उबलते दूध में निम्बू डाल मक्खन निकालना यानी केंद्र की भारतीय भाषा नीति का लिटमस टेस्ट
जब भी केंद्र सरकार भारतीय भाषाओँ के बारे में कोई निर्णय लेती है जिससे भारतीय भाषा-भाषीयों को कोई अधिकार मिलने जा रहे हो तो उसमे यहाँ के अंग्रेज़ीदां राजनेता / अधिकारी कोई न कोई ऐसा विवाद-तत्व या कहे कि उस जहाज में ऐसा छेद जरुर छोड़ देते है, जिससे दंगे तक हो जाते है और उस योजना का प्रसवपूर्व ही गर्भपात हो जाता है .
इसका ताज़ा उदाहरण है – नीट प्रवेश परीक्षा में केवल आठ भारतीय भाषाओँ का माध्यम उपलब्ध कराकर अन्य भारतीय भाषाओँ का इनसे झगड़ा करा देना और फिर इसका बहाना लेकर इस साल भी इसे भारतीय भाषाओँ में टालने की तैयारी हो रही है.
कन्नड़ भाषी मांग कर रहे है कि उनकी भाषा को भी इस परीक्षा का माध्यम बना दो. लेकिन केंद्र के राजनेता उन्हें चिढाने वाले शब्द-बाणों से ही उन्हें भेध रहे है. केन्द्रीय मंत्री जिनका इस मंत्रालय से भी नाता नहीं है, वे कह रहे है कि कर्नाटक सरकार से पहले पूछा था तो वहां के मेडिकल शिक्षा विभाग ने कहा था कि यह परीक्षा तो अंग्रेजी में होनी चाहिए.
कोई इनसे पूछे कि क्या यह परीक्षा मेडिकल शिक्षा विभाग के अधिकारीयों ने देनी थी? जो उनसे पूछा गया था. जिन विधार्थियों की शिक्षा कन्नड़ माध्यम से हो रही थी, उनसे क्यों नहीं पूछा गया या कब पूछा गया?
मेडिकल शिक्षा विभाग में यदि आईएएस रहे होंगे तो उनसे बड़ा अंग्रेजी का माई-बाप इस देश में कोई नहीं है और यदि उस विभाग में चिकित्सा पेशे से लोगों ने यह राय भेजी थी तो वे नहीं चाहते होंगे कि स्वदेशी भाषा वाले ग्रामीण उनके जैसे डॉक्टर क्यों बने? और उड़ीसा सरकार का क्या जिन्होंने उड़िया के लिए लिखकर भेजा था और उनकी भाषा को भी दरकिनार कर रखा है ?
इस देश में तो उलटे नियम ऐसे कई है कि दैनिक यात्रियों के लिए यदि कोई उपनगरीय रेल ( शटल ) चलानी होती है तो उस क्षेत्र के सांसद की राय सर्वोपरी होती है, जो राजनीति में आने के बाद या सांसद बनने से बहुत पहले रेल यात्रा करना ही छोड़ चुका होता है. जिसने रोजाना सौ किलोमीटर यात्रा करके जाना और आना हो, उससे पूछो या उनके साथ एक सप्ताह यात्रा करके देखो. लेकिन इसकी जहमत कौन उठाएगा और क्यों? जिसने परीक्षा देनी है उससे पूछने में शर्म कैसी है?
जब भी केंद्र सरकार भारतीय भाषाओँ के मुद्दे पर कोई कदम उठाती है तो उसका बतंगड़ जरुर खड़ा कर देती है. जैसे कोई राजभाषा का आदेश निकलता है तो सबसे पहले उसे तमिलनाडु भेजा जाता है कि उसके साथ पत्थर बंधकर आये उल्टा और केंद्र के सिर पर गिरे फिर आदेश वापिस ले लिया जाए.
रेल मंत्रालय को हिंदी सम्बन्धी कोई आदेश लागू करना हो तो सबसे पहले उन्हें दक्षिण या पूर्वोत्तर के रेलवे स्टेशन ही दिखाई देते है, फिर चाहे हिंदी भाषी स्टेशनों पर अंग्रेजी का बाल भी बांका न हो पाए.
पत्रकारिता के दिनों में मैंने इस बारे में केंद्र सरकार के सचिव स्तर के अधिकारी ( जो राजभाषा का काम भी देखते थे और बाद में उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार भी मिला ) से पूछा कि भाषा का कोई भी आदेश ऐसे क्यों लागू या प्रचारित किया जाता है कि दक्षिण या पूर्वोत्तर राज्यों को वह चिढ़ाने वाला लगता है.
उनका जवाब था यह उस आदेश, नीति या कार्य योजना का लिटमस टेस्ट होता है. मै दंग रह गया कि जिससे दंगे हो जाये, मारकाट हो जाये या वैमनस्य बढ़ जाए वह कैसे लिटमस टेस्ट हो सकता है ?
{ चित्र – शनिवार को बंगलुरु में कन्नड़ भाषी विधार्थी नीट प्रवेश परीक्षा कन्नड़ में भी आयोजित कराने की मांग के लिए प्रदर्शन करते हुए }
– ओम प्रकाश ‘हाथपसारिया’