करप्शन का 70 साला मॉडल : जादू की छड़ी है मोदी सरकार के पास?

1961 में नेहरू सरकार ने इनकम टैक्स एक्ट बनाया, उसमें राजनैतिक पार्टियों को मिलने वाले डोनेशन को इनकम टैक्स से मुक्त रखा गया.

बाद के सुधारो में ये हुआ कि अगर डोनेशन की राशि 20 हज़ार रूपए से ज्यादा है तो वो सिर्फ चेक से स्वीकार की जा सकती है. इसके नीचे कैश से.

इसका भी कारण ये है कि तमाम NGO, कंपनियों के साथ भी यही नियम है. 20 हज़ार से ऊपर के ट्रांजेक्शन चेक से होने चाहिए. इसमें लूपहोल ये है कि ये 20 हजार की रकम एक दिन के लिए है.

अगर किसी कंपनी को एक लाख का पेमेंट कैश में मिलना है या करना है तो वो 5 दिन में 20-20 हजार का पेमेंट दिखा देती हैं अपनी बुक्स में.

जैसे बिना पैन नंबर के आप किसी बैंक अकाउंट में 50 हजार से ज्यादा जमा नहीं कर सकते.

आपको एक लाख जमा करना है, आप 45-45 हजार और फिर दस हजार तीन दिन में बिना पैन नम्बर के जमा कर देते हैं.

आपने सिस्टम के लूपहोल का फायदा उठाया.

ऐसे ही कानून में लूपहोल का फायदा पार्टियां उठाती हैं. फर्जी मेंबर और उनके द्वारा फर्जी डोनेशन दिखाकर चुनाव में खुला खर्च करती हैं.

ये कानून का लूपहोल है. जिसका फायदा पार्टियां उठा रही हैं.

लेकिन यही फायदा एक मंदिर को हासिल है, गुरूद्वारे को भी, चर्च, मस्जिद को भी. इनको तो 20 हज़ार की लिमिट भी नहीं कैश की.

एक धार्मिक स्थल भी काला पैसा सफ़ेद कर सकता है.

फिर?

इसका समाधान पूरी तरह कैशलेस सिस्टम में है. जब सब कुछ बैंक के जरिये होगा, तब काला धन छुपाना मुश्किल होगा.

लेकिन फिर विरोधी गरीबों का रोना रोयेंगे. जैसे अभी रो रहे हैं. गरीब कैसे कैशलेस में कैसे जिन्दा रहेगा. गरीब तो लाइन में मर रहा है.

फिर सरकार कैसे फैसला ले? करप्शन का जो मॉडल पिछले 70 सालों में खड़ा हुआ है क्या वो एक झटके में दूर हो जायेगा. जादू की छड़ी है मोदी सरकार के पास?

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