भोजन सिर्फ उतना करो जितना जीवित रहने के लिए आवश्यक है, अतिरिक्त ग्रहण किया गया भोजन शरीर को कष्ट ही देगा..
बोलो सिर्फ इतना जितना सन्देश प्रेषित करने के लिए आवश्यक है, अतिरिक्त बोला गया रिश्तों को कष्ट ही देगा…
लिखो सिर्फ उतना जितना पढ़ा जाए, अतिरिक्त लिखा हुआ भाषा का अपमान ही करेगा….
चलो सिर्फ उतना जितना यात्रा के लिए आवश्यक है, अतिरिक्त चलना थकान ही देगा..
विश्राम करो तो सिर्फ इतना जितना शरीर को आवश्यक है, अतिरिक्त विश्राम आलस्य ही देगा…
प्रतीक्षा सिर्फ उतनी करो जितनी किसी के आने की संभावना लगे, अतिरिक्त प्रतीक्षा ऊब ही पैदा करेगी…
संयम सिर्फ उतना करिए जितना अनुशासन के लिए आवश्यक हो, अतिरिक्त संयम दमन हो जाएगा…
घृणा सिर्फ उतनी करो, जितनी प्रेम के उत्थान में बाधक न हो, अतिरिक्त घृणा पतन की ओर अग्रसर ही करेगी…
सम्भोग उतना ही करो जितना मूलाधार की ऊर्जा के उर्ध्वगमन के लिए आवश्यक हो, अतिरिक्त सम्भोग ऊर्जा का अधोगमन ही करेगी…
प्रेम इतना बितना जितना नहीं करते… प्रेम करना ही नहीं होता… प्रेम हो जाना होता है… फिर प्रेम भी हट जाए… सिर्फ होना… फिर ना भी हट जाए… बस हो…
बस ये ‘हो’ भी हट जाए… इसी की तो पूरी यात्रा है…..
– माँ जीवन शैफाली
Nice article..