स्वाद तो मसालों में होता है… माँ के हाथ का खाना होता क्या है?

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आजकल टेलीविजन चैनलों पर एक विज्ञापन खूब आ रहा है- एवरेस्ट मसाले का. इसके ब्रांड एम्बेसेडर महानायक अमिताभ बच्चन हैं. कलाकार हैं; अंडर गार्मेंट का विज्ञापन करें या मसाले का, क्या फ़र्क़ पड़ता है.

वैसे भी बच्चन साहब के लिए विज्ञापनों की अहमियत फ़िल्मों से थोड़ी अधिक है क्योंकि विज्ञापन की दुनिया ने ही उन्हें तंगहाली के दिनों में सबसे अधिक आर्थिक संबल दिया था.  ऋणी हैं इस मायावी दुनिया के… इसलिए स्क्रिप्ट पर भी ध्यान नहीं देते.

भले ही ऐसे विज्ञापनों के कारण रिश्ते-नाते और लोगों की भावनाएं ही क्यों न आहत होती हो. उनका क्या… वो तो प्रोफ़ेशनल हैं… मनमाना दाम मिलेगा तो काम करेंगे.

अब ज़रा एवरेस्ट मसाले के इस विज्ञापन के कंटेंट पर ध्यान दीजिए… इसमें साफ़ तौर पर कहा गया है कि -“स्वाद तो मसालों में होता है… माँ के हाथ का खाना होता क्या है?”

कोई शक नहीं, खाना में स्वाद मसालों से आता है. लेकिन खाना बनाने की हुनर भी कोई चीज है. अलग-अलग हाथों में एक खास स्वाद बसता है. और जब माँ के हाथ के बने खाने की बात हो तो उसकी तुलना ही नहीं है. वो सिर्फ खाना भर नहीं होता… उसमें सिर्फ स्वाद नहीं होता बल्कि उसमे होती है माँ की ममता… माँ का प्यार… माँ का जतन… माँ की फ़िक्र.

माँ सिर्फ़ स्वाद के लिए बच्चों को खाना पकाकर नहीं खिलाती हैं बल्कि उन्हें हमारे स्वास्थ्य की भी परवाह होती है. उन्हें पता होता है कि कैसा खाना उसके बच्चे के लिए उपयुक्त होगा.

विज्ञापन की स्क्रिप्ट जितनी अतिश्योक्तिपूर्ण है उससे अधिक आश्चर्यजनक है अमिताभ बच्चन का इस विज्ञापन के लिए ब्रांड एम्बेसेडर बनना. हद है… एक गंभीर अभिनेता, जिसे देश महानायक कहता है… जिसे देश अपना सांस्कृतिक दूत मानता है… इतने घृणास्पद तरीके से माँ के हाथों से बने खाने की तौहीन कैसे कर सकता है?

हमने-आपने कई मौकों पर बच्चन साहब को मंच पर ही माँ के लिए भावुक होते देखा है… वो भी किसी समय शायद अपनी माँ  के हाथों की रसोई को ही पसंद करते होंगे…  फिर भी ऐसे विज्ञापन??? शायद यही पैसे की ताकत है और विज्ञापन की दुनिया की जीत…

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