80 और 90 के दशक भारतीय टेलिविज़न के स्वर्णिम युग थे. इसी समय दूरदर्शन में कई क्रांतिकारी परिवर्तन आए. नेटवर्क में सुधार आया, पिक्चर क्वालिटी बेहतर हुई, टीवी के ऊपर से नीचे तक चक्कर लगाती आड़ी-तिरछी रेखायें समाप्त हुई एवं अन्य कई सुधार हुए जिससे टीवी देखना पहले से कहीं अधिक रोचक होता गया.
उस ज़माने का दूरदर्शन अपने आप में एक संपूर्ण मनोरंजन पैकेज था. फौजी, सर्कस, बुनियाद जैसे धारावाहिकों की आज भी मिसाल दी जाती है. इसके अलावा गानों के लिये चित्रहार, दिन में दो न्यूज़ बुलेटिन और हफ्ते में 1-2 फिल्मों का प्रसारण किया जाता था.
उसी युग में रामानंद सागर कृत रामायण, श्रीकृष्ण और बी.आर. चोपड़ा की महाभारत ने दर्शकों के मन मंडल पर एक अमिट भक्तिमय छाप छोड़ी. इन धारावाहिकों के प्रसारण के समय पूरी सड़कें वीरान हो जाती थी.
दर्शक इन कलाकारों को अभिनेता-अभिनेत्री नहीं, अपितु साक्षात ईश्वर के स्वरूप में देखते और कई लोग तो पूजा की थाल ले कर टीवी के सामने बैठ जाते. संयोगवश कभी इन पात्रों के दर्शन को ये अपना परम सौभाग्य मान कर, उनके चरणस्पर्श कर आशीवार्द पा कर जीवन को धन्य मानते थे.
इन कलाकारों ने भी दर्शकों की भावनाओं का सदैव सम्मान किया. बी.आर. चोपड़ा की महाभारत में कुंती की भूमिका निभाने वाली नाज़नीन ने इस्लाम त्याग कर सनातन पद्धति को स्वीकार किया. अर्जुन की भूमिका निभाने वाले फ़िरोज़ खान ने भी हिंदू धर्म स्वीकार करते हुए अपना वास्तविक नाम भी बदल कर ‘अर्जुन’ ही रख लिया.
मुकेश खन्ना तो अपने किरदार में इस प्रकार रम गये कि सचमुच भीष्म पितामह की ही भांति आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करने की भीष्म-प्रतिज्ञा ली और अपने प्रोडक्शन हॉउस का भी नाम भीष्म इंटरनेशनल रखा.
लेकिन आजकल के धारावाहिकों में न तो वह सरसता होती है जो दर्शकों में भक्तिमय अलख जगाये, और न ही उसमें काम करने वाले एक्टर्स-एक्ट्रेसेस में अपनी भूमिका की गरिमा ज्ञात होती है.
लाइफ ओके पर प्रसारित होने वाले एक धार्मिक सीरियल ‘देवों के देव महादेव’ में देवी सती और आदिशक्ति की भूमिका निभाने वाली मौनी रॉय को पिछले साल सलमान खान के साथ बिग-बॉस में देखा था. सलमान के साथ मौनी ने एडल्ट केटेगरी की हंसी-ठिठोली की, मसलन एक 8-10 वर्ष के बच्चे को अपना और सलमान का बच्चा बताने लगी और कहा कि वे दोनों कश्मीर में मिले थे और यह बच्चा उसी का परिणाम है.
आमोद-प्रमोद में डूबी मौनी को कभी यह परवाह नहीं हुई कि दर्शकों ने उन्हें आदिशक्ति देवी सती के रूप में देखा है. मौनी के लिये भले ही देवी सती की भूमिका अन्य भूमिकाओं की ही तरह पैसे कमाने का एक ज़रिया होगा और उनके मन में इसके लिये कोई विशेष सम्मान भी नहीं लेकिन एक दर्शक के रूप में मैंने स्वयं को बहुत ठगा हुआ महसूस किया.
टीवी चैनलों की बढ़ती संख्या ने कलाकारों की छवि को ऐसा बना दिया है कि अगर वे हमेशा कुछ नया नहीं करते रहे तो लोग उन्हें भूल जायेंगे और अपनी पहचान बनाये रखने के लिये ये कलाकार किसी भी हद तक जा सकते हैं, बिना किसी दर्शक की भावना तथा किसी मर्यादा की परवाह किये.