मेरे पिछले लेख पर टिप्पणी करते हुए एक महोदय का कहना है कि आप बाई चांस हिन्दू हैं और मैं बाई चांस मुसलमान… अगर हम बाई चॉइस हिन्दू या मुसलमान होते तो बहस का कोई मतलब था…
सोचता हूँ, हमारा हिन्दू या मुसलमान होना क्या सचमुच सिर्फ बाई चांस है?
आज शायद यह बाई चांस लगे, पर 1400 सालों के इतिहास में करोड़ों लोगों को यह चॉइस दी गयी कि या तो कलमा पढ़ो, या गर्दन पर तलवार को झेलो…
हमारी चॉइस हमारी कलेक्टिव चॉइस है. हमारे पूर्वजों ने चॉइस लिया था… कुछ ने गर्दन कटा दी थी, कुछ ने गर्दनें उतारी थीं… तब हम आज हिन्दू हैं.
आज भी बहुत से हैं जो सेक्युलरी चोला ओढ़ कर पड़े हैं. बहुत से हैं जो 1000 रूपये और 2 किलो चावल के लिए क्रॉस पहन ले रहे हैं और करोड़ों हैं जो अपने ही स्वधर्मियों की उपेक्षा और तिरस्कार झेल कर भी हिन्दू बने रहे…
बल्कि भारत में आज हिन्दू होना आसान नहीं है… जो भी हिन्दू है, वह स्वेच्छा से, अपने निर्णय से हिन्दू है… इसे संयोग मात्र कहना सदियों के, पीढ़ियों के संघर्ष का अपमान होगा…
और आप भी मुसलमान हो तो संयोग से नहीं हो… बाई चॉइस ही हो… हमारे जिन पूर्वजों ने उस समय तलवार के तले, धर्म को गुलामी के बदले तौल दिया उनके ही वंशज आज आप हो.
और आज भी आपकी चॉइस है कि आप उस गुलामी को, इस्लाम यानि सबमिशन को ढो रहे हो… वरना किसने रोका था आपको अपने पूर्वजों के इतिहास को स्वीकारने से?
आपने शौर्य को छोड़ कर आक्रांताओं की बर्बरता को अपना इतिहास माना… आपकी चॉइस है…
और आप ही क्यों, दुनिया में जो भी मुसलमान हैं उनका यही इतिहास है. हर कोई जो आज मुस्लिम है उसके किसी पूर्वज को किसी समय इस्लाम और तलवार में एक को चुनने की चॉइस दी गयी थी. इसी चॉइस के इतिहास का नाम इस्लाम है.
और गौरी, ग़ज़नवी, तैमूरलंग और नादिर शाह भारत में बाई चांस नहीं आये थे… किसी आइडियोलॉजी से प्रेरित होकर आये थे और वह आइडियोलॉजी आज आपकी चॉइस है.