद महासागर का यह मोती छूट रहा है. अपनी ख़ूबसूरत पहाड़ियों में धड़कते हुए, कुछ सोए, कुछ जगे समुद्र किनारे बसे इस देश को छोड़ आया हूं। फिर-फिर जाने की ललक और कशिश लिए हुए. नीचे छलकता समुद्र है ऊपर आकाश में लालिमा छाई हुई है. आसमान में छाई लालिमा जैसे दिया बन कर जल रही है और दीवाली मना रही है. जगर-मगर दीवाली. यह तीस अक्टूबर, 2016 की अल्लसुबह है. प्रणाम इस सुबह को. प्रणाम श्रीलंका की धरती को. श्रीलंका के राष्ट्र गान में श्रीलंका को आनंद और विजय की भूमि कहा गया है. इस आनंद और विजय की भूमि को हम राम के विजयधाम के रुप में भी जानते हैं. इस लिए भी प्रणाम. प्रणाम अभी, बस अभी आने वाली अपनी धरती को. स्तुति श्रीलंका !