हवलदार किशन चंद एक ऐसा किरदार था जो अपने अंगभूत गुणों के कारण मेरे लिए अविस्मरणीय बना रहा. खोटे सिक्के तो बी ग्रेड फिल्म मानी जाती है और हो सकता है कि सब को पता भी न हो.
फिल्म यूट्यूब पर उपलब्ध है, लेकिन आग्रह नहीं करूंगा, यहीं इस सर्वव्यापी व्यक्तित्व की पहचान करा देता हूँ.
हवलदार किशन चंद गाँव में रहता हुआ एक रिटायर्ड फौजी है. कहता है कि दूसरे विश्वयुद्ध में अंग्रेज़ फौज में जर्मनों की खिलाफ लड़ा था. कहानियाँ सुनाता रहता है जिसे लोग टाइम पास के तौर पे ही लेते हैं लेकिन यह हर समय यूनिफ़ोर्म में ही घूमता रहता है.
जो कोई उसकी सुने उसको धौंस देते रहता है या लोगों को भड़काकर फिर खुद उन भड़के हुए लोगों का नेता बन जाता है. कोई आर्थिक लाभ तो नहीं उसका लेकिन मुफ्त की चौधराहट का उसे शौक है.
कोई सरकारी अफसर वगैरा आए तो उनके आगे पीछे दुमछल्ला बन कर घूमता है, यहाँ तक कि नकली पुलिस बन कर आए डाकुओं को भी पहचान नहीं पाता और उनके सामने गाँव वालों पर typical चमचा स्टाइल से धौंस जमाता है.
किशन चंद हर उस काम का पुरजोर विरोध करता है जिसमें उसको कोई तवज्जो न दी जा रही हो. या फिर कहें कि हर काम में आड़े आता है जो उसके बिना हो सकता है और काम करनेवाला आदमी कोई ऐसी हैसियत पा सकता है जहां किशन चंद की बकवास सुनने की उसे जरूरत न हो.
फिल्म में गाँव में एक डाकू का आतंक छाया रहता है. गाँव का एक लड़का अपने कुछ दोस्तों के साथ गाँव आता है. उसके दोस्त वैसे तो हैं गुंडे और शहर में रहना मुश्किल है उनके लिए, सो गाँव आ जाते हैं. डाकू की दहशत देखकर लड़ने का प्लान बनाते हैं. हीरो भी आ जाता है, उनसे जुड़ जाता है और योजना बनने लगती है. कुछ फल भी दिखने लगते है.
किशन चंद उनका सब से मुखर आलोचक है. उसके हिसाब से वे गाँव के लोगों की जान खतरे में डाल रहे हैं. डाकू से पुलिस बचा नहीं सकती, डाकू को शरण जाने से ही जान बच सकती है.
अत्याचार करे तो सह लेने चाहिए, जान बची तो बहुत है यह उसका कहना है. जहां भी झड़प में कुछ जान माल की हानी होती है वहाँ वो इन लड़ाकों को अपमानित या हतोत्साहित करने पहुँच जाता है.
इस सब का मूल कारण है कि उसकी फौजी करियर केवल कहानी है. वो कायर है जो बात साबित होती है जब गाँव पर करारा हमला होता है और उसे भी मजबूरन बंदूक लेकर निकलना पड़ता है.
बंदूक लेने घर आता है तब भी वो इन लड़ाकों को कोसते ही आता है और दरवाजा बंद कर के देवी के सामने गिड़गिड़ाता है. भले तब हास्यास्पद लगे लेकिन जब हम उसकी पूरी व्यक्तिरेखा समझते हैं तो हमें अपने इर्द गिर्द कई ऐसे हवालदार किशन चंद दिखाई देते हैं.
कहीं इनकी चौधराहट खतरे में आ रही है, कहीं उनको यह नहीं सहन हो रहा है कि वे नाकारा साबित हो और लोग किसी और को मानने लगे. कहीं इनकी अकर्मण्यता युवा को भी उन्हीं बंधनों में बंधे रहने को अभिशप्त कर रही है जिन बंधनों की इन्हें आदत सी हो गई है. या फिर निरी कायरता है कि सेनापति तो बने रहना है लेकिन युद्ध से डर है.
उसका डर तब एक्सपोज हो जाता है जब ये कहते हैं कि युद्ध के लिए तैयारी पर्याप्त नहीं – लेकिन यह नहीं कहेंगे कि इन्होंने इतने वर्ष सेनापति रहते तैयारी के बारे में क्या किया?
अब भी तैयारी करने के लिए कुछ भी क्यूँ नहीं कह रहे? युद्ध जरूरी नहीं कि हिंसा ही हो, लेकिन शांति से लड़े जाने वाले युद्ध पर भी कहने, करने या दिखाने को आप के पास कुछ नहीं फिर भी इनको ही बने रहना है.
फिल्म में तो ये हवलदार किशन चंद एक साइड कैरक्टर था, कोई बड़ा रोल नहीं था. इसलिए फिल्म का एंड आते आते यह कहीं fade out हो जाता है. लेकिन अपनी जिंदगी में ऐसे किशन चंद fade out नहीं होते, और ना ही साइड कैरक्टर होते हैं बल्कि असली खलनायक तो ये ही साबित होते हैं. अपने जिंदगी के हवालदार किशन चंद को पहचानिए.
इनकी सब से बड़ी पहचान यह होती है कि इनके पास हर समाधान के लिए हमेशा समस्या होती है लेकिन किसी भी समस्या का समाधान कभी नहीं होता. They always have a problem with every solution but never a solution for any problem.
यशस्वी लोगों के चरित्र में हमेशा एक सीख मिलेगी कि उपदेश ऐसे लोगों से नहीं मांगना चाहिए जो हमेशा कहे “मत करो”. किसी भी काम में फेल होने का 50% चांस तो होता ही है तो आसान है एक्सपेर्ट बनना कि देखो मैंने कहा जो था. जो व्यक्ति बात पूरी सुनकर आगे क्यूँ नहीं बढ़ना है उसके कारण बता दे और साथ साथ उन कारणों का सही उपाय भी, तो वही सही मार्गदर्शक होगा.
किसी हवलदार किशन चंद के कमेन्ट से पहले ही साफ कर देता हूँ कि मैं खुद को नेता या मार्गदर्शक के रोल में स्थापित नहीं करना चाहता, लेकिन हाँ, कम से कम हवालदार किशन चंद तो हूँ नहीं.
शुभम भवतु । जय हिन्द !