शमन मंदिर
हम लोग अब शमन मंदिर के लिए चले. बताया गया कि अशोक वाटिका जाने के पहले इस मंदिर में आना ज़रुरी है. ऐसे जैसे इजाजत लेनी हो वहां जाने के लिए. शमन का मतलब पूछा तो श्रीलंका प्रेस एसोशियेशन के उपुल जनक जयसिंघे ने बताया कि लक्ष्मण, लक्ष्मण, लक्ष्मण, लक्समन, लक्समन होते-होते शमन, शमन हो गया. यानी एक तरह से लक्ष्मण का ही रुप. शमन भगवान का वाहन हाथी है.
वहां हाथी भी उपस्थित था. वैसे भी दुनिया में सब से ज़्यादा हाथी अगर अभी कहीं हैं तो वह श्रीलंका में हैं. बताते हैं कि श्रीलंका में हाथी की लीद से कागज़ भी बनाया जाता है. मंदिर में भगवान शमन की मूर्ति तो थी ही, बड़े-बड़े असली हाथी दांत भी थे.
कुछ देवियों और बुद्ध की बड़ी सी मूर्ति भी थी. यह मंदिर एक ट्रस्ट के तहत चलता है. इस का परिसर बहुत बड़ा है. बाक़ी सब कुछ भारत जैसा ही है. जैसे भारत में मंदिर के आस-पास फूल, प्रसाद, बच्चों के खिलौने, गृहस्ती के छोटे-मोटे सामान आदि की दुकानें होती हैं, खाने-पीने की दुकानें होती हैं, यहां भी थीं. ढेर सारी. ऐसे ही भारत और श्रीलंका में निन्यानवे प्रतिशत समानताएं मिलीं. हर चीज़ में.
यहां तक कि नाम भी भारतीयों के नाम जैसे. एक सरनेम हटा दीजिए, सारे नाम यही हैं. भाषा और कुछ विधियों का ही फ़र्क है. वहां की भाषा पर भी संस्कृत का बहुत प्रभाव है. वहां बोली जाने वाली, लिखी जाने वाली सिंहली और तमिल की भी संस्कृत जैसे मां है. बहुत सारे शब्द इसी लिए हिंदी जैसे लगते हैं. जैसे जन्मादि शब्द कई बार सुना तो मैं ने पता किया कि इस का अर्थ क्या है. पता चला कि मीडिया. इसी तरह वहां एक शब्द है स्तुति. हर कोई वक्ता अपने संबोधन के बाद स्तुति ज़रुर कहता. हमारे यहां स्तुति प्रार्थना के अर्थ में है. लेकिन वहां स्तुति का अर्थ है धन्यवाद, शुक्रिया.
लेकिन सभापति, उप सभापति जैसे शब्दों के अर्थ जो भारत में हैं, वही श्रीलंका में भी. हम लोग सुविधा के तौर पर भले श्रीलंका प्रेस एसोशिएशन कहते रहे और वह लोग भी लेकिन वह आपसी संबोधन में इसे श्रीलंका पत्र कला परिषद संबोधित करते रहे. करते ही हैं. संबोधन में भी. ऐसे ही तमाम सारे शब्द, वाक्य, वाक्य विन्यास भी हिंदी के बहुत क़रीब दीखते हैं. हिंदी क्या सच कहिए तो संस्कृत. संस्कृत ही उन की भाषाओं की जननी है. वैसे कहा जाता है कि सिंहली भाषा पर गुजराती और सिंधी भाषा का भी बहुत प्रभाव है. तो भारतीय भाषा ही नहीं, भारतीय भोजन, फूल, फल आदि भी. बस उन के भोजन की थाली में रोटी न के बराबर है. चावल बहुत है. वह भी मोटा चावल. पांच सितारा, सात सितारा होटलों में भी इसी मोटे चावल की धमक थी. उस में भी भुजिया चावल ज़्यादा. बस कोलंबो के होटल माउंट लेविनिया में खीर में एक दिन अपेक्षाकृत थोड़ा महीन चावल ज़रुर मिला.
रतनपुर में रत्नों का संग्रहालय
सबरगमुवा प्रांत की वनस्पतियों के वैभव के क्या कहने. रास्ते भर वहां की वनस्पतियों और उन की हरियाली को हम आंखों ही आंखों बीनते रहे, मन में भरते रहे. वहां के पर्वत जिस तरह हरे-भरे हैं, अपने भारत के पर्वतों से वह हरियाली लगभग ग़ायब हो चली है. बस एक शिमला की ग्रीन वैली में ऐसी हरियाली, ऐसी प्रकृति देखी है मैं ने या फिर शिलांग से चेरापूंजी के रास्ते में. चाय बागान वाले पर्वतों को छोड़ दीजिए तो बाक़ी पर्वत अपनी हरियाली गंवा चुके हैं. ख़ास कर अपने उत्तराखंड के पर्वत तो हरियाली से, वनस्पतियों के वैभव से पूरी तरह विपन्न हो चुके हैं, दरिद्र हो चुके हैं. रास्ते में एक रेस्टोरेंट में लंच के बाद वहां विभिन्न रत्नों की खदानें और एक चाय फैक्ट्री भी हमने देखी. कुछ साथियों ने रत्न और चाय भी ख़रीदे. इस के पहले रतनपुर में रत्नों का संग्रहालय भी हमने देखा.
26 अक्टूबर की रात हम लोगों को एक गांव सीलगम में रुकना था. इस गांव को सबरगमुवा प्रांत की सरकार ने विलेज टूरिज्म के तौर पर विकसित किया है. इस गांव में पहुंचते-पहुंचते रात घिर आई थी. पहाड़ियों के बीच बसे इस गांव में हम लोग जब पहुंचे तो यहां भी सभी को पान भेंट कर नृत्य और संगीत के साथ स्वागत किया गया. सबरगमुवा प्रांत के पर्यटन मंत्री अतुल कुमार भी उपस्थित थे. लेकिन स्वागत किया गांव के लोगों ने ही.
सबरगमुवा यूनिवर्सिटी में टूरिज्म डिपार्टमेंट के सीनियर लेक्चरर डॉक्टर एम एस असलम ने वहां के टूरिज्म के बाबत एक प्रजेंटेशन भी पेश किया. पर्यटन मंत्री ने भी भारतीय पत्रकारों का अभिनंदन किया. अपना पर्यटन साहित्य भेंट किया. और सब से सरलता से मिलते रहे. बाद में गांव के बच्चों और लोगों ने लोक नृत्य और पारंपरिक गीत प्रस्तुत किए. डिनर के बाद गांव के अलग-अलग घरों में भारतीय पत्रकारों को ठहराया गया.
किसी घर में एक, किसी घर में दो. सभी पत्रकारों ने अपने घर की तरह इन घरों को समझा. और घर का पूरा आनंद लिया. गांव के लोगों ने भी हर किसी को मेहमान की तरह सिर-माथे पर बिठाया. इस गांव का भोजन और आतिथ्य सत्कार श्रीलंका के किसी सात सितारा होटल से भी ज़्यादा अनन्य था, अतुल्य था. आत्मीयता, सरलता और निजता में भिगो कर भावुक कर देने वाला. देसीपन में ऊभ-चूभ.
माटी की महक, गमक और सुगंध में डूबा किसी आरती में कपूर की तरह महकता और इतराता हुआ. आत्मीयता और नेह के सागर में छलकता हुआ. सांस्कृतिक कार्यक्रमों के बाद बिलकुल सामान्य और साधारणजन की तरह दिखने वाले पर्यटन मंत्री अतुल कुमार से मैं ने पूछा कि आप की इतनी सरलता का राज क्या है ? तो वह शरमाते और सकुचाते हुए बोले, ‘ मैं तो ऐसे ही हूं !’ इस धुर देहात में भी मंत्री के साथ कोई सुरक्षाकर्मी और फौज-फाटा न देख कर उन से पूछा कि आप की सिक्योरिटी के लोग कहां हैं ? आप के स्टाफ़ के लोग कहां हैं ? तो वह फिर सकुचाए और बोले, ‘ सिक्योरिटी हमारे साथ कभी होती नहीं. उस की ज़रुरत भी नहीं. स्टाफ़ के लोगों की यहां ज़रुरत नहीं. ‘
तो क्या फिर अकेले ही आए हैं यहां ? वह सकुचाते हुए फिर शरमाए और बोले, ‘ नहीं अकेले नहीं आया हूं. एक सरकारी ड्राइवर है न ! ‘ अद्भुत था यह भी. यहां भारत में तो एक ग्राम प्रधान या सभासद भी अकेले नहीं चलता. कोई विधायक भी बिना गनर और फ़ौज फाटे के नहीं चलता. और मंत्री ? वह तो धरती हिलाते हुए, धूम-धड़ाका करते हुए, पूरी ब्रिगेड लिए चलता है. पूरा इलाक़ा जान जाता है कि मंत्री जी आने वाले हैं. सारा सिस्टम नतमस्तक रहता है. थाना, डी एम , यह और वह कौन नहीं होता ? प्रोटोकाल की जैसे बारिश होती रहती है. पर यहां बरसे कंबल भीजे पानी वाला आलम था.
ख़ैर भोजन के बाद के वी जयसेकर और श्रीमती बद्रा के घर गया रहने और सोने के लिए. थोड़ी पहाड़ी चढ़ कर. साधारण सा घर. एक छोटे से कमरे में एक डबल बेड और दो सिंगिल बेड. बिलकुल ठसाठस. गृह स्वामी को उम्मीद थी कि चार लोग भी आ सकते हैं. लेकिन पहुंचे हम दो लोग ही. एक मैं और दूसरे चमोली, उत्तराखंड के देवेंद्र सिंह रावत. कमरा तो साधारण था ही, कमरे से थोड़ी दूर पर बाथरुम और साधारण. बल्कि जुगाड़ तकनीक पर आधारित. ख़ास कर कमोड का फ़्लश. देख कर पहले तो मैं उकताया लेकिन फिर हंस पड़ा. ढक्कन ग़ायब. और फ़्लश के नॉब की जगह एक तार रस्सी जैसा बंधा था. खींचते ही फ़्लश का पानी निकल पड़ता था. खिड़की पर शेविंग वाले रिजेक्टेड ब्लेड से जगह-जगह पैबंद की तरह लटका कर खिड़की को कवर करने का जुगाड़ बनाया गया था.
स्पष्ट है कि इस सुदूर देहात में प्लम्बर और बाथरुम से जुड़े सामान का मिलना सुलभ नहीं होगा तो यह जुगाड़ तकनीक खोज ली गई होगी. शावर भी जुगाड़ के दम पर था. ऐसे ही और भी कई सारे जुगाड़. लेकिन कमरा, बाथरुम भले साधारण था, जुगाड़ तकनीक पर आधारित था लेकिन के वी जयसेकर और श्रीमती बद्रा साधारण लोग नहीं थे. शबरी भाव से भरे हुए थे. आतिथ्य सत्कार में नत. रात का भोजन हम लोग कर चुके थे सो अब सोना ही था. भाषा की समस्या भी थी. वह सिंघली बोलने वाले लोग थे. हम हिंदी और भोजपुरी भाषी. लेकिन गांव वाले हम भी हैं.
गांव की संवेदना, गांव का अनुराग और उस का वैभव, उस की संलिप्तता और शुरुर हमारे भीतर भी था. उन के भीतर भी. इस दंपति की सत्कार की आतुरता देख कर मुझे अपना बचपन याद आ गया. जब शहर से गांव जाता था तो अम्मा को लगता था कि क्या बना दे, क्या खिला दे, क्या दे दे. जब टीन एज हुआ तो जब कभी नानी के गांव यानी अपने ननिहाल जाता था और अचानक थोड़ी देर बाद चलने लगता तो वापसी के समय नानी बेचैन हो जातीं. कोई ताख, कोई बक्सा उलटने-पलटने लगतीं. और कहतीं, नाती बस तनी एक रुकि जा ! वह बेचैन हो कर रुपया, दो रुपया खोज रही होतीं थीं, कि मिल जाए तो नाती के हाथ में रख दें.
मैं कहता भी कि इस की कोई ज़रुरत नहीं. लेकिन नानी हाथ पकड़ कर, माथा चूम कर रोक लेतीं. कहतीं, अइसे कइसे छूछे हाथ जाए देईं ? बिना सोलह-बत्तीस आना हाथ पर धरे ? और वह कैसे भी कुछ न कुछ खोज कर दो रुपया, पांच रुपया दे ज़रुर देतीं. साथ में चिवड़ा, मीठा भी बांध देतीं. भर अंकवार भेंट कर, माथा चूम कर, आशीष से लाद देतीं. अम्मा और नानी का यही भाव इस दंपति के चेहरे पर भी मैं पढ़ रहा था. आत्मीयता में विभोर छटपटाहट की वही रेखाएं देख रहा था. कि हम लोगों को कोई असुविधा न हो. सो असुविधा की सारी इबारतें इस शबरी भाव में बह गईं. और हम उस खुरदुरे बिस्तर पर सो गए. नींद भी अच्छी आई.
अमूमन मेरी सुबह थोड़ी देर से होती है. मतलब देर तक सोता हूं. लेकिन सबरगमुवा प्रांत के इस सीलगम गांव में मेरी सुबह अपेक्षाकृत ज़रा जल्दी हो गई. खुली खिड़की से आती रौशनी ने जगा दिया. श्री के वी जयसेकर और श्रीमती बद्रा पहले ही से जगे हुए थे. ऐसे जैसे हमारे जागने की प्रतीक्षा में ही थे. चाय के लिए पूछा. अपनी टूटी फूटी अंगरेजी में. मैं ने हाथ जोड़ कर उन्हें बताया कि सारी, मैं चाय नहीं पीता. सुन कर वह लोग उदास हो गए.
हम उन के घर का छोटा सा बग़ीचा घूमने लगे. किसिम-किसिम के फूल, फल दिखाने लगे दोनों जन. कटहल, केला, आंवला, आम आदि. अजब था किसी पेड़ पर आम के बौर, किसी पेड़ पर टिकोरा तो किसी पेड़ पर पका हुआ या कच्चा आम भी. यह कैसे संभव बन पा रहा है, एक ही मौसम में. यह दंपति हमें भाषा की दिक्कत के चलते समझा नहीं पाए और हम नहीं समझ पाए. जैसे टूटी-फूटी अंगरेजी उन की थी, कुछ वैसी ही टूटी-फूटी अंगरेजी हमारी भी तो थी. और उस घर में ठहरे हमारे साथी देवेंद्र सिंह रावत तो हम सब से आगे की चीज़ थे. अंगरेजी में हेलो, यस-नो और ओ के से आगे उन की कोई दुनिया ही नहीं थी. कोई ज़मीन ही नहीं थी. फिर वह बेधड़क हिंदी पर आ जाते. आप को समझ आए तो समझिए, नहीं आता तो मत समझिए. और आगे बढ़िए.
न सिर्फ़ रावत बल्कि कुछ और भारतीय साथियों के साथ भी यह मुसीबत तारी थी. जैसे एक साथी डायनिंग टेबिल पर थे. उन्हें नैपकिन की ज़रुरत थी. हेलो कह कर एक वेटर को उन्हों ने बुलाया. वेटर के आते ही उन्हों ने हाथ के इशारे से हाथ पोंछने का अभिनय किया. वेटर ने फ़ौरन उन्हें नैपकिन ला कर दे दिया. यह और ऐसे तमाम काम कई सारे साथी इशारों से भी संपन्न कर लेते थे बाख़ुशी। इतना कि कई बार नरेश सक्सेना की कविता याद आ जाती थी :
शिशु लोरी के शब्द नहीं
संगीत समझता है
बाद में सीखेगा भाषा
अभी वह अर्थ समझता है
यह कविता और इस की ध्वनि श्रीलंका में बारंबार मिली. मिलती ही रही. दोनों ही तरफ से. भाषाई तोतलापन कैसे तो अच्छे खासे आदमी को शिशु बना देता है, लाचार बना देता है. यह देखना भी एक निर्मल अनुभव था. जैसे कि एक बार कोलंबो के माउंट लेविनिया होटल में मेरे साथ भी हुआ. इडली के साथ सांभर में अचानक मिर्च इतनी ज़्यादा मिली कि मैं जैसे छटपटा पड़ा. सिर हिलाने के साथ ही पैर पटकने लगा. कि तभी एक वेटर पानी लिए दौड़ आया. पानी दे कर वह पलटा. अब की उस के हाथ में रसमलाई की प्लेट थी. पानी पी कर, रसमलाई खा कर जान में जान आई.
उस ने शब्दों में मुझ से कुछ नहीं कहा. न ही मैं ने कुछ कहा. लेकिन मेरी आंखों में उस के लिए कृतज्ञता थी. और मैं ने प्लेट मेज़ पर रखा फिर उस से हाथ मिलाया. वह सिर झुका कर कृतज्ञ भाव में हंसते हुए चला गया. ऐसे जैसे मैं ने उसे क्या दे दिया था. ऐसे ही साझा कृतज्ञ भाव में डूबे हुए थे हम और के वी जयसेकर और श्रीमती बद्रा दंपति. वह चाय के लिए फिर-फिर पूछ रहे थे. और मैं उन्हें हाथ जोड़ कर विनय पूर्वक मना करता रहा.
वह चाहते थे कि कुछ तो मैं ले लूं. मैं ने उन्हें बताया कि बिना नहाए-धोए, पूजा किए मैं कुछ भी नहीं खाता-पीता. वह मान गए. नहा कर मैं ने पूजा के लिए पूछा कि कोई ऐतराज तो नहीं. वह मुझे अपने घर में रखी कुछ फोटुओं के पास ले गए. वहां बुद्ध की छोटी सी मूर्ति के साथ-साथ दुर्गा और अन्य देवियों की फोटो भी लगी थी.
उन्हों ने मुझे अगरबत्ती का पैकेट और दियासलाई भी दी. मेरे साथ उन्हों ने भी हाथ जोड़ कर शीश नवाया. वह अपने पूजा स्थल पर दो मिनट मेरे पूजा कर लेने से हर्ष विभोर थे. मैं कमरे में आ कर बैठा ही था कि वह मेरे लिए आंवला का जूस ले कर आए. रावत जी ने चाय पी और मैं ने आंवला का जूस. हम ने एक दूसरे के परिवार के बारे में, काम धाम के बारे में बात की. बच्चों के बारे में बात की. इस दंपति के चार बच्चे हैं. दो बेटा, दो बेटी. सब की शादी हो गई. सब बच्चे शहरों में सेटिल्ड हो गए हैं. अच्छी नौकरियों में हैं. कोई कैंडी में है, कोई कोलंबो में. अब गांव में यह दंपति अकेले रह गए हैं. कभी-कभी बच्चे आ जाते हैं गांव. तो कभी यह लोग बच्चों के पास चले जाते हैं. फ़ोन पर बात होती रहती है. हालचाल मिलता रहता है.
मुझे अपने अम्मा, पिता जी की याद आ गई. वह लोग भी गोरखपुर के अपने गांव में रहते हैं. कभी हम चले जाते हैं, कभी वह लोग आ जाते हैं. फ़ोन पर बातचीत होती रहती है. हालचाल मिलता रहता है. स्थितियां लगभग एक सी हैं. अम्मा-पिता जी गांव किसी क़ीमत छोड़ना नहीं चाहते, इस दंपति का भी यही क़िस्सा है. अपनी माटी से मोह का मोल यही है. अनमोल रिश्ता यही है. जिसे कोई सुविधा, कोई सौगात समूची दुनिया में छीन नहीं सकती. हां, हमारे अम्मा-पिता जी के साथ एक सौभाग्य यह है कि वह अकेले नहीं रहते. एक छोटे भाई की पत्नी और छोटे बच्चे उन के साथ रहते हैं. ताकि उन्हें भोजन बनाने आदि अन्य काम में दिक्कत न हो. अकेलेपन का भान न हो.
इस दंपति के साथ यह सौभाग्य नहीं है. बात अब बच्चों से हारी-बीमारी और सुख-दुःख पर आ गई है. श्रीमान के वी जयसेकर तो इकसठ-बासठ वर्ष के हो कर भी स्वस्थ हैं. ठीक मेरे बयासी वर्षीय पिता जी की तरह. लेकिन श्रीमती बद्रा के साथ बीमारियों का डेरा है. शुगर तो है ही, उन के घुटने की कटोरी घिस गई है. यह बात उन्हें मुझे समझाने और मुझे इसे समझने में बहुत समय लग गया. और अंततः नरेश सक्सेना की कविता की शरण में जा कर यानी इशारों-इशारों में समझना पड़ा. और जब मैं समझ गया तो श्री जयसेकर के चेहरे पर किसी बच्चे की सी चमक आ गई. मैं ने कहा कि इस का ऑपरेशन करवा कर कटोरी रिप्लेस करवा लें. उन्हों ने माना तो कि यही एक उपाय है.
भारत के पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के घुटने के रिप्लेस के बारे में भी उन्हों ने पढ़ रखा है लेकिन सब कुछ के बावजूद श्रीमती बद्रा इस के लिए मानसिक रुप से तैयार नहीं हैं. जाने पैसे की दिक़्क़त है या कुछ और जानना मुश्किल था. बहरहाल एक नोटबुक ला कर श्री जयसेकर ने हमारे सामने रख दी. कि उस पर कोई कमेंट अंगरेजी में लिख दूं. ताकि सनद रहे और वक़्त ज़रुरत काम आए. उन्हों ने यह भी बताया कि आप लोग पहले टूरिस्ट हैं जो हमारे घर ठहरने आए. गांव में और लोगों के घर तो टूरिस्ट आते रहे हैं पर उन के घर हम पहले टूरिस्ट थे.
हमने तो काम चलाऊ अंगरेजी में एक छोटा सा नोट लिख दिया. पर अपने रावत जी को जब लिखने को कहा गया तो उन्हों ने बेधड़क पन्ना पलटा और हिंदी में चार लाइन लिख कर नोट बुक फट से बंद कर के खड़े हो गए. अब के वी जयसेकर और श्रीमती बद्रा के घर से विदा लेने का समय आ गया था. यह दंपति अनुनय-विनय कर रहे थे, कह रहे थे कि आप फिर कभी सपरिवार आइए न यहां और हमारे ही घर ठहरिए. हम यस-यस और श्योर-श्योर कहते रहे. शायद झूठ ही. अपने झूठ पर शर्म भी आ रही थी. लेकिन कहते भी तो उन से क्या कहते भला ? एक घर में प्रतिनिधिमंडल के सभी लोगों के एक साथ ब्रेक फास्ट की व्यवस्था थी. वहीं जहां हम लोगों ने रात में डिनर लिया था.
हम लोगों ने विदा के पूर्व अपने-अपने मोबाइल से एक दूसरे के साथ फ़ोटो खिंचवाई. गले मिले. चलते समय श्रीमती बद्रा अचानक झुकीं और मेरे पांव पर अपना माथा रख कर प्रणाम की मुद्रा में आ गईं. पीछे हटते हुए मैं लज्जित हो गया. मैं ने उन्हें ऐसा करने से मना किया और हाथ जोड़ लिया. वह फिर गले लग गईं.
हम लोग ब्रेकफास्ट की जगह पहुंचे. इस बहाने गांव और उस की प्रकृति भी देखी. रात आए थे तब अंधेरा था. जहां-जहां बिजली की रौशनी थी वही जगह दिखी. पर कोई गांव भी भला बिजली की रौशनी में देखा जाता है ? या दीखता है भला ? अब चटक सुबह थी और चलते-फिरते हम लोग थे. पहाड़ी के बीच बसा यह गांव था. चढ़ाई-उतराई थी. नहर में बहता पानी था, धान के खेत थे. बींस और तमाम सब्जियों से भरे खेत थे. फलों से लदे वृक्ष और तमाम वनस्पतियां थीं. आम, कटहल, केला आदि के वृक्ष फलों से लदे पड़े थे। बस नहीं था तो गांव में तरुणाई नहीं थी.
जैसे वृद्धों का गांव था यह. हमारे भारतीय गांवों की तरह. तरुणाई यहां भी शहरों की तरफ कूच कर गई थी. जैसे पूरी दुनिया का यही हाल है. ग्लोबलाईजेशन की कीमत है यह. इक्का-दुक्का युवा. मुंह तंबाकू से लाल और हरे-भरे. पर्यटन विभाग इन परिवारों को प्रति व्यक्ति, प्रति दिन के हिसाब से साढ़े सात सौ रुपए रहने के लिए देता है. यह वृद्धों का गांव इस को भी अपना रोजगार और सौभाग्य मान लेता है.
ब्रेकफास्ट की जगह जैसे सारा गांव हम लोगों को विदा करने के लिए इकट्ठा हो गया है. स्त्री-पुरुष, छिटपुट बच्चे भी. ब्रेकफास्ट के बाद हम लोग चले. चले क्या विदा हुए. जैसे कोई मेहमान विदा हो. जैसे घर से कोई बेटी विदा हो. रात आए थे हम लोग तो अंधेरा मिश्रित बिजली की रौशनी में भी गांव चहक रहा था. स्वागत में चहक रहा था. अब चटक सुबह में भी उदास था. कोई नृत्य, कोई गायन, कोई संगीत, कोई पान नहीं था. विदा की थकन और गहरी उदासी तारी थी सभी ग्रामवासियों के चेहरे पर. बच्चन जी की मधुशाला की एक रुबाई याद आ रही थी :
छोटे-से जीवन में कितना प्यार करूं, पी लूं हाला,
आने के ही साथ जगत में कहलाया ‘जानेवाला’,
स्वागत के ही साथ विदा की होती देखी तैयारी,
बंद लगी होने खुलते ही मेरी जीवन-मधुशाला।।