मैडम हुण प्यार नी करदी : शिक्षक-विद्यार्थियों में लगाव, बच्चे के संपूर्ण व्यक्तित्व के विकास की नींव

बात 1970 की है… यानी आज से कोई 46 साल पहले की… आप बीती है. जो खुद पर बीती हो, first hand experiences… जीवन के अनुभव ही सब कुछ सिखाते हैं.

मेरी उम्र 5 साल की थी. सिकंदराबाद के फौजी इलाके त्रिमलगिरी की फौजी बैरक में उन दिनों KV चलता था… KV बोले तो केंद्रीय विद्यालय.

उसमे 1st क्लास में मेरा एडमिशन हुआ. मेरी क्लास टीचर एक तेलुगू महिला थी. उसके दांत बाहर को निकले हुए थे. शायद उस जमाने में अभी Orthodontistry अभी नहीं आई थी वरना वो भी अपने दांत ठीक करा लेती.

तो वो मेरे जीवन का पहला अनुभव था स्कूल जाने का.

कुछ दिनों बाद की बात है… तब जब कि हम स्कूल के उस माहौल में हिलमिल गए थे… क्लास ख़त्म हुई थी… क्लास टीचर को बच्चों ने घेर रखा था… और कुछ parents भी थे शायद… कुछ बच्चों की मम्मियाँ थीं… और मैं अपनी मैडम से कुछ कहना चाहता था… पर वो इतने लोगों से घिरी हुई थी कि मेरी बात सुन नहीं रही थी.

तो मैंने ठीक वही काम किया जो मैं अपनी माँ के साथ करता था, ऐसी परिस्थिति में, जब वो मेरी बात नहीं सुनती थीं. मैंने उनकी ठुड्डी (chin) पकड़ के अपनी तरफ खीच ली… पहले मेरी बात सुनो… मेरा ऐसा करना था कि उस class teacher ने मुझे बहुत बुरी तरह झिड़क दिया…

Hey… don’t touch me… don’t you ever touch me…

उस दिन मुझे जिंदगी का एक बहुत बड़ा सबक मिला… दुनिया में सिर्फ एक औरत है जो तुम्हारी माँ है… उसके अलावा और कोई नहीं जिस से तुम्हें माँ का स्नेह और वात्सल्य मिलेगा…

मैं दरअसल अपनी class teacher को माँ समझने की भूल कर बैठा था. उसके बाद फिर कभी मुझे अपनी किसी टीचर के प्रति माँ जैसी भावना नहीं आई.

फिर कालान्तर में नियति स्वयं मुझे और मेरी पत्नी को शिक्षण कार्य में घसीट लायी. हमारा स्कूल कोई पारंपरिक स्कूल न था.

हम दोनों शिक्षण के लिए औपचारिक रूप से प्रशिक्षित भी न थे. और कोई बताने सिखाने वाला भी न था. जो कुछ भी सीखा समझा खुद ही ठोकरें खा खा के trial n error method से सीखा. सीखने में बहुत समय भी लगा.

शुरुआत पूर्वी उत्तरप्रदेश के एक गाँव से की थी जहां पेड़ के नीचे बैठा के पढ़ाया करते थे. फिर नियति जैसे दिल्ली से माहपुर ले गयी थी, वैसे ही माहपुर से जालंधर ले आई.

यहाँ का set up माहपुर से कुछ अलग था. यहाँ मेरी पत्नी ने एक स्कूल में principal के रूप में काम करना शुरू किया.

मुझे ये कहते हुए गर्व होता है कि मेरी पत्नी मेरी सबसे होनहार student रही. उसने मुझसे सबसे ज़्यादा सीखा है. शायद समय भी उसी को सबसे ज़्यादा मिला…

तो हमें लगा कि इन स्कूलों में आखिर प्रिंसिपल की इमेज जल्लाद वाली क्यों होती है. बच्चों के लिए भी और स्टाफ के लिए भी… प्रिंसिपल मने जल्लाद…

सो स्कूल में मैडम जी की कार्य शैली पहले दिन से ही एक माँ वाली रही. नया-नया स्कूल था. बच्चे सब छोटे थे. सो मैडम जी उन बच्चों को गोद में उठाये दिन भर घूमती… सारा दिन चुम्मियां लेती…

एक दिन एक बच्चे के माँ बाप आ गए जी स्कूल… शिकायत ले के… हमको लगता है कि बच्चे के साथ स्कूल में कोई दुर्व्यवहार (abuse) हो रहा है… कल बच्चे के गाल लाल थे…

मैडम जी ने बताया कि बात सही है जी… वाकई abuse हो रहा है और खुद मैडम ही abuse कर रही हैं… ऐसे… और उन्होंने फिर उसे उठा के 5-7 चुम्मियां ले डाली… पूरे गाल पे लिपस्टिक लग गयी…

parents हतप्रभ…

बच्चे जब भी मैडम को देखते भाग के लिपट जाते. फिर कुछ साल बाद एक बच्चे ने घर जा के शिकायत की… प्रिंसिपल मैडम हुण प्यार नी करदी…

उसकी माँ एक दिन ऑफिस में आई… बोली, मैडम टाइम निकाल के कभी-कभी एक आधी चुम्मी ले लिया करो… कहता है मैडम हुण प्यार नी करदी.

मैडम ने हंस के जवाब दिया… अब 4th क्लास में आ गया है. आजकल गोदी में नर्सरी, लोअर केजी वाले चढ़े रहते हैं.

वो तमाम बच्चे 10th के बाद जब दूसरे स्कूल में गए तो उन्होंने अपने parents को बताया कि इस स्कूल में वो माहौल नहीं जो उसमें था. यहाँ के टीचर्स अजनबियों सा व्यवहार करते हैं, मानो aliens हों, कोई भावना जैसे है ही नहीं, बेजान पत्थरों से…

शिक्षक-विद्यार्थियों में एक रिश्ता, एक bond होना चाहिए जो उन्हें भावनात्मक स्तर पर जोड़े… यदि वो रिश्ता विकसित नहीं हुआ तो शिक्षण होगा ही नहीं. शिक्षा का प्रवाह teacher से student तक होगा ही नहीं…

खासकर प्राथमिक (primary) और माध्यमिक (secondary) शिक्षा में तो ये bond होना बहुत ही ज़रूरी है.

ये वो पहली condition है जो बच्चे के सम्पूर्ण व्यक्तित्व के विकास के लिए नीव का काम करती है.

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