कुछ दिन पहले यूरोप में रहने वाले एक सज्जन से मिला था. उनके पास भी सैमसंग का एक वही मोबाइल था, जो मेरे पास है. एक ही चीज का हम दोनों ने अपने अपने मोबाइल से फोटो खिंचा. दोनो फोटूवों को देखने के बाद मै आवाक रह गया.
सेम ब्रांड के सेम मेगापिक्सल वाले कैमरे से ली गई तस्वीरों में जमीन आसमान का अंतर था. उनके मोबाइल से लिया गया फोटो, मेरे वाले से कम से कम दस गुना बेहतर था.
थोड़ा बहुत जानकारी इकट्ठा करने और पहले से सुनी सुनाई बातों की सत्यता जांचने के बाद मुझे ज्ञात हुआ कि हम सबसे बडे बाजार वाले देश के साथ साथ ऐसे देश के भी निवासी हैं, जिसके उपभोक्ताओं को दोयम दर्जे का समझा जाता है. इलेक्ट्रिक सामान, खाने पीने आदि की चीजें हमें सेम कीमत पर दूसरे देशों में बिक रही चीजों से खराब क्वालिटी की मिलती हैं.
यानि अगर एक विदेशी कंपनी भारत में भारतियों के लिए कोई चीज बनाती है तो उसका क्वालिटी स्टैंडर्ड दूसरा दूसरा होता है. यही हाल उन भारतीय कंपनियों की भी है, जो अपना माल एक्सपोर्ट करती हैं.
एक्सपोर्ट करने वाले सामान की क्वालिटी स्टैंडर्ड और प्रोसेस अलग होता है. जो लोग देश की किसी ऐसी कंपनी में काम करते हैं, उनको पता होगा कि कैसे इसके लिए पूरी अलग टीम होती है? सारे मानकों का पालन किया जाता है? वहीं देश में उपयोग होने वाली चीजों के लिए कोई नियम कानून नहीं होते.
आपको विश्वास ना हो तो अमूल या भारतीय चायपत्ती के किसी सेम ब्रांड को देश में और देश से बाहर यूज करके देख लिजिए, अंतर समझ में आ जायेगा.
यही भेदभाव दवाइयों और खास करके बच्चों के लिए उपलब्ध सामानों का है. डिस्प्रीन और नेमुस्लाइड विदेशों में बैन है, पर अपने यहां इनको ‘दर्द का अंत तुरंत’ वाला समझ के खुलेआम खरीदा बेचा जाता है. विक्स बेपोरव और किंडर जॉय बाहर के बच्चों के लिए खतरनाक है, पर अपने यहां ये मां का प्यार और विश्वास के रूप में जाने जाते हैं.
ये तो कुछ मात्र उदाहरण हैं, जो अक्सर मध्यम या उच्च वर्ग द्वारा प्रयोग किये जाते हैं. … गरीब बच्चों के लिए ढेरों ब्रांड में उपलब्ध बिस्कुट और चाकलेट आदि की गुणवत्ता देखकर तो यही लगता है कि ये बेचारे भगवान की कृपा से ही जिंदा हैं, वर्ना ये बाजारवाद तो हरपल इनको मारने के लिए प्रयासरत है.
इस पर सोचियेगा जरूर, कारण और बचाव के बारे में भी…… मैं भी सोचता हूँ.