अपनी ही अदालत में मुकदमा हारते खड़े अटल! – 1

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भारतीय राजनीति क्या विश्व राजनीति में भी अगर कोई एक नाम बिना किसी विवाद के कभी लिया जाएगा तो वह नाम होगा अटल बिहारी वाजपेयी का. यह एक ऐसा नाम है जिस के पीछे काम तो कई जुड़े हुए हैं पर विवाद शून्य हैं. राजनीति काजल की कोठरी है, इस में से बिना कोई कालिख का निशान लिए निकलना टेढ़ी खीर है. लेकिन अटल जी निकले हैं. सार्वजनिक जीवन में अगर किसी को शुचिता और मर्यादा का पाठ पढ़ना हो तो वह अटल बिहारी वाजपेयी से सीखे. राजनीति में अगर राजधर्म का पाठ किसी को सीखना हो तो अटल जी से सीखे. भारतीय राजनीति और समाज में जो स्वीकार्यता अटल जी को मिली है, वह दुर्लभ है.

उन की यह स्वीकार्यता भारतीय समाज और राजनीति की हदें लांघती हुई विश्व के पटल पर भी उभरती है. यहां तक की पड़ोसी देश पाकिस्तान में भी जहां के राजनीतिज्ञ सुबह-शाम पानी पी-पी कर भारत और भारतीय राजनीति को कोसते फिरते हैं, वहां भी अटल जी की स्वीकार्यता निर्विवाद है.

कोई एक अंगुली तक नहीं उठाता. तब जब कि कारगिल को ले कर पाकिस्तान के दांत खट्टे अगर किसी ने किए तो वह अटल जी ही थे. पर कारगिल के खलनायक परवेज़ मुशर्रफ़ तक वाजपेयी का झुक कर न सिर्फ़ इस्तकबाल करते हैं, बल्कि उन की बाडी लैंग्वेज़ भी बदल जाती है. वह लगभग नत-मस्तक हो जाते हैं. तो शायद इस लिए भी कि वाजपेयी जी जितना विनम्र और दूरदर्शी राजनीतिज्ञ मुशर्रफ़ या किसी और भी की ज़िंदगी में कम आते हैं. लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी ऐसे ही इकलौते विनम्र राजनीतिज्ञ इस लिए हैं क्यों कि उन के जीवन का मूल-मंत्र ही यह है:

मेरे प्रभु !
मुझे इतनी ऊंचाई कभी मत देना
गैरों को गले न लगा सकूं
इतनी रुखाई
कभी मत देना.

और ऐसा भी नहीं है कि यह बात वह सिर्फ़ अपनी कविता में ही कहते हैं. उन को ऐसा जीवन में भी करते मैं ने ही नहीं, सब ने बारंबार देखा है. कि समय, समाज और सत्ता ने जो ऊंचाई उन्हें बार-बार दी, बावजूद उस के वह सब को गले भी बार-बार लगाते रहे और रुखाई तो जैसे उन की डिक्शनरी में कभी किसी ने देखी ही नहीं. भाजपा, जनसंघ या आर.एस.एस. से जिस के मतभेद रहे हैं या हैं उन से भी अटल जी के मतभेद नहीं रहे.

विरोधी भी जब-जब अटल जी के विरोध की बात आई तो सिर्फ़ यह कह कर कतरा गए कि एक सही आदमी, गलत पार्टी में है. चंद्रशेखर और नरसिंहा राव जैसे लोग तमाम-तमाम मतभेदों के बावजूद जब अटल जी की बात आती तो उन्हें गुरुदेव कह कर नत हो जाते थे. बहुत कम लोग हुए हैं भारतीय राजनीति में जिन्हें जनसभा हो या लोकसभा हर कहीं पिनड्राप साइलेंस यानी नि:शब्द हो कर सुना जाए, अटल बिहारी वाजपेयी उन गिनती के लोगों में शुमार होते हैं.

न सिर्फ़ भाषणों में बल्कि व्यक्तिगत बातचीत में भी उन्हें सुनना एक अनुभव से गुज़रना होता था एक समय. अब तो वह बीमारी और बुजुर्गी के चलते लगभग निर्वासन भुगत रहे हैं पर जब एक बार बतौर प्रधानमंत्री लखनऊ आए तो मैं ने पूछा, ‘अब क्या फ़र्क पाते हैं?’

‘फ़र्क?’ कह कर उन्हों ने आदत के मुताबिक एक लंबा पाज़ लिया. फिर जैसे उन के चेहरे पर एक तल्खी आई और बोले, ‘लोगों से कट गया हूं. पहले लोगों के साथ चलता था, अब अकेले चलता हूं.’ कह कर वह एक फीकी मुस्कान फेंक कर रह गए. अब जब वह स्वास्थ्य कारणों से ज़्यादा किसी से मिलते-जुलते नहीं, दिनचर्या भी उन की लगभग डाक्टरों और परिवारीजनों के बीच की बात हो चली है.

अब वह ज़्यादा बोल नहीं पाते, सुन नहीं पाते, पहचान नहीं पाते आदि-इत्यादि खबरें जब-तब मिलती रहती हैं तो जान-सुन कर तकलीफ़ होती है. लेकिन उन का सार्वजनिक जीवन जितना चमकीला और निरापद रहा है उस से बड़े-बड़ों को रश्क हो सकता है. लेकिन राजनीति भी उन का प्रथम प्यार नहीं रही. एक समय वह खुद कहते रहे हैं कि राजनीति ने उन के कवि को भ्रष्ट कर दिया. राजनीति और पत्रकारिता दोनों ही ने उन के कवि को नष्ट किया ऐसा वह बार-बार मानते रहे हैं.

राजनीति की रपटीली राह शीर्षक लेख में उन्हों ने खुद लिखा है, ‘ मेरी सबसे बड़ी भूल है राजनीति में आना. इच्छा थी कि कुछ पठन-पाठन करुंगा. अध्ययन और अध्यवसाय की पारिवारिक परंपरा को आगे बढ़ाऊंगा. अतीत से कुछ लूंगा और भविष्य को कुछ दे जाऊंगा, किंतु राजनीति की रपटीली राह में कमाना तो दूर रहा, गांठ की पूंजी भी गंवा बैठा. मन की शांति मर गई. संतोष समाप्त हो गया. एक विचित्र-सा खोखलापन जीवन में भर गया. ममता और करुणा के मानवीय मूल्य मुंह चुराने लगे हैं. क्षणिक स्थाई बनता जा रहा है. जड़ता को स्थायित्व मान कर चलने की प्रवृत्ति पनप रही है.’

लगता है जैसे अटल जी यह लेख आज की परिस्थिति में लिख रहे हैं. लेकिन यह तो वह १९६३ में लिखा उन का लेख है. वह लिखते हैं, ‘आज की राजनीति विवेक नहीं, वाक्चातुर्य चाहती है; संयम नहीं, असहिष्णुता को प्रोत्साहन देती है; श्रेय नहीं, प्रेय के पीछे पागल है.’ सोचिए कि १९६३ में ही यह सब अटल जी देख रहे थे. आसान नहीं था यह देखना. वह लिख रहे थे, ‘मतभेद का समादर करना तो दूर रहा, उसे सहन करने की प्रवृत्ति भी विलुप्त होती जा रही है. आदर्शवाद का स्थान अवसरवाद ले रहा है.’

अटल जी इन सारी चुनौतियों को देखते हुए ही आगे बढ रहे थे. वह लिख रहे थे, ‘ पद और प्रतिष्ठा को कायम रखने के लिए जोड़-तोड़, सांठ-गांठ और ठकुरसुहाती आवश्यक है. निर्भीकता और स्प्ष्टवादिता खतरे से खाली नहीं है. आत्मा को कुचल कर ही आगे बढ़ा जा सकता है.’

तो क्या अटल जी अपनी आत्मा को कु्चलते हुए ही प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे?

इस प्रश्न की पड़ताल होना अभी बाकी है. देर-सबेर समय इस का भी हिसाब लिखेगा ही. पर अभी और तुरंत अभी तो अगर मुझ जैसों से पूछा जाए तो अटल जी जैसा राजनीति में पारंगत और निरापद भारतीय राजनीति में कोई दूसरा नहीं दिखता. जो काजल की कोठरी से निकल कर भी अपनी धवलता बरकरार रखे है.

अब वह सार्वजनिक मंचों पर भले नहीं दिखते पर उन की चर्चा के बिना सार्वजनिक मंच कम से कम भाजपा के तो नहीं ही होते. बाकी मंचों पर भी वह अनायास चर्चा में बने रहते हैं. और याद आ जाता है उन का ओज और कविता की लय में गुंथा भाषण. जिस में आंख बंद कर के वह कहीं शून्य में खो जाते थे, एक लंबा पाज़ लेने के बाद वह बोलते थे. भारतीय राजनीति के भीष्म पितामह बन चुके अटल जी जैसे शर-शैय्या पर लेट कर सूर्य के उत्तरायण होने का इंतज़ार कर रहे हैं.

पर जैसे महाभारत में भीष्म पितामह से आशीर्वाद लेने के लिए कतार लगी रहती थी, अटल जी के साथ वैसा नहीं है. भाजपा में चुनाव के समय तो वह अभी भी प्रासंगिक हैं, बिना उन के नाम के किसी की नैया पार नहीं होती. पर बिना चुनाव के कोई उन की सुधि भी नहीं लेता. न ही उन की तरह की राजनीति में कोई दिलचस्पी लेता है अब.

एक बार की बात है. अटल जी लखनऊ आए थे. उन से मिलने वालों की कतार लगी थी. मैं भी उन से इंटरव्यू करने के लिए पहुंचा हुआ था. इंतज़ार में मुरली मनोहर जोशी जैसे नेता भी थे. बलिया के एक विधायक भरत सिंह भी थे. मंत्री पद की आस में. और भी कुछ लोग थे. भरत सिंह को जब मालूम हुआ कि मैं पत्रकार हूं और अटल जी से इंटरव्यू की प्रतीक्षा में हूं तो वह लपक कर मिले. वह चाहते थे कि अटल जी के सामने उन की अच्छी छवि प्रस्तुत हो जाए. उन्हों ने अपना परिचय दिया, ‘माई सेल्फ़ भरत सिंह.’ मैं ने छूटते ही पूछा कि बलिया वाले न?’ वह बोले,’ हां.’

मैं ने बताया उन्हें कि जानता हूं आप को आप की अंगरेजी की वज़ह से. जब आप बी.एच. यू. में बतौर छात्र संघ अध्यक्ष बोलते थे. आई टाक तो आइऐ टाक, यू टाक तो यूऐ टाक, डोंट टाक इन सेंटर-सेंटर !’ सुन कर भरत सिंह सकपकाए. पर मुरली मनोहर जोशी ठठा कर हंसे. इसी बीच उन्हें अटल जी ने बुलवा लिया. वह हंसते हुए अंदर पहुंचे तो अटल जी ने उन से हंसने का सबब पूछा. उन्हों ने मेरा और भरत सिंह का वाकया बताया. और कहा कि पत्रकार को ही बुला कर पूछ लीजिए. अटल जी ने मुझे भी बुलवा लिया. और पूछा कि किस्सा क्या है?

तो मैं ने कहा कि भरत सिंह से सीधे सुनिए. सेकेंड हैंड संवाद सुनने से क्या फ़ायदा? भरत सिंह भी बुला लिए गए. पर भरत सिंह नो सर, नो सर, सारी सर, सारी सर, करते रहे, बोले कुछ नहीं. खैर भरत सिंह मुझे आग्नेय नेत्रों से देखते हुए विदा हुए. कि तभी लाल जी टंडन आ गए. एक डिग्री कालेज के उदघाटन का न्यौता ले कर. कि अटल जी उस का उदघाटन कर दें. अटल जी ने वह न्यौता एक तरफ रखते हुए टंडन जी से कहा कि यह उदघाटन तो आप खुद देख लीजिएगा. और अपनी ज़ेब से एक पर्ची निकाल कर उन्हें निशातगंज की गली और मकान नंबर सहित खड़ंजा और नाली के व्यौरे देने लगे.

हैंडपंप के बारे में बताने लगे. और कहा कि मार्च का महीना है और हैंडपंप से पानी नदारद है. मई-जून में क्या होगा? पानी नदारद है और नाली चोक है, सड़कें खराब हैं, बरसात में क्या हाल होगा? यह और ऐसे तमाम व्यौरे देते हुए अटल जी ने कहा कि, टंडन जी वोट मिलता है, नाली, खडंजा, सड़क ठीक होने से और हैंडपंप में पानी रहने से, डिग्री कालेज के उदघाटन से नहीं.’ और सारी लिस्ट देते हुए भरपूर आंखों से तरेरते हुए कहा कि टंडन जी आगे से यह शिकायत नहीं मिले.’ जी, जी कह कर टंडन जी उलटे पांव लौट गए. बैठे भी नहीं.

उस दिन मुझे समझ में आया था कि अटल जी लखनऊ में सब की ज़मानत ज़ब्त कराते हुए हर बार रिकार्ड वोटों से कैसे जीत जाते हैं. मुसलमानों तक के रिकार्ड वोट उन्हें मिलते रहे हैं. और तो और बाद के दिनों में तो बीते चुनाव में जब टंडन जी खुद लखनऊ लोकसभा से चुनाव में उतरे तो अटल जी की चिट्ठी ले कर ही चुनाव प्रचार करते दिखे. तब भी जितने मार्जिन से अटल जी जीतते थे, टंडन जी जीत कर भी उन के मार्जिन भर का वोट भी नहीं पा पाए. ऐसे ही एक बार राम जेठमलानी भी अटल जी के खिलाफ़ लखनऊ से चुनाव में उतरे. बोफ़ोर्स के समय में वह रोज जैसे राजीव गांधी से पांच सवाल रोज़ पूछते थे, अटल जी से भी पूछने लगे थे, कांग्रेस के टिकट पर चुनाव में थे ही. तब जब कि वह अटल जी के मंत्रिमंडल में कानून मंत्री रह चुके थे और एक विवाद के चलते उन्हें इस्तीफ़ा देना पडा़ था. उसी की कसर वह चुनाव में रोज़ सवाल पूछ कर निकाल रहे थे.

उन के तमाम सवालों के जवाब में अटल जी ने एक दिन अपना हाथ घुमाते हुए बस एक ही बात कही थी कि, ‘हमारे मित्र जेठमलानी को चुप रहने की कला नहीं आती.’ बस अटल जी का इतना कहना भर था कि जेठमलानी चुप हो गए थे. और लखनऊ से अंतत: ज़मानत गंवा कर लौट गए. ऐसे जाने कितने किस्से अटल जी के हैं. अब अलग बात है कि उन्हीं कांग्रेस पलट जेठमलानी, जो विवादित बयान देने और हत्यारों को ज़मानत दिलाने के लिए ज़्यादा जाने जाते हैं, को भाजपा ने फिर से राज्यसभा में बैठा दिया. पर वाजपेयी ने कभी उफ़्फ़ भी नहीं किया.

दुश्मन तो दुश्मन अटल जी का तो इतिहास ऐसे तमाम किस्सों से भरा पड़ा है कि जो दोस्त भी, हमसफ़र भी उन के पीछे पड़े तो बरबाद हो गए. जाने अटल जी की कुंडली ऐसी है कि उन की अदा ऐसी है कि लोगों का दुर्भाग्य, समझना काफी कठिन है. लेकिन इतिहास गवाह है बलराज मधोक से लगायत गोविंदाचार्य, कल्याण सिंह, उमा भारती, मदनलाल खुराना और यहां तक कि लालकृष्ण आडवाणी तक तमाम-तमाम नामों को गिन लीजिए. अटल विरोधी राजनीति करने वाले लोग न घर के रहे न घाट के. और अटल जी ने कभी किसी का प्रतिवाद भी नहीं किया.

असल में अटल जी वह शीशा हैं जिसे आप अगर पत्थर से भी तोड़ने चलें तो पत्थर टूट जाएगा, वह शीशा नहीं. ऐसा मेरा मानना है. याद कीजिए गोवा का सम्मेलन. जिस में पार्टी की राय को दरकिनार कर अटल जी ने नरेंद्र मोदी को राजधर्म की याद दिला कर इस्तीफ़ा देने की सलाह दी थी. लेकिन आडवाणी खेमे ने अटल जी की इस सलाह पर पानी फेर कर अटल जी को शह देने की बिसात बिछा दी थी. उन्हें टायर्ड-रिटायर्ड के खाने में बिठाने की जुगत लगाई. अटल जी भांप गए पूरे खेल को और बोले, ‘ न टायर्ड, न रिटायर्ड ! आडवाणी जी के नेतृत्व में विजय की ओर प्रस्थान !’ अटल जी के इस एक जुमले से समूची भाजपा दहल गई और फिर उन के चरणों में मय आडवाणी के समर्पित हो नतमस्तक हो गई थी. असल में अटल जी जैसा नायक भारतीय राजनीति में इसी लिए दूसरा नहीं मिलता. यह वही अटल थे जो १९७१ में पाकिस्तान को हराने और दुनिया के भूगोल पर बांगलादेश बनाने वाली अपनी कट्टर विरोधी इंदिरा गांधी को दुर्गा कह कर सम्मानित भी कर चुके थे.

अंतरराष्ट्रीय राजनीति में भी अटल जी इसी अदा के कायल रहे हैं. याद कीजिए संयुक्त राष्ट्र संघ में बतौर विदेश मंत्री उन का हिंदी में भाषण. याद कीजिए जिनेवा. तब नरसिंहाराव प्रधानमंत्री थे. पर प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करते हुए अटल बिहारी वाजपेयी ने पाकिस्तान के छक्के छुड़ा दिए थे. तब यही सलमान खुर्शीद विदेश राज्यमंत्री थे.

बाद के दिनों में जब अटल जी प्रधानमंत्री बने तो जिस पाकिस्तान ने देश में निरंतर आतंकवाद की खेती में खाद-पानी देने में कभी संकोच नहीं किया, उसी पाकिस्तान से दोस्ती का हाथ बहुत गरमजोशी से बढा़या. यह कहते हुए कि हम सब कुछ बदल सकते हैं, पर पड़ोसी नहीं बदल सकते. पर पहले परमाणु बम बनाया. क्यों कि पाकिस्तान की फ़ितरत वह जानते थे. और यह भी कि जानते थे कि भय बिनु होई न प्रीति. अमरीकी प्रतिबंधों की भी परवाह नहीं की इस के लिए. फिर बस से लाहौर गए. नवाज़ शरीफ़ से गले मिले. पर लौटे तो पीठ में कारगिल का घाव मिला. फिर भी उन्हों ने दोस्ती की आस नहीं छोड़ी. कारगिल के खलनायक मुशर्रफ़ को आगरा बुलाया. बातचीत टूट गई. अंतत: उन्हों ने कूटनीतिक दांव-पेंच से अमरीका को पाकिस्तान के साथ अटैचमेंट तोड़ने पर राज़ी किया.

देश में लालकिला सहित संसद तक पर आतंकवादी हमले पाकिस्तान समर्थित आतंकवादियों ने किए. अटल जी ने भरपूर ताकत से पाकिस्तान पर वार किए. ज़्यादातर कूटनीतिक. वह लालकिले से भाषण भी देते रहे कि आतंकवाद और संवाद साथ-साथ नहीं चल सकता. सीमाओं पर सेना तैनात कर दी. समूचा देश लड़ने को तैयार था. पक्ष क्या प्रतिपक्ष क्या, सब एक थे. पाकिस्तान की घिघ्घी बंध गई. पर यह अटल बिहारी वाजपेयी ही थे कि सब कुछ हो जाने के बावजूद उन्हों ने युद्ध नहीं होने दिया. इस लिए कि वह युद्ध के विनाशकारी परिणामों से अवगत थे. उन की एक कविता याद आती है; जंग न होने देंगे. वह लिखते हैं :

भारत-पाकिस्तान पड़ोसी, साथ-साथ रहना है,
प्यार करें या वार करें, दोनों को ही सहना है,
तीन बार लड़ चुके लड़ाई, कितना मंहगा सौदा,
रुसी बम हो या अमेरिकी, खून एक बहना है.
जो हम पर गुज़री बच्चों के संग न होने देंगे.
जंग न होने देंगे.

हिरोशिमा पर भी वह हिरोशिमा की पीड़ा कविता लिख चुके थे: ‘किसी रात को/ मेरी नींद अचानक उचट जाती है/ आंख खुल जाती है,/ मैं सोचने लगता हूं कि/ जिन वैज्ञानिकों ने अणु अस्त्रों का/ आविष्कार किया था:/ वे हिरोशिमा-नागासाकी के/ भीषण नरसंहार के समाचार सुनकर,/ रात को कैसे सोए होंगे?’ यह कविता लिखने के बावजूद अटल ने परमाणु परीक्षण तो करवा दिया पर युद्ध नहीं होने दिया. और अंतत: उन्हों ने शांति के कबूतर उड़ा दिए. सेनाएं बैरकों में लौट गईं. लेकिन कूट्नीतिक रुप से यह तो कर ही दिया कि तकरीबन दो तिहाई दुनिया ने पाकिस्तान को घोषित या अघोषित रुप से आतंकवादी देश मान लिया. पाकिस्तान दुनिया में अकेला हो गया और आज अगर भारत में आतंकवाद की घटनाओं में ज़बरदस्त कमी आई है तो यह अटल बिहारी वाजपेयी की डिप्लोमेसी का नतीज़ा है, कुछ और नहीं.

सोचिए भला कि अगर खुदा न खास्ता तब पाकिस्तान से युद्ध छेड़ दिया होता वाजपेयी ने तो दुनिया की क्या सूरत होती? क्या तीसरा विश्वयुद्ध नहीं हो गया होता? और फिर पाकिस्तान एक पागल देश है, कहीं परमाणु बम का इस्तेमाल कर ही देता तो मनुष्यता का क्या हुआ होता? मेरा तो मानना है कि दुनिया को युद्ध से बचाने के लिए तब अटल जी को शांति का नोबल प्राइज़ दिया जाना चाहिए था. क्यों कि तब पाकिस्तान ने सारी स्थितियां युद्ध के लिए निर्मित कर दी थीं. संसद पर हमला देश की अस्मिता पर हमला था.

पर यह वाजपेयी ही थे कि तमाम सारे चौतरफ़ा दबाव के बावजूद उन्हों ने युद्ध नहीं होने दिया. सीमाओं पर सेना तैनात कर कहते रहे कि अब आर या पार होगा पर युद्ध को फिर भी रोक लिया. यह काम कवि हृदय अटल बिहारी वाजपेयी ही कर सकते थे, कोई और नहीं. हालां कि वह कहते रहे हैं कि मेरी कविता जंग का ऐलान है, पराजय की प्रस्तावना नहीं. वह हारे हुए सिपाही का नैराश्य-निनाद नहीं, जूझते योद्धा का जय-संकल्प है. वह निराशा का स्वर नहीं, आत्मविश्वास का जयघोष है. लेकिन इस सब के बावजूद इस एक युद्ध को रोकने के लिए वाजपेयी को जितना सैल्यूट किया जाए कम है.

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