अटल के और भी कई ऐसे काम हैं जो काबिले ज़िक्र हैं. और सलाम करने लायक हैं.
सौ साल से भी ज़्यादा पुराने कावेरी जल विवाद को वाजपेयी ने ही सुलझाया. नदियों को जोड़ने की योजना बनाई. राष्ट्रीय राजमार्गों पर आप को जहां कहीं भी अच्छी और चमकदार सड़क मिले तो आप ज़रुर अटल बिहारी वाजपेयी को शुक्रिया कहिए. काम अभी भी जारी है. यह योजना भी अटल जी की ही बनाई हुई है. हवाई अड्डों का विकास, केंद्रीय विद्युत नियामक आयोग आदि का गठन भी उन्हों ने ही किया. यह और ऐसे विकास की तमाम योजनाएं उन के खाते में दर्ज हैं. जो सब से बड़ी बात राजनीतिक रुप से उन के खाते में दर्ज है वह यह कि भारतीय राजनीति में गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री के रुप में उन्हों ने सब से लंबी पारी खेली. पहले तेरह दिन ,फिर तेरह महीने के आंकड़े के बावजूद बाद में गठबंधन सरकार को न केवल स्थायित्व दिया बल्कि उन समाजवादियों के साथ सफलपूर्वक सरकार चलाई, जिन समाजवादियों को कहा जाता है कि उन को साथ ले कर चलना मेढक तौलना है. वह विपक्ष की राजनीति में मील का पत्थर तो बने ही, आर.एस.एस. स्कूल से निकले अकेले ऐसे नेता हैं जिन्हों ने भाजपा को सांप्रदायिक पार्टी होने के शाप से मुक्त किया.
जार्ज फर्नांडीज़, शरद यादव, ममता बनर्जी, नीतीश कुमार जैसे सेक्यूलर नेताओं ने आगे बढ कर हाथ मिलाया तो यह अवसरवादिता तो थी पर यह अटल बिहारी वाजपेयी की रणनीति का भी कमाल था. यह लोग अपने मुस्लिम वोट बैंक को भी खतरे में डालने की हिम्मत दिखा पाए तो अटल जी की साफ-सुथरी छवि के ही कारण. इस लिए भी कि वह जितने सीधे हैं, उतने ही सच्चे भी. अटल जी के इस जादू का ही नतीज़ा था कि लालकृष्ण आडवाणी को भी सेक्यूलर बनने का नशा सवार हो गया. और वह पाकिस्तान जा कर ज़िन्ना की कब्र पर फूल चढ़ा कर ज़िन्ना को सेक्यूलर होने का सर्टिफ़िकेट दे बैठे. और बरबाद हो गए. आज तक आडवाणी इस विवाद और अवसाद से मुक्त नहीं हो सके हैं. अटल जी की ही एक कविता है: एक पांव धरती पर रखकर ही/ वामन भगवान ने आकाश, पाताल को जीता था./ धरती ही धारण करती है/ कोई इस पर भार न बने/ मिथ्या अभिमान से न तने.’ उन की ही एक और कविता यहां मौजू है:
छोटे मन से कोई बडा़ नहीं होता.
टूटे मन से कोई खड़ा नहीं होता.
मन हार कर मैदान नहीं जीते जाते,
न मैदान जीतने से मन ही जीते जाते हैं.
और कि, ‘निर्दोष रक्त से सनी राजगद्दी,/ श्मशान की धूल से भी गिरी है,/ सत्ता की अनियंत्रित भूख/ रक्त-पिपासा से भी बुरी है.’ पहले आडवाणी और अब मोदी जाने क्यों अटल जी की यह और ऐसी कविताएं पढ़ कर अपने बारे में जाने क्यों नहीं कुछ सोचते? तय मानिए कि अगर यह पढ़ते-सोचते तो आडवाणी बाबरी मस्ज़िद के गिरने का और कि मोदी गुजरात दंगे का बोझ ले कर प्रधानमंत्री पद की यात्रा का रुख शायद नहीं करते. पर क्या कीजिएगा विवश अटल जी ने ही यह भी लिखा है कि, ‘ बंट गए शहीद, गीत कट गए,/ कलेजे में कटार गड़ गई./ दूध में दरार पड़ गई.’ वाजपेयी को आखिर क्यों लिखना पडा़, ‘ बेनकाब चेहरे हैं,/दाग बड़े गहरे हैं,/ टूटता तिलस्म, आज सच से भय खाता हूं./ लगी कुछ ऐसी नज़र,/ बिखरा शीशे-सा शहर,/ अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूं.’ आखिर वाजपेयी कितनी यातना से गुज़र कर यह लिखने को मज़बूर हुए होंगे, सोचा जा सकता है.
एक बार लखनऊ में वह राजभवन में मिले. कल्याण सिंह ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी. उन के साथ कई माफ़ियाओं और बाहुबली हिस्ट्रीशीटरों ने भी बतौर मंत्री शपथ ले कर अटल जी के पांव छू कर आशीर्वाद भी लिया था. बाद में उन से मैं ने पूछा कि यह सब क्या है पंडित जी? वह बिना कोई समय लिए आदत के मुताबिक गरदन हिला कर, हाथ भांज कर फ़ौरन बोले, ‘आखिर जनता ने चुन कर भेजा है !’ कह कर उन का चेहरा थोडा़ बुझ गया. उन की विवशता मैं समझ गया. थोड़ी देर बाद तत्कालीन राजनीति पर बात चली तो मैं ने धीरे से पूछा यह सब कैसे और किस तरह आप झेल लेते हैं? वह आंख मूंद कर, पाज़ ले कर धीरे से ही बोले, ‘यह कविता है न ! यह मुझे संभाल लेती है.’ कह कर वह उठ कर खड़े हो गए. उन की ही एक कविता याद आ गई: ‘इस जीवन से मृत्यु भली है,/ आतंकित जब गली-गली है/ मैं भी रोता आसपास जब/ कोई कहीं नहीं होता है.’ उन का ही एक और मशहूर गीत है:
टूटे हुए सपने की कौन सुने सिसकी?
अंतर को चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी.
हार नहीं मानूंगा,
रार नहीं ठानूंगा,
काल के कपाल पर लिखता-मिटाता हूं.
गीत नया गाता हूं.
यह उन के नित नए गीत गाने की ही पराकाष्ठा है कि उन के तमाम विरोधी भी उन के चरण-स्पर्श कर उन से आशीर्वाद ले कर प्रसन्न होते हैं. और वह बहुत भाउक हो कर आशीर्वाद भी देते हैं. गले लगा लेते हैं. मुलायम सिंह यादव तक को मैं ने उन के चरण-स्पर्श करते हुए देखा है. एक बार एक इंटरव्यू के दौरान बातचीत में मैं ने उन से कहा कि पंडित जी, मुलायम सिंह जी आप का इतना आदर करते हैं, आप भी उन्हें इतना स्नेह देते हैं तो जो राजनीति मुलायम सिंह कर रहे हैं, मुस्लिम तुष्टिकरण की जाति-पाति की कभी आप रोकते क्यों नहीं? समझाते क्यों नहीं. वह ज़रा देर चुप रहे, फिर बोले, ‘सब की अपनी-अपनी राजनीति है. कोई समझने समझाने की इस में बात नहीं है.’ मैं ने उन्हें लगभग टोकते हुए कहा कि फिर भी !
तो वह बोले यह लिखिएगा नहीं. और बोले, ‘वास्तव में मुलायम सिंह जैसे लोग भी बहुत ज़रुरी हैं.’ उन्हों ने एक छोटा पाज़ लिया और बोले, ‘हमारे मुस्लिम भाइयों के साथ एक बड़ी दिक्कत यह है कि उन के पास कोई अपना नेतृत्व नहीं है, उन के बीच से कोई कद्दावर नेता नहीं है तो वह अपना दुख ले कर कहां जाएं? किस के कंधे पर सर रख कर रोएं? तो हमारे मित्र मुलायम सिंह जी उन की यह ज़रुरत पूरी कर देते हैं. उन का दुख संभाल लेते हैं.’ वह मुस्कुराए, ‘हां ज़रा वह राजनीति की अति भी कर देते हैं. पर ज़रुरी हैं मुलायम सिंह जी, उन के लिए. वह उन के लिए प्रेशर कुकर में सीटी का काम करते हैं. सीटी न हो तो फट जाएगा प्रेशर कुकर!’ जैसे उन्हों ने जोड़ा, ‘मेरे लिए यह काम कविता करती है. साहित्य मुझे जोड़ता है. टूटने नहीं देता. आप याद कीजिए कि कई बार वह राजनीति की कठिन घड़ियों में भी कैसे तो कई सवालों का जवाब अपनी कविताओं से देते रहे हैं. सवालों के जवाब में उन्हें लगभग काव्य-पाठ कर देते मैं ने कई बार पाया है. वह चाहे प्रेस कानफ़्रेंस हो या कोई कार्यकर्ता सम्मेलन या कोई जनसभा.
बहुत लोग यह तो मानते हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी बहुत घटिया कवि हैं, या कि वह भी कोई कवि हैं?और भी कई बातें लोग कहते मिलते ही हैं. ठीक वैसे ही जैसे बहुत लोग उन्हें एक सांप्रदायिक पार्टी का नेता मानते हैं. पर यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि अटल जी न सिर्फ़ कविता के बल्कि साहित्य की अन्य विधाओं में भी गहरी दिलचस्पी रखते रहे हैं. नाटक और उपन्यास आदि में भी वह वैसी ही दिलचस्पी रखते रहे हैं. प्रेमचंद, के अलावा,अज्ञेय की शेखर एक जीवनी, धर्मवीर भारती का अंधा युग, वृंदावनलाल वर्मा के ऐतिहासिक उपन्यास आदि के साथ-साथ वह तसलीमा नसरीन तक को पढ़ते रहे हैं. उर्दू शायरी में भी उन की गहरी दिलचस्पी रही है. गालिब और मीर जैसे शायरों के शेर उन के भाषणों में बार-बार आते रहे हैं.
अब तो गज़ल गायक मेंहदी हसन नहीं रहे पर आप को याद होगा ही कि ज्ब मेंहदी हसन कुछ समय पहले बीमार पड़े और पाकिस्तान में उन का ठीक से इलाज नहीं हो पा रहा था तब अटल बिहारी वाजपेयी ने उन को भारत आदर पूर्वक बुला कर इलाज करवाया था.अटल जी मानते रहे हैं कि जो राजनीति में रुचि लेता है, वह साहित्य के लिए समय नहीं निकाल पाता और साहित्यकार राजनीति के लिए समय नहीं दे पाता. किंतु कुछ लोग ऐसे हैं जो दोनों के लिए समय देते हैं. एक समय वह कहते थे कि जब कोई साहित्यकार राजनीति करेगा तो वह अधिक परिष्कृत होगी. यदि राजनेता की पृष्ठभूमि साहित्यिक है तो वह मानवीय संवेदनाओं को नकार नहीं सकता. कहीं कोई कवि यदि डिक्टेटर बन जाए तो वह निर्दोषों को खून से अपने हाथ नहीं रंगेगा. तानाशाहों में क्रूरता इसी लिए आती है कि वे संवेदनहीन हो जाते हैं. एक साहित्यकार का हृदय दया, क्षमा. करुणा आदि से आपूरित रहता है. इसी लिए वह खून की होली नहीं खेल सकता. वह बहुत स्पष्ट मानते रहे हैं कि आज रा्जनीति के लोग साहित्य, संगीत, कला आदि से दूर रहते हैं. इसी से उन में मानवीय संवेदना का स्रोत सूख-सा गया है. अपनी विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए कम्यूनिस्ट अधिनायकवादियों ने ललित कलाओं का गलत उपयोग किया. वह राजनीति और साहित्य को संतुलित रखने के हामीदार रहे हैं.
शायद इसी लिए उन का मुझ पर स्नेह कुछ ज़्यादा ही रहा अन्य की अपेक्षा कि मैं लिखने-पढ़ने वाला आदमी हूं. एक बार १९९८ में मेरा बहुत बड़ा एक्सीडेंट हो गया था. लगभग पुनर्जन्म ले कर मैं लौटा. तब वह अस्पताल में मुझे देखने आए थे. और बड़ी देर तक मेरा कुशल क्षेम लेते रहे. मेरे पिता जी और पत्नी को दिलासा दिया. मैं अर्ध-बेहोशी में था पर उन्हें हमेशा की तरह पंडित जी ही कह कर संबोधित करता रहा. डाक्टरों, प्रशासन आदि को वह ज़रुरी निर्देश भी देते गए. वह मेरी चिकित्सा का हालचाल बाद में भी लेते रहे थे. सहयोगियों को भेज कर, फ़ोन कर के. तो उन के जैसे व्यस्त व्यक्ति के लिए अगर मेरे जैसे साधारण आदमी के लिए भी मन और समय था तो सिर्फ़ इस लिए कि वह सिर्फ़ राजनीतिज्ञ ही नहीं एक संवेदनशील व्यक्ति भी हैं. एक समर्थ कवि भी हैं.
अटल जी को मैं ने पहली बार १९७७ में गोरखपुर की एक चुनावी सभा में सुना था तभी से उन के भाषण का मैं मुरीद हो गया. तब विद्यार्थी था. लेकिन सब के भाषण तब भी अच्छे नहीं लगते थे, अब भी नहीं लगते. इंदिरा गांधी, चरण सिंह, जगजीवन राम, चंद्रशेखर, शरद यादव, सुषमा स्वाराज आदि कुछ लोग हैं जिन के भाषण मुझे अच्छे लगते रहे हैं. पर इन सब में अटल जी शीर्ष पर हैं. नहीं बहुत छोटा था तब शास्त्री जी का भी भाषण सुना था. लेकिन बहुत गूंज उस की मन में नहीं है. बस याद भर है. कि तब उन के साथ इंदिरा गांधी भी थीं. खैर फिर अटल जी को लखनऊ सहित तमाम जन सभाओं, प्रेस कानफ़्रेंसों में बार-बार सुनते हुए जीवन का अधिकांश हिस्सा गुज़रा है. उन के साथ यात्रा करते, उन को कवर करते, इंटरव्यू करते बहुत सारी यादें हैं.
पर एक याद तो जैसे हमेशा मन में टंगी रहती है. उन की लखनऊ के हज़रतगंज चौराहे पर की गई जनसभाएं. बीच चौराहे पर उन का मंच बनता था. और वह पांचों तरफ़ जाने वाली सड़कों के तरफ़ बारी-बारी रुख कर जब हाथ घुमाते हुए, गरदन को लोच देते हुए ललकारते हुए बोलते थे तो क्या तो समां बंध जाता था. वह बोलते हुए जिधर भी मुंह करते लगता जैसे दिशा बदल गई हो, सूरज उधर ही उग गया हो. पांचों सड़कें दूर-दूर तक खचाखच भरी हुई और किसी नायक की तरह बोलते हुए अटल बिहारी वाजपेयी॥ तब के दिनों वह बाद के दिनों की तरह लंबे-लंबे पाज़ नहीं लेते थे. धारा-प्रवाह बोलते थे. कभी जाकेट की ज़ेब में हाथ डाल कर खडे़ होते तो कभी दोनों हाथ लहराते हुए. अदभुत समां होता वह. तब के दिनों लोग बाग उन्हें भाजपा का धर्मेंद्र कहा करते थे. मतलब हर फ़न में माहिर. लोकसभा में उन के भाषणों की भी याद वैसे ही टंगी हुई है मन में. चाहे वह पहले प्रधानमंत्रित्व के १३ दिन बाद ही संख्या-बल के आगे सर झुका कर इस्तीफ़ा देने की घोषणा हो या दूसरी बार मायावती और जयललिता के ऐन वक्त पर दांव देने और उड़ीसा के तत्कालीन मुख्यमंत्री गिरधर गोमांग द्वारा बतौर सांसद वोटिंग करने के नाते एक वोट से उन की सरकार के गिर जाने पर दिया जाने वाला वक्तव्य हो. या ऐसे ही ढेर सारे दृष्य मन में वैसे ही बसे हैं जैसे अभी कल ही की बात हो.
यह ज़रुर है कि उन्हों ने राजनीति में कइयों को जीवन दिया, मायावती, जयललिता और ममता जैसी मनमर्जी मिजाज वाली महिलाओं को संभाला बल्कि मायावती की तो उन्हों ने जान भी बचाई और लाख विरोध के बावजूद , पार्टी में धुर विरोध के बावजूद बार-बार भाजपा की मदद से मुख्यमंत्री भी बनवाया. तो भी मायावती ने उन के हर एहसान पर पानी डाला और बार-बार. पर अटल जी ने कभी इस बात का इज़हार भी भूले से किया हो, मुझे याद नहीं आता. एक बार मैं ने बहुत कुरेदा तो वह मुसकराते हुए ही बोले राजनीति है, कोई पूजा-पाठ नहीं.
एक बार मैं ने उन के अविवाहित रह जाने पर चर्चा करते हुए पूछा कि आप को क्या लगता है कि यह ठीक किया? सुन कर वह गंभीर हो गए. वह बोले, ‘क्या ठीक, क्या गलत? अब तो समय बीत गया.’ पर बाद में उन्हों ने स्वीकार किया कि अगर वह विवाहित रहे होते तो शायद जीवन में और ज़्यादा ऊर्जा से काम किए होते. ठीक यही बात मैं ने नाना जी देशमुख से भी एक बार पूछी थी तो लगभग यही जवाब उन का भी था. लता मंगेशकर से भी जब यही बात पूछी थी उन के मन में इस तरह की कोई बात नहीं थी. पर अटल जी के मन में थी. एक समय वह हरदोई के संडीला में भी अपनी जवानी में रहे थे. संडीला में लड्डू बड़े मशहूर हैं. तो वाजपेयी जी परिहास पर आ गए. बोले, ‘यह तो वो लड्डू हैं जो खाए, वह भी पछताए, जो न खाए वो भी पछताए.’ उन का एक गीत है सपना टूट गया:
हाथों की हल्दी है पीली
पैरों की मेंहदी कुछ गीली
पलक झपकने से पहले ही सपना टूट गया.
हालां कि यह गीत उन्हों ने जनता पार्टी के टूटने के समय लिखा था. पर उन के विवाहित जीवन के सपने से भी जोड़ कर इस कविता को देखा गया है. तो भी उन का जीवन प्रेम से या स्त्रियों से शेष रहा हो, ऐसा भी नहीं रहा है. उन के कई सारे प्रसंग-संबंध बार-बार हवा में उड़ते रहे हैं. चर्चा पाते रहे हैं. ग्वालियर, लखनऊ से लगायत दिल्ली तक में. ज़मीन से ले कर आकाश तक में. पर यह चर्चा कभी सतह पर नहीं आई. कभी नारायणदत्त तिवारी या किसी अन्य स्तर की चर्चा कभी नहीं हुई. एक गरिमा और खुसफुस-खुसफुस के स्तर पर ही रही. उन की एक कविता है, आओ मर्दों नामर्द बनो ! जो उन्हों ने इमरजेंसी में हुई नसबंदी की अंधेरगर्दी पर उन्हों ने लिखी थी, उस पर गौर करें:
पौरुष पर फिरता पानी है
पौरुष कोरी नादानी है
पौरुष के गुण गाना छोड़ो
पौरुष बस एक कहानी है
पौरुष विहीन के पौ बारा
पौरुष की मरती नानी है
फ़ाइल छोड़ो, अब फ़र्द बनो.
मनाली उन की प्रिय जगह है. मनाली पर भी उन्हों ने गीत लिखे हैं. गौर करे इस में उन की मस्ती:
मनाली मत जइयो, गोरी
राजा के राज में.
जइयो तो जइयों.
उड़ि के मत जइयों,
अधर में लट्किहो,
वायुदूत के जहाज में.
लेकिन वह यह भी लिखते थे:
मन में लगी जो गांठ मुश्किल से खुलती,
दागदार ज़िंदगी न घाटों पर धुलती.
जैसी की तैसी नहीं,
जैसी है वैसी सही,
कबिरा की चादरिया बड़े भाग मिलती.
उन का भांग प्रेम भी खूब चर्चा में रहा है. माना जाता रहा है कि वह बोलने में जो अचानक लंबा पाज़ खींच लेते हैं, वह उन की भंग की तरंग का ही नतीज़ा है, कमाल है, कुछ और नहीं. प्रेस कानफ़्रेंसों में तो कई बार अजीब स्थिति हो जाती रही है. वह एक सवाल का जवाब थोड़ा सा दे कर आंख बंद कर पाज़ में चले जाते तो कुछ अधीर पत्रकार तब तक दूसरा, तीसरा सवाल ठोंक देते. तो उन्हें किसी तरह रोका जाता. उन की इस तरंग का मज़ा कई और मौकों पर भी बार-बार लिया जाता रहा है. एक बार पंद्रह अगस्त को वह लालकिले पर भाषण देने के लिए कार से नीचे उतरे. एक पैर में जूता पहने हुए. दूसरे पैर का जूता कार में ही रह गया. पर वह इस से बेखबर घास पर छ्प-छप करते हुए चल पड़े. एक पैर में जूता, एक पैर में मोज़ा. बिलकुल किसी शिशु सी मासूमियत लिए अटल जी चले जा रहे हैं. अदभुत दृश्य था. सी.एन.एन जैसे चैनलों ने इस शाट को बहुत दिनों तक बार दिखाया. और लोग मज़ा लेते रहे.
ऐसा भारत जो भूख, भय, निरक्षरता और अभाव से मुक्त हो की कामना करने वाले अटल बिहारी वाजपेयी एक समय मानते रहे हैं कि क्रांतिकारियों के साथ हमने न्याय नहीं किया, देशवासी महान क्रांतिकारियों को भूल रहे हैं, आज़ादी के बाद अहिंसा के अतिरेक के कारण यह सब हुआ.’ अब लगता है कि इस छुद्र राजनीति की आपाधापी में देश के लोग तो क्या खुद भाजपाई भी अब अटल बिहारी वाजपेयी को भूलने लग गए हैं. तो यह खटकता है. ऐसे शानदार राजनेता को हम उस के जीते जी ही भूलने लगें तो उन्हीं की एक बहुत लोकप्रिय शब्दावली में जो गरदन पर लोच डालते हुए, हाथ हिलाते हुए कहें कि, ‘यह अच्छी बात नहीं है !’ तो गलत बात नहीं होगी. अब की २५ दिसंबर को वह ८८ वर्ष पूरे कर ८९वें वर्ष में प्रवेश करेंगे. तो मन करता है कि उन्हें समूचे देशवासियों की तरफ से उन की कविता ही में अग्रिम बधाई दूं:
हर पचीस दिसंबर को
ज़ीने की नई सीढ़ी चढ़ता हूं,
नए मोड़ पर
औरों से कम, स्वयं से ज़्यादा लड़ता हूं.
मेरा मन मुझे अपनी ही अदालत में खड़ा कर
जब जिरह करता है
मेरा हलफ़नामा, मेरे ही खिलाफ़ पेश करता है
तो मैं मुकदमा हार जाता हूं.
आज की तारीख में ऐसा कोई राजनेता या कोई कवि जो यह और इस तरह मुकदमा हारने की कूवत या कौशल रखने वाला हो, है क्या कहीं? ऐसे में उन की विनम्रता भरी वह पंक्तियां भी फिर से याद आ जाती हैं:
मेरे प्रभु !
मुझे इतनी ऊंचाई कभी मत देना
गैरों को गले न लगा सकूं
इतनी रुखाई
कभी मत देना.
वह तो आज की तारीख में भले ठीक से सुन या बोल नहीं पा रहे तब भी क्या सचमुच कुछ नहीं सोचते-गाते होंगे? ठन गई !/ मौत से ठन गई !/ रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई,/ यों लगा ज़िंदगी से बड़ी हो गई गुनगुना रहे होंगे कि काल के कपाल पर लिखता-मिटाता हूं./ गीत नया गाता हूं.’ गा रहे होंगे?
या कि इस निर्मम समय में कुछ और भी गा रहे हों? क्या पता ?