काफी समय हो गया है श्रीलंका से लौटे हुए लेकिन कोलंबो में सागर की लहरों का सुना हुआ शोर अभी भी मन में शेष है. थमा नहीं है. यह शोर है कि जाता ही नहीं. कान और मन जैसे अभी भी उस शोर में डूबे हुए हैं. उन दूधिया लहरों की उफान भरी उछाल भी लहरों के शोर के साथ आंखों में बसी हुई है.
लहरों का चट्टानों से टकराना जैसे मेरे मन से ही टकराना था. दिल से टकराना था. लहरों का यह शोर मेरे मन का ही शोर था. मेरे दिल का शोर था. यह शोर अब संगीत में तब्दील है शायद इसी लिए अभी भी मन में तारी है. स्मृतियों में तैरता हुआ. तो क्या यह वही शोर है, वही दर्प है जो राम को समुद्र पर सेतु बनाने से रोक रहा था ? जिस पर राम क्रोधित हो गए थे ? तुलसी दास को लिखना पड़ा था :
बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति॥
खैर, श्रीलंका में सागर की लहरों का शोर, वनस्पतियों का वैभव, वहां की हरियाली का मन में बस जाना और वहां के लोगों की आत्मीयता का सरोवर जैसे सर्वदा के लिए मन में स्थिर हो गया है. सर्वदा-सर्वदा के लिए बस गया है. यह सरोवर अब किसी सूरत सूखने वाला नहीं है. नहीं सूखने वाली हैं वहां की मधुर स्मृतियां. वहां की संस्कृति, खुलापन और टटकापन.
वहां के राजनेताओं की सादगी भी कैसे भूल सकता हूं. कभी पढ़ा था कि श्रीलंका हिंद महासागर का मोती है. श्रीलंका जा कर पता चला कि सचमुच वह मोती ही है. अनमोल मोती. कभी सीलोन, फिर लंका और अब श्रीलंका. बीते पांच दशक में इस देश का नाम तीन बार बदल चुका है. बचपन में हम फ़िल्मी गाने सुनते ही थे रेडियो सीलोन से. अब हम उसी सीलोन जा रहे थे जिसे अब श्रीलंका कहते हैं. श्रीलंका का संस्कृत में अर्थ है दीप्तमान द्वीप. तो इस दीप्तमान द्वीप से ख़ुशनुमा यादों की बारात ले कर लौटा हूं. इसी दीप्तमान द्वीप में सागर से गहरा रोमांस कर के लौटा हूं.
सागर से रोमांस ? कृपया मुझे कहने दीजिए कि दुनिया में रोमांस से ज़्यादा रहस्यमय कुछ भी नहीं.

24 अक्टूबर की रात जब मैं भंडारनायके एयरपोर्ट पर उतरा तो वहां की धरती बरसात से भीगी हुई थी. लगा जैसे बरसात अभी-अभी विदा हुई हो. बरसात को हमारे भारत में शुभ ही माना जाता है. मैं भी मानता हूं, मान लिया कि श्रीलंका की धरती ने हमारा स्वागत बरसात से किया है. सारा रनवे बरसात के पानी से तर था. जैसे भीगा-भीगा मन हो. मन भीग गया तब भी वहां जब वहां श्रीलंका प्रेस एसोशिएशन के कुर्लू कार्यकरवन, उन की पत्नी गीतिका ताल्लुकदार और सुभाषिनी डिसेल्वा ने भाव विभोर हो कर सब का स्वागत किया.
कोलंबो के होटल रोड पर ब्रिटिश पीरियड के 1806 में बने होटल माऊंट लेविनिया में हमारे ठहरने का बढ़िया बंदोबस्त था. इस विक्टोरियन होटल में सौभाग्य से हमारा कमरा समुद्र से ठीक सटा हुआ था. रात तो हम खाना कर सो गए. समुद्र का सुख नहीं जान पाए. लेकिन जब सुबह उठा और बालकनी का परदा खोला तो दिल जैसे उछल पड़ा. समुद्र की लहरें उछल-उछल कर जैसे हमारे कमरे के बाहरी किनारे को चूम रही थीं.
चट्टान से टकराती इन लहरों के हुस्न का अंदाज़ा तब मिला जब हम ने बालकनी में लगे शीशे के दरवाज़े को अचानक खोल दिया. अब उछलती लहरें थीं, उन का शोर था और मैं था. चट्टान से जैसे लहरें नहीं, मैं टकरा रहा था. बारंबार. समुद्र हमने भारत में भी दो जगह देखा था अब तक. एक तो गंगा सागर में दूसरे, कालीकट में. पर समुद्र का यह हुस्न, यह अदा, नाज़-अंदाज़, ऐसा अविरल सौंदर्य और यह औदार्य नहीं देखा था, जो कोलंबो में अब देख रहा था, महसूस रहा था, आत्मसात कर रहा था, जी रहा था.
सुबह सर्वदा ही सुहानी होती है लेकिन यह सुबह तो सुनहरी हो गई थी. एक अर्थ में लवली मॉरनिंग हो गई थी. मैं एक साथ सूर्य और सागर दोनों देवताओं को प्रणाम कर रहा था. प्रणाम कर धन्य हो रहा था. सागर की लहरों का शोर जैसे मेरे मन के शोर से क़दमताल कर रहा था.
गोया मन मेरा चट्टान था और मैं उस से टकरा रहा था. टकराता जा रहा था. बहुत देर तक बालकनी में बैठा लहरों के साथ रोमांस के सांस लेता रहा. कामतानाथ का एक उपन्यास है समुद्र तट पर खुलने वाली खिड़की. पर यहां तो पूरी बालकनी ही समुद्र तट से सटी हुई थी, खुली हुई थी। नाश्ते का समय हो गया था.
नहा-धो कर, पूजा कर नाश्ते के लिया गया. डायनिंग हाल के बाहर स्विमिंग पुल के पार नीले समुद्र के हुस्न का दीदार और दिलकश था. दिलकश और दिलफ़रेब. सागर की लहरों की उछाल तो वैसी ही थी पर लहरों का शोर यहां मद्धम था. हां, आकाश की अनगूंज भी यहां साथ थी. यह दूरी थी, आकाश का खुलापन था या कोई बैरियर. कहना मुश्किल था तब. तो क्या सागर आकाश से भय खाता है, बच्चों की तरह. कि शोर की सदा थम जाती है. मद्धम पड़ जाती है.
क्या पता !
कि जैसे समुद्र सेतु बनाते समय राम से उलझा और फिर डर गया.
लेकिन सागर का सौंदर्य जैसे यहां और निखर गया था. उस के हुस्न में जैसे नमक बढ़ गया था. स्विमिंग पुल में टू पीस में नहाती गौरांग स्त्रियों को देखें या सागर के सौंदर्य को देखें, यह तय करना भी उस वक्त मेरे लिए एक परीक्षा थी. अंतत: मैं ने सागर को देखना तय किया.
इसलिए भी कि सागर के सौंदर्य में जो कशिश थी, जो बुलावा, मनुहार, निमंत्रण और मस्ती थी, वह स्विमिंग पुल में नहाती स्त्रियों में नदारद थी. हालां कि एक साथी बार-बार कह क्या उकसा ही रहे थे कि स्विमिंग पुल में नहाया जाए. लेकिन इस सब के लिए मेरे पास अवकाश नहीं था.
समुद्र का निर्वस्त्र सौंदर्य मेरे लिए ज़्यादा महत्वपूर्ण था. इतना मनोहारी और इतना रोमांचकारी. और फिर जल्दी ही श्रीलंका प्रेस एसोशिएशन की इकसठवीं वर्षगांठ के कार्यक्रम में शरीक होने के लिए भी हमें जाना था.
क्रमश: