गुलज़ार साहब की नज़्म जब पढ़ी थी…..
“बल्लीमारां की वो पेचीदा दलीलों की सी गलियाँ
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इसी बेनूर अँधेरी सी गली क़ासिम से
एक तरतीब चिरागों की शुरू होती है
एक क़ुरआने सुखन का सफ़्हा खुलता है
असद उल्लाह ख़ाँ ‘ग़ालिब’ का पता मिलता है”
एक ख़्वाहिश सी जगी थी…..कभी ग़ालिब की हवेली पर ज़ियारत का मौका मिले…..। कुछ ख़्वाहिशें सीने में ही दम तोड़ती हैं तो कुछ परवान चढ़ती है….. ‘ग़ालिब की हवेली’ घूमने की चाह परवान चढ़ने लगी.
कुछ जाती सिलसिले से कई दफ़े दिल्ली जाना हुआ लेकिन ग़ालिब से गुफ़्तगू मुक़म्मल न हो पाती….. ऊपर से दिल्ली के कुछ करीबी दोस्तों की मेरे लिए परवाह…… “बहुत मुश्किल है….. तुम कैसे जाओगी….. बहुत तंग गलियाँ हैं भीड़ से भरी।”….. पर कैसे समझा पाती दिल को…..? जिन गलियों में ग़ालिब ने ज़िन्दगी गुज़ार दी…… जहाँ से उनके शेरों और गज़लों ने परवाज़ भरी…. और जो उड़ाने आज भी जारी हैं….. वो भला मेरे लिए तंग कैसे….?
आख़िरकार 28 फ़रवरी 2016 दिन इतवार मुक़र्रर हो ही जाता है ग़ालिब से रूबरू होने का…. यकीन माने…. बहुत उमंगें भरी थीं और बेशुमार ख़्वाब भी. चाँदनी चौक पहुँचने के बाद….. फैसला पहले ही हो चुका था…. गलियाँ तंग है तो रिक्शे से बेहतरीन कोई सवारी नहीं….
रिक्शे वाले को पता यूँ बयां कर रही थी जैसे चप्पे-चप्पे से वाकिफ़ रही हूँ। सब देख रखा हो….. फ़िज़ाओं की खुशबु बस मुझे बुला रही थी और मैं उन आबो-हवा में महक रही थी. गुलज़ार साहब का चश्मा चढ़ाये बल्लीमारां की पेचीदा गलियों में दाख़िल हो गई…… बल्लीमारां की गलियों में दिल मेरा बल्लियों उछल रहा था। लेकिन गलियाँ उतनी पेचीदा नहीं थी और न ही उनमें उतना खम था…… या मेरा दिल उन गलियों की पेचीदगी को मानने को तैयार ही नहीं था। रिक्शे पर नज़रें इधर-उधर तलाशते….. मानो ग़ालिब आकर सामने खड़े होकर फ़रमाएंगे….. “मोहतरमा!…. आपका ही इन्तज़ार था”.
बल्लीमारां मोहल्ले में दाहिने हाथ को गली क़ासिम खुलती है। अफ़सोस ये था कि रिक्शेवाले गली क़ासिम जानते हैं पर किसके लिए गली खींच लाती है…… इस हक़ीक़त से कोसों दूर. बस गली में मुड़ते ही चन्द कदमों की दूरी पर एक लकड़ी का बुलन्द दरवाज़ा जोकि आम सा दिखता है…..नज़र आता है. लेकिन रिक्शेवाला आगे बढ़ा लेता है…… मुझे ग़ालिब की तस्वीर नज़र आती है….. मैं कहती हूँ….. ” रोको-रोको ….. पीछे चलो”. वो उतर कर रिक्शा पीछे खींचता है क्योंकि मोड़ने की जगह ही नहीं। फाटक के सामने एक गैरमामूली सा होटल…… जैसा कि आम चौराहों और गली के नुक्कड़ पर चाय के खोखे और होटल होते हैं. पता नहीं कैसे उस होटल मालिक ने मेरी खोजती निगाहें पढ़ ली….. बोला…. “यही ग़ालिब की हवेली है”.
एक सुकून की साँस खींच कर अन्दर दाखिल होती हूँ….. हवेली की सीलन भरी नमी में आँखें बन्द कर बस खुद को ग़ालिब के करीब पाती हूँ. न तो मैंने ग़ालिब पर विर्द किया है न ही बहुत पढ़ा है. लेकिन ग़ालिब की तरबियत खींचती है.
किसी भी शायरी के शौक़ीन को ग़ालिब की शख़्सियत और शायरी से इश्क़ जरूर होता है. हवेली की देख-रेख को सिर्फ एक चौकीदार था वो भी गैर सरकारी और कोई नहीं। दाहिने हाथ के सहन में ग़ालिब का एक बुत था और शीशे के अन्दर ‘दीवान-ए-ग़ालिब’. कहा मैंने उनके जानिब…… “देखो …… मुझे खींच लाये न”….. और ग़ालिब मुस्कुरा दिए.
चौकीदार ने बताया …… “ये बुत गुलज़ार साहब ने दिया है…… पहले कुछ नहीं था लेकिन गुलज़ार साहब के आने पर बहुत तब्दीली हुई है. अब हर बरस ग़ालिब की यौम-ए-पैदाइश जोरों-शोर से मनायी जाती है. हवेली का काफ़ी हिस्सा दूसरे लोगों के कब्ज़े में है”.
गुलज़ार साहब की मुलाज़मत हवेली में झलक रही थी. अन्दर आने पर हवेली के चप्पे-चप्पे से रूबरू हुई। सुर्खी-चूने से जुड़ी हुई एक-एक ईंट…. एक-एक ज़र्रा बोलता है जैसे बस सुनने के लिए दिल के कान खुले रहें.
“उग रहा दर-ओ-दीवार पे सब्ज़ा ग़ालिब
हम बयाबां में हैं और घर में बहार आई है”
हवेली की बैठक, कमरे, दीवारें, छत….. यूँ लग रहा था सब बोल उठेंगी और ग़ालिब के चाहने वालों से कहेंगी……”ये जो तुम ज़ियारत करने की सोच के आये हो…… ग़लतफ़हमी है तुम्हारी…… ग़ालिब ज़िन्दा है….. खुद में….., तुममें….., अपने शेरों में….., अपनी गज़लों में…… बस महसूस करो.”
और मैं ग़ालिब की सूरत आँखों में बसाये उसकी फ़िज़ा में घुली ख़ुशबू महसूस कर वापस आ गई ….. ग़ालिब की ख़ुशबू आज भी महका रही है मुझे.
” हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़-ए बयां और”
- अनीता सिंह