मप्र. इन्दौर के केसर बाग़ रोड स्थित एक निजी स्कूल के सामने स्कूल छूटने के इन्तज़ार में खड़ी मिनी बसें और रिक्षा. इस स्कूल में तक़रीबन 6 हजार छात्र छात्राएँ पढ़ते हैं. दूसरी तरफ़ सरकारी स्कूल ख़ाली रहते हैं.
सरकारी स्कूलों में टीचर्स को औसतन 30 से ४० हजार रूपयों तक वेतन मिलता है. निजी स्कूलों में टीचर्स को 5 हजार से लेकर 18 हजार रुपये प्रति माह वेतन देते हैं.
निजी स्कूलों में बच्चों से फ़ीस 800 रुपये प्रति माह से लेकर दस हजार रुपये प्रति माह फ़ीस वसूल करते हैं.
प्राईवेट स्कूलों के मालिक काग़ज़ पर तो सार्वजनिक ट्रस्ट या सहकारी संस्था होती है. पर ऐसी ज्यादातर सोसाइटियां नाम मात्र की दिखाने की होती हैं. कुछ अपवादों को छोडकर अधिकांश संस्थाओं में एक ही परिवार के चार पांच लोगों की सोसाइटी बना ली जाती है.
नियमानुसार कोई भी सोसाइटी का सदस्य, स्कूल की संस्था से एक रुपिया भी अपने निजी उपयोग के लिए ख़र्च नहीं कर सकता. पर होता उल्टा है. कुछ स्कूलों के मालिक मकान बनाते हैं ट्रस्ट या संस्था के नाम पर फिर उसे गेस्टहाउस बताकर स्वंय उस मकान में रहते हैं.
कई लोग घर का महंगा सामान ख़रीदते हैं, बिल का भुगतान स्कूल से होता है. चार्टर्ड अकाउन्टेन्ट से लीपा पोती करके हिसाब किताब सही कर लिया जाता है.
स्कूलों के मालिक और उनका परिवार स्कूल के नाम पर मर्सिडीज़ और ऑडी कार ख़रीद कर ऐश करते हैं और विदेश यात्राओं में करोड़ों ख़र्च करके हवाला से काला धन बंटोरते रहते हैं.
यद्यपि सभी स्कूल इस कमाई के काले सफेद घन्धे में लिप्त नहीं हैं, कुछ स्कूल ऐसे भी हैं जैसे सत्यसाईं, गुरुहरिकिशन, मातागुज़री, सिक्का, वैष्णव, गुजराती आदि ऐसे कई स्कूल हैं जो सचमुच ईमानदारी की मिसाल क़ायम करते हैं. पर तड़क भड़क दिखाने में माहिर बड़े बड़े स्कूलों की अधिकांश की जड़े काली कमाई का ख़ज़ाना बन गई हैं.
पता नहीं इस समय देश में चल रही काली कमाई की धड़पकड़ में इन लुटेरे स्कूल मालिकों का काला चिट्ठा कब खोला जाएगा?