गतांक से आगे…
गतांक में आपने जाने नोटबंदी से होने वाले तात्कालिक प्रभाव… अब कुछ भारत के आर्थिक इतिहास पर दृष्टि डालते हैं. नकद मुद्रा किसी भी अर्थव्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए आवश्यक है. हर देश को बहुत सी आर्थिक गतिविधियों के लिए नकद मुद्रा की आवश्यकता रहती है. इसी के होने से सरकार राजस्व प्राप्त करती है, लोगों को रोज़गार मिलता है, जन साधारण का कार्य चलता है. परन्तु यह सभी तर्क बड़े नोटों के लिए नहीं हैं.
दरअसल यदि आप 20 वर्षों के इतिहास पर गौर करेंगे तो आपको इस नोटबंदी के कारणों पर अधिक जानकारी मिलेगी. 1999 में भारत में सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का कैश से अनुपात था 9.4% जो 2016 में 12% हो चुका था.
किसी भी विकसित देश में यह आंकड़ा 8% से कम रहता है. जबकि 1994 में debit credit card या online लेनदेन नहीं था. आज लगभग 28 करोड़ बैंक खाते होने के बावजूद यह आंकड़ा बढ़ता गया तो जानिये… 2004 में पूरे भारत में चलन के नोटों में 500 और 1000 रुपये का योगदान था 34%, जो आज हो चुका था लगभग 87%.
रिज़र्व बैंक के अनुसार 1000 के नोट जो जारी किये जाते हैं उसमें से दो तिहाई कभी बैंक में वापिस ही नहीं आते और यदि 500 के नोट की बात करें तो एक तिहाई बैंक वापिस नहीं आते. यह बात तथाकथित अर्थशास्त्री पूर्व प्रधानमंत्री जी भी जानते हैं और यह वित्त मंत्रालय की रिपोर्ट में भी कही गयी है.
इसका सीधा सा अर्थ हुआ कि धन जो अर्थव्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए दिया गया था, वह एक जगह एकत्रित हो गया. धन जब तक अर्थव्यवस्था में चलता रहता है तब तक उपयोगी है नहीं तो उसका नकारात्मक प्रभाव अधिक होता है.
धन का प्रवाह अर्थव्यवस्था में ऐसा ही है जैसा हमारे शरीर में रक्त का प्रवाह. यदि किसी शरीर में रक्त का प्रवाह किसी कोने में रुक जाए तो आप कल्पना कर सकते हैं कि शरीर काम करना बंद कर देगा, यही अर्थ व्यवस्था से पैसा बाहर आने से देश की अर्थ व्यवस्था में होता हैं. और यह सब रिज़र्व बैंक के अनुसार उसी दौरान हो रहा था जब भारत के तथाकथित अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री थे.
अब आप भारत की आर्थिक अनभिज्ञता को भी जानने का प्रयास करें. 1999 से 2004 तक के पांच वर्षों में भारत के सकल घरेलू उत्पाद के विकास की दर रही थी 5.5%. समस्त पांच सालों में महंगाई दर रही 4.6% और देश में नए 6 करोड़ लोगों को रोज़गार मिला अर्थात 6 करोड़ लोग बेरोज़गारी से रोजगारी की गिनती में आये. यह पिछले 50 वर्षों में कभी नहीं हुआ और 2004 के बाद 2016 तक तो नहीं हुआ.
और अंत में यह भी जान लीजिये, महज़ 5 वर्ष भारत के चालू यानी current account में बचत रही यानी surplus रहा. आजादी से आज तक मात्र 5 वर्षों में यह surplus रहा, नहीं तो हमेशा घाटा ही रहा. 1976, 1977 में जब देश में आपात काल (emergency) या फिर 2001 से 2004 के बीच में. 2001 से 2004 के तीन वित्त वर्षों में कमश: 340 करोड़, 630 करोड़ और 872 करोड़ डॉलर.
ये पांच वर्ष दुनिया में भारत को बहुत इज्ज़त दे गए. इस दौरान भारत ने अपने आप को दुनिया की नज़र में सशक्त साबित किया क्योंकि भारत बिना विशेष विदेशी पूँजी के, बिना विदेशी तकनीक के, बिना विदेशी सहायता के एक तो current account surplus ले आया, दूसरे 6 करोड़ रोज़गार उत्पन्न कर पाया.
परन्तु हमारे अर्थशास्त्रियों के लिए यह अच्छी खबर नहीं थी क्योंकि SENSEX में उछाल नहीं आया और सकल घरेलू उत्पाद की दर कम रही.
अब आइये इसी पैमाने पर उस समय की चर्चा करते हैं जिस को भारत के तथाकथित अर्थशास्त्री स्वर्णिम काल कहते है यानी 2004-05 से लेकर 2009-10 का काल. इन 6 वर्षों में सकल घरेलू उत्पाद विकास दर 8.4%, परन्तु नई नौकरियाँ आई मात्र 27 लाख, current account surplus जो 2004 की शुरुआत में लगभग 1800 करोड़ डॉलर यानी 80000 करोड़ रूपया था उसके स्थान पर current account deficit हो गया 10100 करोड़ डॉलर यानी लगभग 5 लाख करोड़ रूपया.
महंगाई दर भी लगभग 8% से 9% के बीच रही परन्तु SENSEX हो गया 26000 यानी लगभग 4 गुना. अब हमारे अर्थशास्त्री क्योंकि SENSEX और GDP की दर से आर्थिक स्थिति नापते हैं उनके लिए यह स्वर्णिम युग था.
किस प्रकार की अनभिज्ञता है भारत सरकार के तथाकथित आर्थिक सलाहकारों के बीच में… इसके कारण पर विचार करें तो पता चलता है कि इसका कारण था कि भारत में बड़े नोटों का चलन 34% से 87% हो गया. 1999 में सोना 4000 रुपये प्रति 10 ग्राम से 2004 में 5800 रुपये प्रति 10 ग्राम हुआ यानि लगभग 55% का उछाल. या दूसरे शब्दों में लगभग 11% प्रति वर्ष.
अब 2004 से 2012 में 5800 प्रति 10 ग्राम से 31000 रुपये प्रति 10 ग्राम यानि कि 434% का उछाल यानि कि 54% प्रति वर्ष. अब कुछ अर्थशास्त्री इसमें बहलावा दे रहे हैं कि अंतर्राष्ट्रीय स्वर्ण की कीमत बढ़ रही थी.
परन्तु एक सच्चाई और है कि भारत देश लगभग 30% से 40% पूरे विश्व में स्वर्ण उत्पाद आयात करता है. पूरे विश्व में सोने की कीमतें परोक्ष रूप से भारत ही तय करता है. यदि भारत का स्वर्ण आयात कम हो जाये तो पूरे विश्व में स्वर्ण कीमतें गिर जाएंगी.
इसी तरह 1999 से 2004 में संपत्ति (property) की कीमतों में लगभग 33% की बढ़ोत्तरी दर्ज़ की गयी जबकि सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि 40% उन्ही पाँच वर्षों में दर्ज़ की गयी. अगले सात वर्षों में संपत्ति की कीमतों में चार गुने का बढ़ाव दर्ज़ किया गया. कई स्थानों पर तो दो वर्षों में कीमतें दुगुनी पायी गयी.
इसी प्रकार SENSEX में चार गुणी बढ़ोत्तरी दर्ज़ की गयी. अब यह क्यों हुआ? इसका कारण था कि देश की अर्थव्यवस्था में बड़े नोटों का प्रचालन ज़ोर शोर से बढ़ा. बड़े नकदी के कारण स्वर्ण की कीमतों, ज़मीन की कीमतों और संपत्ति की कीमतें बढ़ी.
इसके साथ ही हवाला से बाहर गया पैसा जो कि पार्टीसिपेट्री (participatory) नोट के साथ आया और सट्टा बाज़ार में लग गया जिसके कारण SENSEX 26000 तक गया.
इस प्रभाव को अर्थशास्त्र में नाम दिया गया है परिसंपत्ति मुद्रास्फीति (asset inflation) जिसके कारण SENSEX में ज़बरदस्त उछाल आया परन्तु भारत के 80% से अधिक लोगों को कुछ प्राप्त नहीं हुआ.
इसी के फलस्वरूप wealth effect हुआ जिसे अर्थशास्त्र में धन प्रभाव कहा जाता है. जिसके कारण मकानों, सट्टा बाज़ार और सोने की कीमतों में भारी बढ़ोत्तरी दर्ज़ की गयी. यह सब उस समय हुआ जब देश की बागडोर तथाकथित बुद्धिमान अर्थशास्त्री के हाथ में थी.
इसी कारण से सकल घरेलू उत्पाद बढ़ा लेकिन रोजगार नहीं बढ़ा. ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी बढ़ी और भारत सरकार को तथाकथित उन्नति के बावजूद भी 2008 तक मनरेगा या महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना पूरे देश में चलानी पड़ी.
यह कैश का ही खेल था जो स्वर्ण, संपत्ति और सेंसेक्स में पैसा घूमता रहा और भारत के आम आदमी के काम नहीं आया.
सन 2000 में लगभग 56,000 करोड़, 2005 में 2,47,000 करोड़, 2010 में 7,48,000 करोड़ और 2015 में 14,18,000 करोड़ के 500 और हज़ार रुपये के नोट थे. यदि आज इस पर अंकुश नहीं लगता तो यह 2025 तक 30 लाख करोड़ तक पहुँच जाता. इसीलिए नोटबंदी आवश्यक थी.