जनरल बिपिन रावत को थलसेनाध्यक्ष नियुक्त किये जाने पर कांग्रेस पार्टी आदतन छाती पीट रही है.
सब चिल्ला रहे हैं, हाय हाय! सिनियोरिटी को तवज्जो नहीं दी गयी नियुक्ति में प्रक्रिया का नियम टूट गया फलाना ढिमका.
सब ऐसे रो रहे हैं जैसे इनके दामाद की अगली सगाई टूट गयी. कांग्रेस प्रवक्ताओं, तुमको ज्ञान नहीं है तो क्यों बोलते हो? अपनी भद्द क्यों पिटवाते हो?
सेनाध्यक्ष की नियुक्ति में कोई लिखित प्रक्रिया नहीं है. जब नियम है ही नहीं तो टूटा क्या? पप्पू का दूध वाला दाँत?
केंद्र सरकार सभी महत्वपूर्ण संवैधानिक पदों पर नियुक्तियां कैबिनेट की अपॉइंटमेंट कमिटी द्वारा करती है. नियुक्ति करना, न करना ये पूरी तरह से सरकार के विवेक के अधीन होता है.
उस स्तर पर किस आधार पर निर्णय लिए जाते हैं इस पर विपक्ष, मीडिया या कथित बुद्धिजीवियों को तब तक टिप्पणी नहीं करनी चाहिये, जब तक फलाने अधिकारी की नियुक्ति से देश पर किसी बड़े संकट की आशंका न हो.
सर्विस की अवधि को आधार बना कर वरिष्ठता क्रम के अनुसार अधिकारियों की नियुक्ति करना महज एक परम्परा रही है.
एक जमाने में उप राष्ट्रपति को ही सर्वसम्मति से राष्ट्रपति चुन लिया जाता था. लेकिन बाद में परम्परा बदली.
सन् 62 में जनरल बृजमोहन कौल को नेहरू ने नार्थ ईस्ट का GOC बना दिया था. चीन के साथ युद्ध हारने के कई कारणों में से एक यह भी माना जाता है कि नेहरु ने कौल से पारिवारिक निकटता के चलते उनकी नियुक्ति की थी.
यदि योग्य जनरल को नेफा की कमान दी जाती तो शायद भारतीय सेना पर 1962 का दाग न लगता.
जब व्यक्ति थ्री स्टार जनरल रैंक पर पहुँच जाता है तो दो-तीन साल की सिनियोरिटी मायने नहीं रखती.
सर्विस में सिनियोरिटी के आधार पर चीफ़ बनाने की परम्परा अब टूटनी चाहिये. ये सब पुरानी ब्रिटिश सामन्ती परम्परायें हैं.
इन बातों पर चिल्ल पों हो रही है तो मान के चलिये कि एक विशेष मानसिकता से ग्रसित कोई पत्रकार जानबूझ कर आपका ध्यान बहकाना चाहता है.
उदाहरण देखें… ‘जनता का रिपोर्टर’ वेबसाइट पर रिफत जावेद ने नाम न बताने की शर्त पर कुछ पूर्व सैन्य अधिकारियों के बयान का हवाला देकर लिखा है कि चूंकि जनरल बिपिन रावत उत्तराखंड से हैं इसलिए अजित डोभाल साहब से उनकी निकटता है.
जावेद ने यह भी दावा किया है कि जनरल रावत को ट्रेनिंग के दौरान राष्ट्रीय रक्षा अकादेमी और भारतीय सैन्य अकादमी में सर्वश्रेष्ठ कैडेट के लिए Sword of Honour भी जुगाड़ कर के मिला था.
ये किस तरह की पत्रकारिता है? बिना किसी प्रमाण के रिफत जावेद ने लेफ्टिनेंट जनरल रैंक के अधिकारी पर इस तरह के लांछन लगाये.
जावेद ने यह भी लिखा कि केंद्र सरकार ले. जनरल हरीज़ को सेनाध्यक्ष इसीलिए नहीं बनाना चाहती थी क्योंकि वे एक मुसलमान हैं.
इस तरीके की बातें जावेद जैसे पत्रकार इसीलिए लिखते हैं ताकि बेवजह ये हौवा खड़ा किया जाये कि मोदी सरकार मुसलमान विरोधी है.
जावेद को तारिक फ़तेह ने ABP न्यूज़ पर जमकर लताड़ लगाई थी. रिफत जावेद के पास ख़ास ढांचे की मानसिकता के अलावा कोई तथ्य नहीं हैं.
पूरे लेख में यही लिखा है कि फलाने रिटायर्ड सैन्य अधिकारी ने ‘नाम न बताने की शर्त’ पर ऐसा कहा, वैसा कहा.
मैं इस बात से भी सहमत नहीं हूँ कि प्रधानमंत्री ने जनरल रावत को सेनाध्यक्ष इसलिये बनाया क्योंकि उन्हें CI-CT ऑपरेशन और सर्जिकल स्ट्राइक में महारत हासिल है.
जनरल हरीज़ और जनरल बक्शी (जो कि सबसे वरिष्ठ हैं) दोनों की काबिलियत जाँचना, परखना और उस पर प्रश्न करना ये हमारा काम नहीं है.
जो काम सरकार का है वो सरकार को करने दीजिये. हमारी और आपकी जिम्मेदारी ये है कि सरकार के निर्णय पर भरोसा करें और सैन्य मामलों पर पहले अपनी समझ परिपक्व करें तब कोई टिप्पणी करें.
सेना को पब्लिक डिस्कोर्स में लाने लायक वाजिब वजह तो तलाश करें. भारतीय राष्ट्रीय रक्षा विश्वविद्यालय (INDU), चीफ़ ऑफ़ डिफेंस स्टाफ (CDS) जैसे नीतिगत मुद्दों पर तो कथित बुद्धिजीवियों और विपक्ष के पप्पुओं की कोई टिप्पणी नहीं आती, सरकार कोई नियुक्ति कर दे तो सब बवाल मचाने लगते हैं.