मुलाक़ात : सद्गुरु का गुरु कौन?

Jaggi Vasudev sadguru interview
Sadguru With Rajesh Mittal

आध्यात्मिक गुरु जग्गी वासुदेव आजकल सद्गुरु के नाम से जाने जाते हैं. सिर पर खास अंदाज में बंधी पगड़ी और डिजाइनर धोती-कुर्ते के कारण उनकी अलग पहचान है. टी-शर्ट, जींस, स्पोर्ट्स शूज, हैट और गॉगल्स में भी वह उतने ही सहज हैं.

गोल्फ, फुटबॉल आदि खेलते हैं. कार-बाइक के साथ-साथ हेलिकॉप्टर तक चला लेते हैं. 58 साल के सद्गुरु लैपटॉप, स्मार्टफोन पर तेजी से उंगलियां दौड़ाते हैं. देश-विदेश में अब तक लाखों लोगों को ‘इनर इंजिनियरिंग’ नामक योग कार्यक्रम सिखा चुके हैं.

इनका मुख्य आश्रम तमिलनाडु के कोयम्बटूर में है. दुनिया भर में इनके करीब 200 सेंटर हैं. इनका ‘ईशा फाउंडेशन’ योग कार्यक्रमों के साथ-साथ सामाजिक और पर्यावरण से जुड़े प्रोजेक्ट भी चलाता है. जून 2016 में दिल्ली आए सद्गुरु से राजेश मित्तल ने इंग्लिश में लंबी बातचीत की. इससे पहले सन 2009 में भी उनका इंटरव्यू लिया था. पेश हैं नई बातचीत के खास हिस्सेः

Q. आप हिंदी नहीं जानते?
A. समझ लेता हूं, पर जहां तक बोलने की बात है, एक-दो वाक्य ही बोल पाता हूं.

Q. आप क्या हैं – संत, महात्मा, योगी, समाज सुधारक या कुछ और? एक शब्द में.
A. अगर सिर्फ एक शब्द चुनना हो तो मैं खुद को योगी कहूंगा.

Q. आजकल योग का खूब प्रचार-प्रसार हो रहा है. लेकिन क्या यह अपने सच्चे स्वरूप में फल-फूल रहा है?
A. योग का मतलब महज शरीर को मोड़ना नहीं, हाथ-पांव की गांठ बना लेना नहीं, सांस रोक भी लेना नहीं है. यह सबसे शुरुआती चरण है. योग का मतलब है, एक होना. आप महसूस करें कि सारा ब्रह्मांड और आप एक ही हैं. आप जैसे यह महसूस करते हैं कि आपकी पांचों उंगलियां आपकी हैं, वैसे ही आप सारी दुनिया को अपना महसूस करने लगते हैं. ‘मैं’ और ‘तुम’ का एहसास खत्म हो जाता है. या तो सब ‘तुम’ हो जाता है या सब ‘मैं’ रह जाता है. दूसरे शब्दों में, योग का अर्थ है पूरे सामंजस्य में होना. आपका शरीर, मन और आत्मा संपूर्ण सत्ता के साथ पूरे तालमेल में है.

Q. इस स्थिति को पा कैसे सकते हैं?
A. रास्ते कई हैं, जैसे हठयोग. इसमें आप साधना शरीर से शुरू करते हैं. शरीर को अनुशासित करते हैं. उसे पवित्र करके ऊर्जा के ऊंचे स्तर के लिए तैयार करते हैं. प्राणायाम में सांस पर काम करते हैं. फिर मन पर, फिर अंतरात्मा पर. इन सभी पर काम करके ही अंतिम लक्ष्य तक पहुंचा जा सकता है. अगर आप सिर्फ शरीर के साथ काम करेंगे तो यह तैयारी के लिए ही होगा.

Q. आप आत्मज्ञान पाने का जो तरीका बताते हैं, क्या वही इकलौता सही तरीका है?
A. कोई ‘हमारा तरीका’ नहीं है. हमें किसी खास तरीके या रास्ते की जरूरत ही नहीं. हमने यह खोजा और पाया है कि अगर अपनी जिंदगी को हम इस तरह चलाएं तो हमेशा बेहतर नतीजे मिलेंगे – इंसान के लिए भी और एक बड़े स्तर पर समाज के लिए भी. लेकिन फिर भी हम यह नहीं कह रहे हैं कि बस यही तरीका है. इस पर सवाल उठाए जा सकते हैं. कभी कोई सवाल गलत नहीं होता. हां, जवाब गलत हो सकते हैं.

Q. धर्म आजकल झगड़ों की एक बड़ी वजह बन गए हैं. ऐसे में क्या धार्मिक होने से बेहतर नहीं है आध्यात्मिक होना?
A. पहले हमारे यहां धर्म नाम की कोई चीज नहीं थी. आज भी धर्म है नहीं, लेकिन विदेशी संस्कृतियों की देखादेखी अपने यहां भी धर्म को खड़ा करने की कोशिश की जा रही है. भारत जिज्ञासुओं की धरती रहा है, नाकि आस्थावानों की. आध्यात्मिकता और धार्मिकता में बुनियादी फर्क यही है. धर्म मतलब आस्था, विश्वास. अध्यात्म मतलब सत्य की खोज. विज्ञान भी यही काम करता है. अगर आप बाहरी दुनिया में सत्य की खोज करते हैं तो वैज्ञानिक कहलाते हैं. भीतर की दुनिया में करें तो आध्यात्मिक. बाहरी दुनिया की इंजीनियरिंग से आराम और सुविधाएं पैदा हो सकती हैं. सिर्फ अपने भीतर की इंजीनियरिंग से ही खुशहाली पैदा हो सकती है.

Q. आजकल की दुनिया में नैतिकता के साथ जीना मुश्किल होता जा रहा है. नैतिकता से अध्यात्म में तो तरक्की होती है, पर भौतिक दुनिया में, प्रोफेशन में इंसान पिछड़ जाता है. मैनेजमेंट की पढ़ाई में किलर इंस्टिंक्ट की बात की जाती है. हर कीमत पर कामयाबी चाहिए, टारगेट पूरा होना चाहिए.
A. अब इस तरह के मैनेजमेंट का वक्त नहीं रहा. अब जो नए किस्म का मैनेजमेंट चलन में है, उसमें नैतिकता की खासी अहमियत है. दुनिया भर के सभी टॉप मैनेजमेंट स्कूल मुझे लेक्चर के लिए इसी कारण बुलाते हैं. मैं हार्वर्ड, स्टैनफर्ड, वार्टन में बोल चुका हूं. अब इंडस्ट्री को एहसास हो गया है कि उनके तौर-तरीके नतीजे नहीं दे रहे हैं. नैतिकता और प्रेम से ही स्थायी सफलता मिल सकती है.

Q. क्या महत्वाकांक्षा रखना गलत है?
A. नहीं, पर महत्वाकांक्षा के नाम पर बड़े लक्ष्य किए जाते हैं अपनी काबिलियत बढ़ाए बिना. कार में पेट्रोल ही नहीं है तो कार मंजिल तक कैसे पहुंचेगी.

Q. आपकी शिक्षाओं का सार 2-3 लाइनों में.
A. मैं कुछ नहीं सिखाता. बस जिंदगी बदल देने के तरीके सिखाता हूं. अगर आपकी इसमें दिलचस्पी है तो मैं आपको तकलीफ, गुस्सा, नफरत दूर करने के असरदार तरीके दूंगा ताकि आप जीवन के नए आयाम छू सकें, मुक्ति पा सकें. चलना आपको खुद ही होगा.

Q. पर सुना है, बहुत-से गुरु शक्तिपात जैसे तरीके से शिष्य को झटपट आत्म साक्षात्कार करा देते हैं.
A. एक तरीका यह भी है बशर्ते आपके पास ऐसी ऊर्जा हो. ऐसा करने की क्षमता कितनों में है. आज मैंने आपको ऊंचाई पर पहुंचा दिया, कल आपने यू-टर्न ले लिया तो? ऐसे में गुरु की भूमिका है और उसके लगातार मार्गदर्शन की भी. अगर आप किसी अनजानी राह पर चलना चाहते हैं तो आपको उस शख्स की मदद लेनी ही होगी जो पहले से उस रास्ते से गुजर चुका है.

Q. तो गुरु जरूरी है. पर गुरु होगा तो शिष्य के शोषण के भी आसार बन जाते हैं.
A. (हंसते हुए) मेरे पास शोषण करने का वक्त नहीं है.

Q. लेकिन मैं जानना चाह रहा था कि अध्यात्म की राह में गुरु जरूरी क्यों है?
A. आप लिख रहे हो अ, आ, इ, ई. क्या इसके लिए टीचर की जरूरत है? अक्षर तो हमेशा से ही हैं. बहुत-से लोगों ने अपने आप ही लिखना सीखा है. टीचर के सिखाए बिना समाज में हमेशा से कुछ एकलव्य होते रहे हैं. लेकिन दुनिया में एकलव्य हैं कितने? ज्यादातर लोगों के लिए सचाई यही है कि गुरु बिना उनका कुछ सीख पाना मुमकिन नहीं. उन्हें कहो, साथ वाले घर जाना है. वे सारी दुनिया घूम आएंगे, साथ वाले घर नहीं पहुंच पाएंगे. अगर हम अहंकार और शोषण को हटा दें तो गुरु जरूरी है. चंद्र गिने-चुने गुरु ही शोषण करते हैं. इस दुनिया में करप्ट राजनेता हैं. करप्ट डॉक्टर, करप्ट वकील और करप्ट पत्रकार हैं. इसी तरह दुर्भाग्य से करप्ट आध्यात्मिक गुरु भी हैं. लेकिन हर आदमी करप्ट नहीं, हर आदमी धोखेबाज नहीं. अगर कोई गड़बड़ करे तो वह खबरों में छा जाता है और अगर कोई बेहतरीन काम करे तो उसकी कोई खबर नहीं. नेशनल मीडिया में नकारात्मक खबरें ही छाई रहती हैं. ऐसे में लोग सोचने लगते हैं कि हर कोई गड़बड़ है.

Q. सद्गुरु का गुरु कौन?
A. गुरु जैसी शख्सियत के बारे में हल्के तरीके से बात नहीं की जा सकती. उनका नाम लेने के लिए अभी उचित माहौल नहीं है.

Q. अभी आपने कहा कि चंद गलत गुरुओं के कारण तमाम गुरुओं को शक की निगाह से देखा जाने लगा है. ऐसे में सही-गलत गुरु कैसे पहचाना जाए? कैसे जानें कि हम सही गुरु की शरण में हैं?
A. इसे ऐसे समझें, अगर गुरु के दिए ज्ञान से आपकी आध्यात्मिक तरक्की हो रही है तो सब सही है. ऐसा गुरु चोर भी हो तो क्या दिक्कत है. अगर कोई डॉक्टर चोर है, पर आपको सही दवा देता है और आपकी बीमारी दूर हो जाती है तो डॉक्टर के चोर होने से आपको क्या लेना-देना. कोई क्रिकेटर अच्छा आदमी है या नहीं, आपको इससे क्या मतलब? अगर वह गेंद को बाउंडरी के पार पहुंचा देता है तो वह कामयाब है. अगर वह कुछ गलत काम कर रहा है तो कानून अपना काम करेगा.

Q. आसाराम बापू के बारे में आप क्या कहेंगे?
A. मैं उनसे कभी मिला नहीं. कैसे कुछ कह सकता हूं!

Q. ऐसा कहा जाता है कि योग जैसी विद्या सिखाने के लिए पैसा नहीं लिया जाना चाहिए. ईशा योग में भी पैसे का योगदान लिया जाता है.
A. ईशा योग के 70 फीसदी कार्यक्रम गांवों में चलते हैं. वहां यह फ्री है. सिर्फ शहरों में पैसे लिए जाते हैं. वजह यह कि यहां लोगों को एसी हॉल चाहिए, बाकी तमाम सहूलियतें भी चाहिए. फिर मेरे आने-जाने का भी खर्चा है. अब मैं रोज आकर पैसे तो मांगूंगा नहीं. तो जो पैसा दिया जाता है, वह सिर्फ बंदोबस्त का होता है, योग सिखाने का नहीं.

हमारे जो योग टीचर हैं, वे सब सेवा कर रहे हैं. एक पैसा नहीं लेते. अगर कोई फ्री में योग सीखना चाहे, गांव में जाकर सीख सकता है. एक बात और, शहरी लोगों की मानसिकता ऐसी है कि अगर फ्री में सिखाया जाए तो वे इसे गंभीरता से नहीं लेते. हर एक 2 घंटे बाद बीच में ही उठ लेंगे, कभी स्मोकिंग के लिए, कभी मोबाइल के लिए. शुरू में मैं सबको फ्री में ही सिखाता था. 50 फीसदी लोग गंभीरता से सीखते थे और 50 फीसदी मजे के लिए. फिर मैंने सिस्टम बनाया कि आपकी जो मासिक आमदनी हो, उसका 10 फीसदी योग कार्यक्रम के लिए दें. सब लोगों ने अपनी आमदनी गलत बतानी शुरू कर दी, जैसा इनकम टैक्स डिपार्टमेंट के साथ वे करते हैं. तब सिस्टम यह बना कि जिस इलाके में योग कार्यक्रम करें, वहां के लोगों की देने की क्षमता को ध्यान में रखकर पैसे लिए जाएं. पैसे इतने हों कि देते हुए तकलीफ महसूस हो. तभी वे इसकी कद्र कर पाएंगे.

Q. लेकिन पैसे देकर भी बेकद्री हो सकती है. आपके सामने जो बंदा बैठा है, वह ईशा योग में फेल हो चुका है. तीन साल पहले मैंने ईशा योग का ‘इनर इंजीनियरिंग’ कोर्स आपसे ही किया था. कुछ दिन प्रैक्टिस की. फिर सब छूट गया. ऐसा क्यों होता है? कैसे इससे बाहर निकले?
A. दरअसल हम किसी झटके का इंतजार कर रहे होते हैं. जब सब ठीक चल रहा होता है, हमें योग आदि की जरूरत महसूस नहीं होती. मान लो, आप हल्के हार्ट अटैक के बाद मेरे पास आते. मैं कहता, यह करो. तब आप इसे बिना नागा रोज करते. मर जाने का डर जो सामने होता. दुनिया में दो तरह के लोग हैं. एक वे, जो समस्या आ जाने पर ही उसे हल करने पर जुटते हैं. दूसरे किस्म के लोग समझदार होते हैं. वे समस्या का इंतजार करने की जगह पहले से ही उसे रोकने का इंतजाम करते हैं. इसलिए इंतजार नहीं करना चाहिए. समय रहते आत्मज्ञान को अपनी पहली प्राथमिकता बना लेना चाहिए.

Q. बीफ पर पिछले दिनों काफी विवाद रहा. मेरी मान्यता है, मैं नहीं खाता. पर दूसरे लोग भी ना खाएं, इसके लिए मजबूर करना क्या जायज है?
A. पाबंदी कोई हल नहीं है लेकिन लोगों को इसके बारे में समझाया जाना चाहिए. उन्हें बताया जाए कि बीफ खाना सेहत के लिए हानिकारक है, कि गाय हमारी संस्कृति में परिवार के सदस्य के रूप में रही है. फिर भी वे खाएं, तो उनकी मर्जी. किसी शख्स को या सरकार को इसमें दखल नहीं देना चाहिए. लेकिन देश के करीब 80 फ़ीसदी लोगों की भावनाओं की अनदेखी कर लाखों गायों को मारा जाए और बीफ दूसरे देशों को बेचा जाए, यह गलत बात है. बहुत-से गांवों में बीफ नहीं खाया जाता. इसलिए नहीं कि इस पर पाबंदी है. इसलिए कि अल्पसंख्यक लोग बहुसंख्यकों की भावनाओं की इज्जत करना चाहते हैं. अगर कोई खाना भी चाहता है तो चुपके से खा लेता है. दूसरे भी यह जानते हैं. पर शांत रहते हैं. कोई अपने घर में कुछ भी करे. लेकिन अगर कोई सरेआम करेगा तो एतराज होगा ही. फिर, हर मसले पर बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक का ठप्पा लगा देना गलत है. दुर्भाग्य से कुछ लोग यह खेल खेल रहे हैं.

Q. ईशा फाउंडेशन किस तरह से दूसरी आध्यात्मिक संस्थाओं से अलग है?
A. मेरे पास वक्त ही नहीं है कि दूसरी संस्थाओं के कामकाज का अध्ययन करता फिरूं. ईशा फाउंडेशन में ही बेहद बिजी रहता हूं. वैसे ईशा के बारे में खास बात यह है कि यह संस्था प्रेम, सेवा और समर्पण के सहारे चलाई जा रही है.

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