25 दिसंबर, वर्ष-2016 का अंतिम रविवार…
ईसाई धर्म के संस्थापक संत ईसा मसीह का जन्मदिवस, इसी तारीख को विज्ञान के चौंकाते नियम देनेवाले सर न्यूटन का जन्मदिन, हालाँकि इस सप्ताह गणितज्ञ एस. रामानुजम् और गायक मोहम्मद रफ़ी जैसे महान भारतीयों के जन्मदिवस भी रहे.
हो सकता है, दुनियावी भीड़ में और कई अचिन्हें के जन्मदिवस 25 दिसंबर को हों ! भारत में सनातनी हिन्दू धर्म से बिछुड़ते लोगों को अपने वज़ूद को भान कराने के विहित धर्म की नगरी ‘वाराणसी’ में ज्ञानालय की स्थापना के प्रति कटिबद्ध हो कंधे पर थैला टाँगे व द्वार-द्वार भटकते दान माँगते और सबके हृदयवत्सल फ़कीर यानी ‘महामना’ मर्मज्ञ मदन मोहन मालवीय जी का जन्मदिन भी यही तारीख लिए है.
मंदिर से आती शंख-ध्वनि, मस्ज़िद से आ रही अज़ान, गुरद्वारे के घंटे और गिरजे से आती ‘हैप्पी क्रिसमस डे’ की अतल ध्वनि-प्रतिध्वनियों के बीच ‘अटल’ का जन्म होना नए युगयात्रा में नींव पड़ना कहा जाएगा…
90 के दशक में अथवा 1989 में जब वे प्रधानमन्त्री नहीं बने थे, संभवत: तब लोकसभा में वे प्रतिपक्ष के नेता होंगे, लाउडस्पीकर में उनके देशभक्ति से ओत-प्रोत भाषण सुन मैं बौराया करता था. तबतक दैनिक ‘आज’ में ‘बालकवि गोष्ठी’ का मेरे द्वारा प्रेषित समाचार छप चुका था और साहित्यिक पत्रिका ‘भागीरथी’ ने मेरी देशभक्ति कविता ‘तुम पक्के हिन्दुस्तानी’ छाप चुका था और मेरे अंदर अपना ‘पत्र’ निकालने का सपना हिलौरे मारने लगा था, इसी बीच मैं जयपुर से प्रकाशित साप्ताहिक ‘आमख्याल’ के संपर्क में आया था.
यहां कटिहार में पाठक सर, ज़ख़्मी सर, सरस जी, प्रदीप दुबे जी, देवेश जी इत्यादि के बीच भी विशुद्ध हिंदी के अखंड-जाप व महान नाम ‘अटल बिहारी वाजपेयी’ के ‘भाषण’ को लिए ‘सिक्का-छाप’ जमाए हुए था. अपनी बुआ के यहाँ मैं सूजापुर गया हुआ था. संभवत: बरारी, काढ़ागोला या कुर्सेला में या यहीं कहीं अटल जी के कार्यक्रम के अनाउंसमेंट हो चुका था और मैं तब बौद्धिक बच्चा किसी तरह उनके निकट पहुँच गया, जो कि इस अद्भुत भाषणबाज़ जीव को मैं काफी निकट से देखना चाहता था और हड़बड़ाहट में बगैर प्रणाम-पाती के पूछ बैठा- ” दद्दू, आपका नाम ‘अटल’ ही क्यूँ है ?”
उस समय सुरक्षागार्ड की क्या स्थितियाँ थीं, अभी भिज्ञ नहीं हो पा रहा हूँ ! खैर, उनके जवाब से सभी संतुष्ट हो गए थे कि “मेरे माँ-बाप ने मेरा नाम ‘अटल’ यूँ ही नहीं रखा है. मेरा मकसद यह है कि मैंने आज तक जो प्रतिज्ञाएँ की हैं, अवश्य वह पूरी होकर रही है.”
जब पहली बार वाजपेयी जी ने भारत के 11 वें प्रधानमन्त्री के रूप में शपथ ली थी, तब मैं ‘आमख्याल’ के कुछ अंक-स्तंभों के सम्पादन कर चुका था, जिसे लेकर कालान्तर में ‘लिम्का बुक ऑफ़ रिकार्ड्स’ ने मुझे देश के दूसरे सबसे युवा संपादक होने को लेकर पत्र भेजा था. इसी साप्ताहिक के 30 मई 1996 अंक में उस सन्देश को शामिल करते हुए ‘आमख्याल’ की कवर-स्टोरी “भारत का दूसरा विक्रमादित्य : अटल बिहारी वाजपेयी” के रूप में मेरा आलेख छपा.
सत्यश:, श्रीमान् अटल बिहारी वाजपेयी आदर्श-स्तम्भ के ध्रुवतारा, ज्ञान के पवित्र-संगम, शुभ्र हिमालय से भावों को समेटे धीर-गंभीर एवम् तेजस्वी वीर पुरुष हैं. ऐसे मर्द तो आँधियों में भी दीपक जला लेते हैं. यदि ऐसे कर्मठ व्यक्तित्व एवं कृतित्व के धनी भारत जैसे धर्मदेश के मसीहा न बने, तो कौन बनेंगे? यह देश का सौभाग्य है कि उनकी संस्कृति की अक्षुण्ण परम्परा की इज़्ज़त रखनेवाले कवि, पत्रकार व साहित्यकार प्रधानमन्त्री बने हैं.
अटल जी ऐसे प्रथम शख्स है, जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी में भाषण दिए. उन्हें अपने हिन्दू, हिंदी, हिन्दुस्तान, हिन्द महासागर और जय हिन्द पर गर्व है. विपक्षी सरकार में सर्वोच्च सांसद का पुरस्कार पाया. उनके अविवाहित रहना भी स्वयं में भी काफी त्याग है. तीन बार भारत के प्रधानमन्त्री, चाहते तो अन्य की तरह स्वयं को भी ‘भारत रत्न’ से नवाज़ सकते थे, किन्तु विपक्षी सरकार द्वारा ही उन्हें ‘पद्म विभूषण’ मिला था और ‘भारत रत्न’ भी उस प्रधानमन्त्री के अग्रसारण पर मिला, जिनसे कुछ ‘थीम’ लिए वैचारिक-मतभेद हो चुका था, किन्तु दोनों माननीयों ने इसे कभी मनभेद नहीं बनाया. ‘भारत रत्न’ प्राप्ति पर उन्हें पहला बधाई-पत्र मेरा ही प्रेषित हुआ था, क्योंकि वाजपेयी जी के निज सचिव ने मुझे जवाब जनवरी-2015 के प्रथम सप्ताह ही प्रेषित किया है.
मध्य प्रदेश के ग्वालियर ‘सिंधिया’ घराने के कारण जाने जाते हैं, इसी ग्वालियर जनपद में कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में श्री कृष्ण बिहारी वाजपेयी के यहाँ 1924 में अटल बिहारी का जन्म हुआ था. हालांकि सरकारी नामांकन पंजी में जन्म वर्ष 1926 लिखा है, किन्तु वाजपेयी जी 1924 को ही सही मानते हैं. इसी 1924 के 24 दिसंबर को अमृतसर में मोहम्मद रफ़ी का भी जन्म हुआ हुआ था. साहित्यिक छवि दोनों में, क्या संयोग है ? कहा जाता है, अटल जी के ‘बिहारी’ नाम में उनके अनुसार बिहार से जुड़ाव हो सकता है. बिहार के चंपारण क्षेत्र में ‘वाजपेय’ ब्राह्मण है भी. यद्यपि महाकवि निराला भी कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे. लगता है, ऐसे कुल में सरस्वती बसती होंगी !
कई पुस्तकों के कवि-लेखक भारत रत्न श्रीमान् अटल बिहारी वाजपेयी की महत्वपूर्ण कविता-पुस्तक ”मेरी इक्यावन कविताएँ” हैं. कविता ‘मेरे प्रभु, मुझे उतनी ऊँचाई कभी मत देना’, ‘हार नहीं मानूँगा, रार नहीं ठानूँगा’ और ‘भारत–शंकर-शंकर, कंकड़-कंकड़’ प्रसिद्धि लिए हैं। कविता ‘मेरे प्रभु….’ पत्रिका ‘भागीरथी’ में भी छपी थी, तब 1992 में मेरी कविता ‘जननी की पुकार’ भी उसी अंक में अटल जी के साथ लगी थी. वाजपेयी जी गाहे-बगाहे अपने गुरु कवि शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ की कविता ‘क्या हार में, क्या जीत में ; किंचित् नहीं भयभीत मैं’ गुनगुनाया करते थे.
पूर्व प्रधानमन्त्री के 93 वें जन्मवर्ष में प्रवेश करने पर उनके दीर्घजीवी की कामना करता हूँ. इस ‘भारत रत्न’ को सादर नमन् करते हुए उन्हीं के लिए लिखी व 1996 में प्रकाशित अपनी कवितांश समर्पित है–
“है गरज़ता बार-बार, हिमालय से एक ही नारा,
हम सबों का है केवल, अटल जी ही सहारा.”
अब तो अटल जी सत्ता में नहीं हैं, किन्तु उनके शिष्यत्व-परम्परा के ‘नर’ (मानव) का इंद्र यानी ‘नरेंद्र’ यानी माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र भाई मोदी जी भारत के अभिभावक हैं !
देश के महान ‘अभियंता’ को पुनः मेरा नमन्.