घर के सामने एक बड़ा सा बगीचा है सोसायटी का, बच्चों के खेलने और बुजुर्गों के टहलने के लिए… युवाओं को हमारे शहर में मिलने की कोई जगह उपलब्ध नहीं है, फिर भी इस उपवन में उनको एंट्री नहीं है… तो बेचारे ये कभी कभी garden के बाहर ही बेशर्मों की तरह खड़े मिल जाएंगे…
कहते हैं ना प्रकृति अपना रास्ता ढूंढ ही लेती है… वैसे ही ये प्राकृतिक प्रेम भी कोई न कोई कोना खोज ही लेता है…
खैर चूंकि बगीचा सोसायटी वालों का है तो सोसायटी के रहवासियों के अपने व्यक्तिगत उत्सवों के लिए बगीचा सहजता से उपलब्ध है… तो कभी किसी का ब्याह, कभी किसी बच्चे का जन्मदिन तो कभी कुछ और होता रहता है….
ऐसे ही कल एक महिला संगीत का कार्यक्रम उस बगीचे में रखा गया था जिसमें मैं भी बच्चों के साथ शामिल हुई….
बगीचे में प्रवेश के साथ ही जो माहौल दिखा…. तो मैं सबसे आखिर वाली कुर्सी पर बच्चों के साथ बैठ गयी… किसी को साईंबाबा बनाकर बिठा दिया गया था और गायक साईं भजन गा रहा था… फिर कुछ देर बाद ऐसे ही किसी को कृष्ण बनाकर बीच में खड़ा कर दिया और लोग उसके आसपास नाचने लगे…
मुझे बड़ा फूहड़ सा लग रहा था यह सब… सोच रही थी बैठे बैठे… कैसे ढोलक की थाप पर मटकी और भांगड़ा का रिवाज भुलाकर ये सब किराए के गीतकारों का मजमा खड़ा कर दिया है…. हमारे पापा के यहाँ परिवार में सभी शादियाँ गुजरात जाकर होती है तो हम भाई की शादी में ढोली भी इंदौर से लेकर गए थे… और पूरे सफ़र में मटकी करते हुए बारात का आनंद लिया था…
खैर बच्चों को भी भूख लगने लगी थी तो मैं उन्हें लेकर बाजू वाले गलियारे में चली गयी जहां खाने पीने की व्यवस्था थी… वहां पर जिसे देखो मेरी बिंदी को लेकर एक दूसरे से खुसुर फुसुर करता दिखा… चूंकि सिंधी समाज का कार्यक्रम था तो उनके लिए इतनी बड़ी बिंदी आठवें आश्चर्य के समान थी…
एक ने तो पूछ भी लिया अपने जबलपुर में मिलती है इतनी बड़ी बिंदी?
मैंने कहा नहीं मैं भी बाहर से मंगवाती हूँ… ये मेरी सहेली ने कोलकाता से भेजी है मेरे लिए….
उसने भी हंसकर जवाब दिया तभी आप काली कलकत्ते वाली लग रही हैं….
मैं ज़ोर से हंस दी और उसकी बेटी जो मुझे कब से गौर से देख रही थी… उसको माँ काली की तरह जीभ निकालकर चिढ़ा दिया….
इधर मेरा जीभ निकालना हुआ और उधर अचानक संगीत वाली जगह से आवाज़ आयी… ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे….
और इस मंत्र के बाद ही बेहद ही भावपूर्ण आवाज़ में गाना शुरू होता है… काली काली अमावस की रात में, काली निकली काल भैरव के साथ में…..
बच्चों को खिलाकर फुर्सत हो चुकी थी तो सोचा जल्दी से संगीत वाली जगह पर पहुँच जाऊं… देखने कि क्या हो रहा है वहां…. लेकिन बच्चे … बस एक आइसक्रीम दिला दो फिर चलते हैं…
और उधर गाना बज रहा है…….
ये अमावस की रात बड़ी काली…
ये अमावस की रात बड़ी काली…
घूमने निकली माता महाकाली…
एक दानव का मुंड लिए हाथ में….
काली निकली काल भैरव के साथ में….
मैनें बच्चों को जल्दी से आइसक्रीम पकड़ाई और कहा वहीं चलकर खा लेना…. लेकिन हमारे अंग्रेज बच्चे कहने लगे … मम्मा उस जगह खाने की चीज़ें ले जाना allowed नहीं है…
उधर से…..
केश बिखरे माँ के काले काले
केश बिखरे माँ के काले काले
नैना मैया के हैं लाले लाले
काला कुत्ता भैरव जी के साथ में
काली काली अमावस की रात में…
इधर मेरे पैर नहीं रुक रहे थे और ये अंग्रेज के बच्चे… मैंने दोनों का हाथ पकड़ा और चल दी संगीत वाले एरिया में…
उधर से गाने की आवाज़ आ रही है….
रूप भैरव जी का काला काला
रूप भैरव जी का काला काला
ये तो है मैया काली का लाला
बेटा घूमने चला माँ के साथ में….
काली काली अमावस की रात में ….
जब दोनों बच्चों को लेकर उस जगह पहुँची तो अपने आठ हाथ के साथ माँ काली साक्षात नृत्य कर रही थी….
एक हाथ में खून से लथपथ कटार, दूसरे हाथ में कटा मुंड, गले में मुंड माला, लाल लाल जीभ बाहर निकली हुई….
इस बीच गायक लोकल भाषा में किसी लाइन में पता नहीं कौन सा तांत्रिक शब्द बोल जाता है जो मुझे समझ नहीं आता लेकिन आगे की लाइन है…
चौंसठ जोगिनया मैया के साथ में….
काली काली अमावस की रात में…
काली निकली काल भैरव के साथ में…. सुनते हुए जो दृश्य मैं देखती हूँ तो दोनों बच्चों के हाथ मुझसे छूट जाते हैं… हाथ में आग लिए गोल गोल घूमती माँ काली को अपलक निहारती पता नहीं किस लोक में पहुँच जाती हूँ….
माता काली के मुख से निकले ज्वाला
गले पहने हैं मुंडों की माला
रूह काँपे हैं राही की रात में
काली काली अमावस की रात में…..
गोल घूमती हुई, नृत्य करती हुई, मुंह से आग निकालती काली माँ ने मुझे पूरी तरह से अभिमंत्रित कर दिया था… जब छोटे बेटे ने अचानक से मेरा हाथ खींचा तो पता चला मैं माँ काली से दस फीट की दूरी पर सबसे पहली पंक्ति में खड़ी उन्हें निहार रही थी…. बेटे को में तुरंत गोदी में उठा लेती हूँ…
बाकी लोगों की तरफ देखती हूँ तो सब अपनी अपनी गप्पों में लगे दिखे… बेटा मुझे देखे, कभी माँ काली को… मेरे अलावा एक वही मुझे दिखाई दिया जो उस भव्य गीत संगीत से प्रभावित हुआ था… उसके लिए भी मेरी तरह यह पहला अनुभव था….
तब तक मैं अपनी दुनिया में लौट आई थी…
गीत के अंत में शिवजी की एंट्री होती है परदे के पीछे से… अब जितनी मुग्ध होकर मैं माँ काली को देख रही थी उसी भाव भंगिमा के साथ शिवजी पर भी नज़र पड़ी… अब शिव जी तो शिवजी ठहरे … परदे के पीछे से पनीर टिक्का का मज़ा लेके आये हुए थे.. जब सामने आते हैं तो सबसे पहली पंक्ति में मुझे खड़ा देख वो भी बाकियों की तरह मेरी बिंदी पर अटक जाते हैं…
माँ काली को भुलाकर इस गोरी माँ के चक्कर में वो भूल ही जाते हैं कि वो यहाँ किसलिए आये हैं… जैसे ही उनको याद आता है वो वहीँ ज़मीन पर लेट जाते हैं… और माँ काली उन पर एक पाँव धरकर गायन का समापन करती है….
गीत एक भयानक हंसी के साथ ख़त्म हो जाता है… और मैं दोनों बच्चों को लेकर घर लौट आती हूँ…
अब चूंकि कार्यक्रम घर के बिलकुल सामने हो रहा था… तो ऑर्केस्ट्रा की आवाज़ घर तक भी उतनी ही तीव्रता से पहुँच रही थी…
घर पहुँचते ही स्वामी ध्यान विनय की ओर देखती हूँ… तो कहते हैं… बच्चों के चेहरे से तो समझ आ रहा है ठण्ड में आईसक्रीम का पूरा मज़ा लिया इसलिए खुश है… आपके चहरे पर….
मैं कुछ कहती इसके पहले ही वो बोल उठे… ये है हमारे जबलपुर का लोकसंगीत… मिल आई काली से….
फिर देर रात तक यूट्यूब पर वो ये गीत सुनाते रहे…
सुबह सबसे पहले उठकर मैंने उनको बताया… मुझे रात भर सपने में शेर दिखे… विशाल…. आसमान से छलांग लगाते हुए…..
वो नृत्य का जादू तो अब दोबारा नहीं घटित हो सकता इसलिए आप तो केवल इस गीत को सुनिए… और पहुँच जाइए माँ काली के चरणों में…
फिर कुछ दिंनों बाद गीत बाबू ने काली माँ का चित्र बनाकर उसे मंदिर में रखा और कुछ इस अंदाज़ में पूजा अर्चना की…. एक अंतिम बात … बच्चे विद्यालय में चाहे जो सीख कर आए… संस्कार उन्हें पूर्व जन्मों के कर्मों के साथ घर में ही मिलेंगे….
जय मॉ काली